संजीवनी
संजीवनी
प्रॉम्प्ट नंबर 10
रात बहुत अंधियारी और सुस्त थी.डरावनी भी इतनी कि जंगल के सियार भी भयभीत थे.कभी अचानक, कहीं कोई कुत्ता दिल को दहला देने वाली आवाज़ से विलाप कर उठता.सर्वव्यापी महामारी का वायरस मानुस-गंध, मानुस-गंध का चीत्कार मचाते हुए काल के घोड़े दौड़ाता हुआ यहाँ-वहाँ तेजी से चक्कर काट रहा था.
मानव यत्र-तत्र-सर्वत्र हार मान चुका था.महामारी से लड़ने के सारे साधन पस्त हो चुके थे. सब ओर बड़ा हृदयविदारक दृश्य था.सारी मानव जाति मानो शान्ति पाठ करते हुए स्वयं शांत हो गयी थी. मृत्यु-त्रासदी की सुनामी सब कुछ निगल गई थी.
ऐसे में गहन अंधकार में उजड़ी हुई बस्तियों के बीच टिमटिमाती लौ में, एक जीवन उदित हुआ.वही मनु का मानव था जिसे प्राणवायु की आवश्यकता नहीं थी.वह स्वयं महामानव था जिसकी बाहर आती सांसों की संजीवनी से चारों ओर, वातावरण में प्राणवायु का संचरण हो रहा था.पर्यावरण स्वच्छ हो गया.
धरती माँ जीवंत हो उठी, पृथ्वी-दिवस सार्थक हुआ.