Abhishu sharma

Drama

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Abhishu sharma

Drama

घर

घर

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                                 घर

आज बहुत दिनों बाद अपने एक स्कूल के मित्र से मिलने उसके घर गया था। मैंने दरवाज़े पर दस्तक दी तो दो छोटे बच्चों ने हँसते खिलखिलाते हुए दरवाज़ा खोला और मुझे देखकर अपने पापा को आवाज़ लगाई और वापस खेलने में व्यस्त हो गए। कुछ ही क्षणों बाद मेरे मित्र का बेटा आया और मेरा अभिनन्दन करते हुए बहुत ही विनम्रता के साथ अंदर ले गया और मेहमान कक्ष में बिठाया और दोनों खेलते हुए बच्चों को, जो शायद अपनी कोई गेंद ढूंढ रहे थे, उनके दादाजी को बुलाने का कहकर मेरे पास आकर बैठ गया। हम दोनों एक दूसरे के हालचाल पूछने और बताने लगे, तभी दोनों बच्चे भागते हुए आये और कहा " दादाजी अभी नहा रहे हैं, पांच मिनट में आ जायेंगे।" मैंने दोनों बच्चों को अपने पास बुलाया और पूछा कि " क्या वह मुझे पहचानते हैं? तो उन्होंने अपनी प्यार भरी तोतली आवाज़ में कहा " नहीं पहचानते तब मैंने उन्हें बताया की में उनके दादाजी का बचपन का दोस्त हूँ और हम भी साथ में तुम दोनों भाइयों की तरह खूब क्रिकेट खेला करते थे और खूब धमाचौकड़ी करते थे।

ऐसा सुनकर दोनों मुझे देखकर मुस्कुराने लगे और मेरे पास बैठे उनके चाचा से पूछने लगे की क्या उन्होंने उनकी बॉल देखी है। तो जवाब मिला कि थोड़ी देर पहले उनके ताऊजी के कमरे में देखी थी। तभी मेरे मित्र की बहु हमारे लिए जलपान ले आयी और मेरे पैर छुकर मुझे लड्डू और अनेक प्रकार के व्यंजन बहुत मनुहार के साथ खिलाने लगी। बच्चों ने अपना प्रश्न बहु के सामने भी दोहराया तो जवाब मिला कि "तुम्हारे बबलू चाचा के कमरे में उनकी बॉक्सिंग किट के पास हैं", सुबह झाडू लगाते हुए वहां लुढ़क कर चली गयी थी। अब मेरा मित्र भी आ गया था

 पुराने मित्र को बहुत समय बाद देखकर मेरा मैं ख़ुशी से भर आया और मैंने उसे गले लगा लिया और फिर साथ बैठकर हम पुराने किस्से याद करने लगे।

हम दोनों दोस्त कब यादों के सरोवर में गोते लगाते हुए कब इतनी गहराई में चले गए की बेटा बहु कब कमरे से चले गए हमें पता ही नहीं चला। बहुत देर पुरानी यादें ताज़ा करने और एक दूसरे की बहुत टांग खिंचाई के बाद जब मैं वापस अपने "मकान" में लौटने के लिए उठने लगा तब मेरे मित्र ने बहुत ही अपनत्व और स्नेहभाव के हक से, हाथ पकड़ कर मुझे वापस सोफे पर बैठते हुए कहा कि " अब दोपहर का खाना खाकर ही जाना।

उसने इतने प्रेम और स्नेह से कहा की में मना नहीं कर सका।

और हम फिर बातों में लग गए।

थोड़ी देर में मित्र पोता आया हाथों में अपने दादाजी की शुगर की दवाई लेकर आया और पास रखी मेज से जग उठाकर उनके लिए पानी का ग्लास भरने लगा। मैंने ऐसे ही उससे पूछ लिया की तुम बच्चों की सुबह जो गेंद नहीं मिल रही थी, क्या वह अब मिल गयी तो उसने खिलखिलाते हुए बताया कि "ताऊजी के कमरे में उनके कंप्यूटर वाली टेबल के नीचे मिल गयी थी और ऐसा कहकर वह जाने को हुआ की मेरे मित्र ने उस से कहा कि " बेटा ज़रा मेरे मेरे कमरे से मेरी ऐनक देते जाना ", उसने हाँ में सर हिलाकर हाथ से एक चुटकी बजाई और भागता हुआ चश्मा ले आया, ज्यों ही वह कक्ष में प्रविष्ट होने के लिए मुड़ा, त्यों ही उसका संतुलन बिगड़ गया , हम दोनों उससे संभालने उठने ही लगे की अगले ही पल वह संभाल गया और हँसते हुए चश्मा देकर वापस जाने लगा तो हम दोनों उसे समझाने लगे कि "बेटा ध्यान से चलना चाहिए, इतनी भागमभाग अच्छी नहीं, अभी चोट लग सकती थी............." .इस पर वह हँसते हुए बोला कि "अरे दोनों दादूज टेक अ चिल पिल" और वापस खेलने के लिए भाग गया।

लगभग एक घंटे बाद हम सभी एक साथ खाना खाने बैठे और सभी ने बहुत ही प्रेम से मिलजुल कर खाना खाया 

खाने से निबटकर मैंने अपने दोस्त से कहा अब चलता हूँ तो उसने मुझे गले लगाया और बाहर तक छोड़ने आया।

जब में झुक कर अपने मोज़े और जूते पहन रहा था तो मेरे मित्र ने मुझसे कहा की जो बात तुम पिछले आधे घंटे से कहना चाह रहे हो, जो बात तुम्हारे गले तक आकर अटक गयी है उसे कह भी दो। मैंने जूते के फीते बांधते हुए नज़रें उठाकर उसे देखा और मुस्कुराकर पुछा "तुम्हें कैसे पता चला"?. तो उसने कहा कि तुम्हें बचपन से जानता हूँ तुम खुद को इतना नहीं जानते जितना में तुम्हें पहचानता हूँ।   

मैंने उसके इस कथन पर हामी भरी और एक पुराना किस्सा कहने लगा कि " जब मास्टरजी ने गृहकार्य न करने के कारण हम दोनों को अगले दिन अपने पिता के साथ विद्यालय आने को कहा था" मेरे मित्र ने मुझे बीच में टोकते हुए कहा कि " बात टालने की पुरानी आदत तुम्हारी गयी नहीं अब तक " और इस बार उसने जोर देकर पूछा कि "बताओ बात क्या है, बिना बताये तुम्हें जाने नहीं दूंगा मैंने हार मानते हुए कहा कि बात इतनी गंभीर नहीं है बस ये की सुबह से अब तक घर में तुम लोगों का आपस में प्यार, एक दूसरे के लिए ध्यान और फ़िक्र, सभी बच्चों का एक साथ खेलना, सभी का मिलजुल कर रहना , यह सब देख कर मेरा मन ख़ुशी से अभिभूत हो गया है।

पर इस फुलवारी के बीच जब मैंने यह वाक्य सुने कि " मेरा कमरा, चाचा का बॉक्सिंग किट, ताऊजी का कंप्यूटर, आदि तो लगा की इस हस्ती खेलती बगिया को मेरे परिवार की तरह बंटवारे रूपी दीमक की नज़र छू भी ना पाए कभी इसलिए जरुरी है की इसके जन्म लेने से पहले ही इसे काट दिए जाए। नहीं तो यह कब इतना विशाल रूप धारण कर लेगी कि इस ताज़गी और खुशबू से भरपूर परिवार रुपी घने पेड़ो की फुलवारी को कब खोखला कर देंगी पता भी नहीं चलेगा और वक़्त रहते इसे रोका नहीं गया तो आगे जाकर इसे चाहे कितना भी रोकना चाहो, बस बेबसता, मजबूरी और अकेलेपन के अलावा और कुछ हाथ नहीं लगता

इतना कहकर मैंने अपने मित्र के चेहरे पर एक नज़र डाली तो उसे एक गहन सोच में पाया , मैंने अपने बात जारी रखते हुए कहा कि मुझे पता है  इस घर के सभी व्यक्तियों के मन में लेश मात्र भी स्वार्थ और द्वेष की भावना नहीं है और यह बस आम बोलचाल की भाषा में मासूमियत में बोले गए शब्द हैं . पर घर में लोग रहते हैं तो उनकी सोच भी अलग अलग होती हैं, और भिन्न सोचो का जब मिलन होता है तो छोटा मोटा टकराव होना प्राकृतिक है. इसे ही "विचारों का झगड़ा" कहते हैं। यह छोटे छोटे झगड़े एक बहुत ही नाज़ुक डोर से बंधे होते हैं, और यह हमारे ऊपर होता है कि कैसे हम इनसे डील करते हैं, अगर बातचीत करके समझदारी से करेंगे तो यही विचारो का अमिलन, हमारे बीच के प्रेम की डोर को और अधिक मजबूती प्रदान करता है और इतिहास गवाह है की बड़ी से बड़ी लड़ाई भी बातचीत से सुलझाई जा सकती है, पर कभी कभी ऐसे हालात हो जाते हैं की बातचीत नहीं होती कुछ वक़्त tk और ऐसे नाज़ुक वक़्त में नकारात्मक सोच हमें इस कदर जकड़ लेती है की हमारी सोच पर हावी ो जाती है और पुरानी बातें कुछ इस तरह यादों में घुलती हैं की जो कभी सामान्य रूप से कही गयी बातें थी और जिनमें स्वार्थ या द्वेष की भावना बिलकुल नहीं थी, वह नकारात्मकता की चट्टान के आगे घुटने टेक देती है और हमारे मन में उस इंसान के लिए जिसने कभी हमारा बुरा नहीं चाहा और हमेशा अच्छा ही किया उसके लिए नफरत और आक्रोश की भावना उत्पन्न कर देती है। यहाँ जब हम ' यह तेरा यह मेरा यह इसका यह उसका " हमारी आम भाषा में इस्तेमाल करते हैं तो संभावना है की आगे जाकर हमारी सोच को बहुत प्रभावित कर यह बहुत भयानक नतीजों का कारण साबित हो सकती हैं।

यह कहकर में कुछ पल रुका और मुस्कुराकर कहा कि " तुझे याद है बचपन में घर के कमरों को अपन "बड़ा कमरा, छोटा कमरा, पढ़ाई वाला कमरा, पूजा घर, बैठक, बाहर का कमरा, अंदर वाला कमरा, इत्यादि नामों से सम्बोधित करते थे।"

तभी अंदर से मेरे मित्र का पोता भागता हुआ आया और मुझे एक डिब्बा पकड़ाते हुए कहा कि "इसमें आपके लिए लड्डू हैं, मम्मी ने दिए हैं ", पीछे से मित्र की मंझली बहु मुस्कुराती हुई आयी और एक प्यारी चपत बच्चे के गाल पर लगाते हुए बोली कि "पता नहीं किस बात की जल्दी रहती है इसे हमेशा" और एक और मिठाई का डब्बा मुझे देते हुए कहा कि "चाचाजी इसमें घर के नीबू हैं, पापा ने बताया की आपको शिकंजी बहुत पसंद है इसलिए" और मेरे पैर छूकर अंदर चली गयी।

अब मैं मेरे मित्र से विदा लेने को हुआ तो उसने मुझे गले लगाते हुए कहा कि " धन्यवाद मित्र सलाह के लिए, में जरूर इस बात पर विचार करूंगा.

ऐसा कहते हुए मैंने उसके चेहरे पर आयी चिंता की लकीरों को पढ़ते हुए कहा कि " अरे दादू टेक अ चिल पिल।" 

और हम दोनों खिलखिलाकर हंस पड़े।

रास्ते में टैक्सी से वापस जाते हुए अचानक ही मुझे इस विचार ने जकड़ लिया की काश मुझे भी इस तरह की सलाह मिली होती तो हमारा भी किसी वक़्त रहा हँसता खेलता परिवार आज साथ होता। पर किसी ने सही कहा है कि गलती करके ही इंसान सीखता है और शायद परवरदिगार ने मुझे चुना था इस प्यारे से परिवार को प्रेम की डोर को और अधिक मजबूत करने के लिए और एक मुस्कान ने मेरे चेहरे पर आयी दुःख की लकीरों को ढक दिया

   



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