गृहप्रवेश
गृहप्रवेश
शैलेश : आठ लाख ये रहे बीस लाख और, अस्सी लाख का शालीमार बाग बिक जायेगा, चालीस लाख हमें सैक्टर बाईस के फ्लोर को बेच के मिल जायेंगे दो लाख कैश पड़ा है, और पचास लाख का लोन मैं उठा लूँगा। हो गए ना पूरे दो करोड़ ? अब तो हँस दो मेरी जान, देखना अगले छह महीने में तुम अपने नए फ्लैट की मालकिन होगी।
मेघा ( मुस्कुराते हुए ) : एक तुम ही तो हो जो मुझे समझते हो, नहीं तो इस घर में किसी को मेरी परवाह नहीं।
माता - पिता : मगर बेटा कर्ज़ लेने की क्या जरूरत है ? हमारे बाद ये मकान तुम्हारा ही तो है।
शैलेश : तो क्या मैं तुम्हारे मरने की इंतजार करता रहूँगा ? एक बार कह दिया ना कि मुझे नहीं रहना तुम्हारे साथ।
कुछ महीने बाद ही घर में कलेश और बढ़ने लगा। छोटी-छोटी रोज़मर्रा के समान की कटौतियाँ करके लोन के पैसों को चुकता करने में शैलेश ने अपनी सेहत की परवाह करना बिलकुल ही जैसे बंद कर दिया। तीन समय का खाना अब एक समय ही रह गया और इधर मेघा की फरमाइशें अब और ज़ोर पकड़ने लगीं। आखिर में जैसे - तैसे मेघा का नया फ्लैट उसके मन-मुताबिक़ नवीनीकरण के साथ बनकर तैयार हो गया, अब बस अगर कुछ बाकी था तो वो थी गृहप्रवेश की तैयारी।
छह महीने बाद -
आज गृहप्रवेश का शुभ दिन था। जिस मकान को कभी शैलेश के माता-पिता बेचना नहीं चाहते थे, अब वो भी उस नए फ्लैट में समा चुका था। सभी मेहमान मेघा के नए फ्लैट को देखकर बहुत खुश थे, नम थी तो बस वो चार आँखें जो कर्ज में डूबे अपने शैलेश को नहीं बचा पाईं।
