Dipti Agarwal

Others

2.5  

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वो घर

वो घर

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नया आशियाना बसाने  की कशिश में मेरे भटकते कदम एक पुराने घर की देहलीज पे आ रुके। हलके पीले  रंग की एक मंज़िला ईमारत थी, काफी वक़्त से बंद पड़ी थी। घर  की देहलीज़ पे सूखे ज़र्द पत्तों का जमवारा पायदान सा बिछा खैर मक़दम में था मेरे। डोरबेल  को मकड़ियों ने अपनी गिरफत में ले लिया था । उसपर अनगिनत जाले फैला रखे थे , हक़ जमा रखा था। 

चुर्र चुर्र आवाज़ करता वह लकड़ी का दरवाज़ा जिसने बरसो से इंसानी हाथों का स्पर्श न देखा था, हलकी सी छुवन भर से मेरे, तुरंत खुल गया। भीतर गया तो मिटटी , परिंदो के घोंसले , चूहों की दौड़ इन सबके अलावा, एक अजब सी मायूसी महसूस की मैंने। जाने कौन रहता था यहाँ पहले ? क्यों हवा में अजब सी नमी है ?

आगे बढ़कर बाएं हाथ की ओर के कमरे में गया तो बिस्तर पे फैली हरे रंग की चादर बड़ी बुरी तरह सिलवटों से भड़ी पड़ी थी। शायद आखिरी बार किसी  ने इसे हाथों से जकड़ा हो ।

सामने टंगे आईने पे कुमकुम की बिंदी के फैले हुए निशान थे ,और कुछ सिंगार का  सामान टूटा बिखरा पड़ा था। ज़मीन  पर कुछ टूटी कांच की चूड़ियों के कतरे थे और सामने टंगे परदे पे सिन्दूर के दाग फैले थे , मानो किसी ने सिन्दूर भरे हाथों से परदे को कस के पकड़ा हो । उन दागों पे अपनी उँगलियाँ फेरी ही थी मैंने की बगल में खिड़की के धूल सने शीशे में कुछ बूंदों के निशान जमे मिले । बरसात की बौछारें नहीं  लग रही थी पर  यह , अश्क के कतरे मालूम होते थे ।और नीचे की तरफ किसी के सुर्ख लबों की लिपस्टिक की छाप थी । 

कमरे से निकल के मैंने रसोई की ओर कूच  किया तो वहां का मंज़र काफी बुरा था। गैस पे रखी चाय के गिरे उलटे बर्तन पे चींटियों ने घर बना रखा था । ज़मीन पे टूटे कप के टुकड़े , और कुछ आगे पैर के अंगूठे के भूरे लाल निशान थे । घर के ड्राइंग रूम में एक खिड़की के पास ,तुलसी का मुरझाया पौधा था और ठीक उसके पास, एक पत्थर के नीच कुछ कागज़ फड़फड़ा रहे थे , हाथ में ले उन कागज़ों पे नज़र दौड़ाई तो सारे अक्षर  मिट चुके थे नीले रंग की स्याही से लिखे थे , शायद बरसात के पानी से सब धुल गया । पीछे की तरफ पर एक नाम हल्का पढ़ा जा रहा था , उर्दू के अक्षरों में "मुस्कान" लिखा था .कागज़ के ठीक पास एक चाभियों का गुच्छा भी रखा था जो जंग से तर था ।

अभी घर के हिस्सों को महसूस कर ही रहा था , तो मेरे मकान के एजेंट ने आवाज़ दी मुझे । पूछने पे मेरे बताया उसने , उस घर का किस्सा जो लगभग इन चीज़ों को देख कर मैं अन्दाज़ा लगा चुका था । दो इश्क़ज़ादों के प्यार का आशियाँ था यह जिसका सबूत मुझे पूरे मकान में दिख चुका  था । 

जाने एक दिन क्या हुआ , कि वो रोती बिलखती , किचन से भागी , हड़बड़ाहट में कप टूट के पैर  में चुभा,कमरे में जा चादर से लग के काफी अश्क बहाये उसने उसकी टूटी चूड़ियों के टुकड़े मिले थे जहाँ। फिर जाने क्या लिख कागज़ पे आखिरी बार इस घर को अलविदा कर वो चली गयी जाने क्या हुआ होगा ? वो ढूंढ़ता हुआ उसे आया होगा क्या ? पर आया होता तो कागज़ वहीँ नहीं होता ।

जाने वो फिर कभी वापस आयी होगी क्या ? वही मुस्कान थी क्या? जाने इस घर ने क्या देखा उस दिन ? जाने कितनी कहानियां दफ़न कर रही है इसने अपने अंदर? जो किसी मुसाफिर को सुनाने के लिए मुन्तज़िर हो कब से यह। काश! पत्थर बोल पाते, मैं  बेसब्र हूँ इस कहानी का सच तलाशने में।  


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