घुँघरू टूट गये,{प्यार }
घुँघरू टूट गये,{प्यार }
जब मैं विवाह के बाद दुल्हन बन कर महल में आई तो वहाँ आलीशान द्वार पर मेरे स्वागत के लिये कोई न था.मैं अकेली ही अपनी भारी-भरकम पोशाक संभालते हुए, लगभग भागते हुए प्रिंस के कमरे में पहुँची.प्रिंस घोड़े पर आये थे और मैं शाही बग्घी पर. कमरे में कोई नहीं था. शायद 'प्रिंस पहले पहुँच कर महारानी को नमन करने चले गये हों'.सोच कर मैं वहाँ रखी आरामकुर्सी पर पसर गयी. सामने पलंग पर रखे लाल मखमली बक्से पर मेरी नज़र पड़ी. उत्सुकता ने मुझे प्रेरित किया और अपना सब्र खो कर बक्सा खोल बैठी. ओह! महारानी की तरफ़ से उपहार!
बक्से में कई परतों में कीमती जड़ाऊ गहनों के सेट थे, खूबसूरत, एक से बढ़ कर एक. कल्पना से परे! मेरी आँखें आश्चर्य से खुलती चली गईं. अंतिम परत खुलते ही जो देखा तो माथा चकरा गया. उस उपहार को दोनों हाथों में लिया तो आँसू आ गये. वो मेरी माँ की निशानी के रूप में मुझे उपहार में दिये गये थे, शायद याद दिलाने के लिये कि मेरी माँ शाही- दरबार में राजनर्तकी थीं और वहाँ बड़ी बेरहमी से उनका कत्ल हुआ था.घुँघरू हाथ में लिये रो रही थी कि प्रिंस ने कमरे में प्रवेश किया. पहली बार, प्रिंस को देख कर मुझे डर लगा. मैं अपने हाथों में माँ की निशानी लेकर भागी और आँखें बंद कर के खिड़की से नीचे कूद गयी. कूदते ही लगा किसी ने बाँहों में भर लिया. हाँ, वे प्रिंस ही थे जो मुझे आरामकुर्सी से उठा कर पलंग पर लिटा रहे थे.
लाल मखमली डिब्बा पलंग पर ज्यों का त्यों पलंग के एक कोने पर पड़ा था और मेरा दिल अनजाने भय से धक-धक कर रहा था.मेरा पूरा शरीर काँपने लगा.मैं स्वप्न की दुनिया से निकलने की कोशिश करने लगी.प्रिंस कुछ समझ न पाये और मेरा बदन सहलाने लगे. मेरी आँखों से आँसू झर-झर बहने लगे.
"क्या हुआ? कोई बुरा सपना देखा क्या?"प्रिंस ने मेरी आँखों में झाँका.
"कुछ नहीं.बस यूँ ही माँ का ख़्याल आ गया."
"जानता हूँ.अपनी माँ का पल्लू पकड़ कर ही तो घूमती थीं तुम बारादरी में.जहाँ मेरा आना-जाना मना था.फ़िर भी देखो अपने मोहपाश में जकड़ कर ले ही आया न तुम्हें अपने महल में."
कहते हुए प्रिंस ने मुझे अपनी बाहों में जकड़ लिया.चाहते हुए भी मैं अपने सपने की बात न कह सकी क्योंकि प्रिंस का चुंबन मेरे होंठों को बंद किये हुए था.
कुछ देर आँख बंद कर लेटी रही.पर नयनों में नींद कहाँ? रह रह कर माँ का ख़्याल निचोड़ डाल रहा था मन को. प्रिंस से कुछ कह कर मधु-चन्द्र-रात्रि का शुभ-सौंदर्य नहीं बिगाड़ना चाहती थी.आख़िर एक बार ही तो आती है यह रात्रि जीवन में.उनके मुख-मंडल पर असीम तृप्ति का भाव फैला देख कर आत्मसंतोष हुआ मुझे.
रात भर माँ से जुड़े विचार आते रहे मन में.पंद्रह वर्ष तक माँ के साथ हवेली में रहने के बाद अचानक मुझे नानी के पास भेज दिया गया था.जवान होती सुंदर लड़की महल की मर्यादा भंग कर सकती थी शायद.आश्चर्य तो तब हुआ जब माँ के कत्ल की बात पता चली.रोते-रोते आँसू सूख गये होते अगर प्रिंस ने सहारा न दिया होता.उन्होंने हरकारे भेज कर खर्चा-पानी देने की व्यवस्था करवाई और मेरी शिक्षा की भी.मैं उनके अहसानों तले दबती चली गई क्योंकि राजनर्तकी के मरने के बाद उसकी बेटी का क्या भविष्य होता यह समझने लायक परिपक्वता आ गई थी मुझमें.
फिर अचानक एक दिन प्रिंस की ओर से मेरे लिये विवाह का प्रस्ताव आया.नानी के यहाँ सब लोग आश्चर्यचकित रह गये.नानी अभी तक अपनी बेटी का ग़म नहीं भुला पाई थीं कि नातिन का महल में बुलावा! नहीं यह छलावा था, विवाह प्रस्ताव नहीं जिसे वे प्रथम प्रयास में ही ठुकरा देना चाहती थीं.पर लोगों के समझाने पर वे इस बात पर राज़ी हुईं कि प्रिंस उनसे स्वयं मिलें और बतायें कि उनकी बेटी, राजनर्तकी रत्नावली की महल में मृत्यु कैसे हुई? क्योंकि महल में दफ़न इस राज़ को अब तक राज़ ही रखा गया था.
नानी का पैगाम सुन कर प्रिंस ने नानी को बात-चीत के लिये महल के मेहमानगाह में आमंत्रित किया.उनके लिये शाही सवारी भेजी गई.पर बातचीत का कोई हल नहीं निकला.नानी ने बेटी खोई थी.उन्हें इंसाफ़ चाहिये था.कैसे अपने घर की दूसरी बेटी महल के हवाले कर देतीं?अंत में प्रिंस ने आश्वस्त किया कि विवाह के बाद वे मुझे सब बता देंगे.उन्हें डर था कहीं बगावत न हो जाये या फ़िर राजपरिवार वाले उन्हें यह शादी ही न करने दें. शायद विवाह प्रस्ताव भेजने से पहले उन्हें राजपरिवार के विरोध का भी सामना करना पड़ा था.सोचते-सोचते आँख लगी ही थी कि प्रिंस ने मेरी तरफ़ करवट बदल कर एक बार फिर मुझे प्यार से सरोबार कर दिया.
"चलो उठो रानी कर्णिका, रानी माँ से मिलने जाना है तुम्हें. वे वक्त की बहुत पाबंद हैं और नियमों की भी."
"नियम! कैसे नियम प्रिंस?"
"पहले तो तुम मुझे प्रिंस मत कहो.मैं तुम्हारा नीलमणि हूँ. रानी माँ से मिलने के तौर-तरीके तुम्हें हमारी धाय माँ समझा देंगी.और हाँ, इस लाल बक्से में राजसी आभूषण हैं जो तुम्हें नई पोषाक के साथ पहनने होंगे.रानी माँ तुम्हें एक विशेष आभूषण के साथ एक पदवी से भी विभूषित करेंगी."
"लाल बक्सा! उफ़ यह लाल बक्सा!" मेरा बदन फ़िर से कांपने लगा.
"क्यों क्या हुआ? लाल बक्से के नाम पर तुम्हारे चेहरे की रंगत क्यों बदल गई?"
कुछ नहीं प्रिंस बस यूँ ही..."
"फिर प्रिंस?"कहते हुए नीलमणि ने मेरे मुँह पर हाथ रख दिया.***
रानी माँ से मिल कर वापस लौटी तो मन में केवल एक प्रश्न था 'इस महल में मेरी माँ की मृत्यु क्यों और कैसे हुई?' मानो यही जानने का ध्येय लेकर मैं इस महल में आई थी. न तो राजसी वैभव में मेरी कोई रुचि थी न राज-पदवी में.पर किससे पूछती? यहाँ तो सब अपने-अपने में व्यस्त थे.रानी माँ से मिलना भी एक औपचारिकता थी जिसे पूरी करते-करते मैं पूरी तरह से थक चुकी थी.हाँ, शाही भोज बहुत स्वादिष्ट लगा.कमरे में आते ही गहरी नींद के आगोश में चली गई.कब नीलमणि आये पता ही न चला.
सुबह मेरे उठने से पहले ही वे चले भी गये.धाय माँ ने मुझे नाश्ता-खाना खिलाया.उनसे कुछ पूछना चाहा पर उनके सीधे-सपाट, कठोर चेहरे को देख कर हिम्मत न पड़ी.दो-तीन दिन बस यूँ ही निकल गये. एक दिन मैं पूछ ही बैठी.
"नीलमणि आपको अपना वादा याद है?"
"कौन सा?"
"जो आपने मेरी नानी से किया था.विवाह से पूर्व."
"हाँ, याद है. बताऊँगा जरूर. फ़ुरसत से कभी."
कहते हुए वे कमरे से बाहर निकल गये.मैं देखती रह गई.अब मेरा मन महल में बिल्कुल नहीं लग रहा कुछ दिनों में ही मन उचटने लगा.नानी के घर जाने की हुड़क मन में उठने लगी.पर पता था कि इतनी जल्दी जाना संभव नहीं. फिर भी शाम को जब नीलमणि आये तो मैंने कह ही दिया, "नानी की मुझे बहुत याद आ रही है.जा कर मिल आऊँ?"
"कर्णिका अब तुम महल के प्रिंस की रानी हो.आम प्रजा से कैसे मिल सकती हो?"
मैं सन्न रह गई इससे पहले की मैं कुछ कह पाती वे स्वयं ही बोले, "हम तुम्हारी नानी को ही यहाँ बुलवा लेते हैं."
"नानी शायद यहाँ न आयें."
"क्यों?"
"आपने अपना वादा जो पूरा नहीं किया."
"हमने बहुत सोचा पर उन सब बातों को याद करके तुम्हारा दिल नहीं दुखाना चाहते.हमने तुमसे प्यार किया है रानी कर्णिका."
"प्यार ही में तो पूछना चाहती हूँ.मैंने भी अपनी माँ से बहुत प्यार किया था.अचानक उन्हें खो कर मुझे कैसा लगा होगा? सोच सकते हैं न आप?
"जरूर, पर उस राज़ की दहशत सहन कर पाओगी तुम?"
क्यों नहीं? जिस दर्द को झेल कर मेरी माँ दूसरी दुनिया में चली गई, उसे क्यों झेल नहीं पाऊँगी? आख़िर क्या क़सूर था मेरी माँ का जो उसको इतनी दर्दनाक मौत मिली?"
"उसी का तो प्रायश्चित किया मैंने, तुमसे विवाह करके.
"प्रायश्चित! यानि कि तुम मुझसे प्रेम नहीं करते?"
"करने लगा हूँ अब.तुम्हें पाने के बाद."
"तो फिर पहले क्यों नहीं बताया?"
"क्या कहता? तुम्हें इस महल में लाना जो था."कहते हुए नीलमणि ने मुझे बाहों में जकड़ कर चुंबनों की बौछार कर दी.
नीलमणि का इस तरह प्यार जताना मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा था.मैं जल बिन मछली की तरह तड़प रही थी.लग रहा था मैं अनजाने से घोर घने जंगल की भूल-भुलैंयाँ में फँस गई हूँ, जहाँ से मुझे कोई नहीं निकाल सकता. यह शाही विवाह का बंधन मुझे बेड़ियों की जकड़न सा महसूस हो रहा था जिसमें मैं घुटती चली जा रही थी.***
कुछ दिन यूँ ही निकल गये.एक दिन नीलमणि ने मुझे बताया कि हम लोग कुछ दिनों के लिये बाहर जायेंगे.नदी पार जाना था. बड़ा सा राजसी शिकारा था जहाँ हर तरह की सुख-सुविधा की बड़ी सुंदर व्यवस्था थी.नदी पार पहुँच कर देखा तो वहाँ भी सुंदर महलनुमा हवेली थी.हवेली पहुँच कर आराम करने के बाद दूसरे दिन साधारण सी बग्घी में आम लोगों की पोषाक में हम लोग सफ़र के लिये निकले.ज़ाहिर है सफ़र सुहाना था, राजसी तामझाम से मुक्त.
अचानक लगा हमारी मंज़िल आ गई.शायद विश्राम के लिये रुकना था.एक सुंदर मकान के अंदर गये हम.देखा तो वहाँ ६/७ साल का बच्चा खेल रहा था.नीलमणि ने पूछा, "बेटा रजत तुम्हारी माँ कहाँ है?"बच्चे ने उँगली से बंद कमरे की तरफ़ इशारा किया.
तभी दरवाज़े की साँकल खुलने की आवाज़ आई.और...सामने जो देखा तो लगा कोई सुंदर देवी प्रकट हुई हो.सोलह-श्रंगार किये मेरी माँ सामने खड़ी थीं.विश्वास ही नहीं हुआ, लगा सुखद स्वप्न देख रही हूँ. दौड़ कर माँ के गले लग कर न जाने कितनी देर तक रोती रही.
प्रिंस नीलमणि से न कुछ पूछना बाकी रहा न जानना.पलट कर देखा तो नीलमणि वहाँ न थे. तो क्या मुझे मेरी माँ से मिलाने के लिये नीलमणि ने मुझसे विवाह किया था? यह राज़ एक राज़ ही रह जाता अगर सच्चाई माँ से पता नहीं चलता.
माँ ने बताया कि नीलमणि की मदद से ही आज वे ज़िन्दा हैं नहीं तो महल में उनकी जान को ख़तरा पैदा हो गया था.उनका कुसूर केवल इतना था कि वेे नीलमणि के चाचा राजा चन्द्रभान जी से मोहब्बत कर बैठी थीं जो एक एैयाश व्यक्ति था.माँ को लगा कि राजपरिवार का सदस्य बन जाने से उनका सम्मान बढ़ जायेगा.पर ऐसा हुआ नहीं.सच्चाई पता लगते ही राजपरिवार के लोग उनकी जान के पीछे पड़ गये क्योंकि एक राजनर्तकी को राजपरिवार के किसी सदस्य से प्रेम करने का कोई अधिकार नहीं. उस की संतान राजपरिवार का सदस्य कैसे बन सकती थी.तब नीलमणि ने उनकी प्राणरक्षा की, उन को जंगल में मार कर छोड़ देने के बहाने इस घर में लाकर रखा. मुझको उन तक पहुँचाने के लिये ही नीलमणि ने मुझसे विवाह किया. हालांकि इस विवाह को मान्य करने के लिये राजमहल में कोई तैयार नहीं था.महल में शायद मुझे भी मारने के षड़यन्त्रों की भनक उन्हें लगने लगी थी इसलिये वे मुझे उनके पास ले आये.
"ओह! इतना बड़ा षड़यंत्र?और मैं इन सब बातों से अनजान? तो क्या नीलमणि मुझे कभी लेने नहीं आयेंगे? पिछले कुछ दिनों में तो मैं उनके प्रेम में पड़ चुकी थी."
"नहीं बेटी, वो तुमसे प्रेम करते हैं तब से जब तुम महल से चली गई थीं.मुझसे अक्सर तुम्हारे बारे में बात करते थे." मैं नीलमणि के बारे में सोच ही रही थी कि वहाँ कुछ लोग आये और जबरदस्ती मुझे, मेरी माँ और उनके बेटे रजत को बाँध कर एक किलेनुमा इमारत की अंधेरी कोठरी में ले गये.उन्होंने शायद हमारे शिकारे का पीछा किया होगा और हवेली से आते हुए पीछे-पीछे माँ के घर तक चले आये.
बरसों हो गये किले की कोठरी में मृत्यु को प्राप्त हुए.माँ और उनके पुत्र को मुक्ति तभी मिल गई मरने के बाद, पर मेरी आत्मा आज भी भटकती है उस किले में नीलमणि के प्रेम को पाने के लिये.न जाने कब मुझे मुक्ति मिलेगी. शायद किसी जन्म में मैं नीलमणि को पा सकूँ.उस जन्म में तो नीलमणि मुझे पाकर भी खो चुके थे क्योंकि जिस अंधेरी कोठरी में हमें रखा गया था वहाँ परिंदा भी पर नहीं मार सकता था.