गौतम'स केफे
गौतम'स केफे
अजब इतेफ़ाक़ है सच ! वही भूरा- लाल रंग का धारियों वाला गरमा गरम चाय का कुल्हड़, ठीक उसी जगह भीड़ में, उस अकेले कोने पर टिके, दो लकड़ी के स्टूल के बीचों बीच, उस गोल काँच की मेज़ पर पडा इंतज़ार में नज़रें बिछाए धुए के गश लगा रहा है, की कब सामने बैठे उन दो मोहब्बत के मारों की नज़र एक दूज़े से हट के उस ग़रीब पर पड़े।
वही हाल उन पुराने मुरझाये धूल सने पौधों का भी है जो सजावट के लिए उसके पास रखे रहते है हर दम। पीछे की ओर की दीवार का वॉलपेपर बस नया लगता है। ये नहीं था पहले यहाँ या था क्या?
सब कुछ वही है ठीक वैसा ही जैसा उस शाम था, जब मरून रंग की फूलों की प्रिंट वाली उस शर्ट में तुम मुस्कुराते हुए दबी दबी नज़रों से देख रहे थे मुझे। कितनी झिझक थी, कितनी शरम थी तुम्हारी आँखों में, जैसे आज इनकी आँखों में है। इन दोनो की भी पहली डेट है शायद, जैसे उस शाम हमारी थी। सच! कुछ नहीं बदला यहाँ सब वैसा ही है।
क्या कुछ साल बाद इन दोनो में से भी कोई एक ऐसे ही मुझ जैसे अकेले बैठे इस Gautam's Café में अपने माज़ी को याद कर फिर किसी की पहली डेट का मंज़र देखेगा?
कौन कहता है वक़्त है गुजर जाता है? कुछ नहीं गुज़रता, कुछ नहीं बीतता, कुछ लम्हे वक़्त की ही गिरफ़्त में क़ैद रह कर आज़ादी की राह देखते हैं बस.....
Gautam's Café नाम में ही शांति है बस।