Rajeev kumar Srivastava

Abstract Drama

4.5  

Rajeev kumar Srivastava

Abstract Drama

गांव – शहर

गांव – शहर

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एक सुबह रघु घर से निकला। कुछ दूर ही चला होगा कि उसे कुछ चमकती हुई सी चीज दिखाई दी। वो उत्सुकता वस अपनी जिज्ञासा को शांत करने के लिए उस ओर बढ़ने लगा। वो चलता रहा, चलता रहा पर, वो जो चमक दिख रहा था वो अभी भी उसकी पहुंच से दूर था। वो चलता रहा अब वो लगभग अपने गांव की सरहद पर पहुंचने वाला था, लेकिन अभी भी वो अपनी मंजिल से दूर था।

लेकिन आज उसने भी ठान रखा था कि मंजिल पर पहुंच कर ही रहेगा।

अब लगभग दोपहर हो आया था। उस अपनी मां कि याद सताने लगी। वो थक भी बहुत चुका था।

उसे पास में ही एक तालाब नजर आया। वो वहीं पानी पीकर थोड़ा आराम करने के लिए एक पेड़ के नीचे लेट गया।

थोड़ी ही देर में उसे नींद आ गई। वो सपने में देखता है कि वो घर पे है और बहुत ही बढ़िया खाना खा रहा है। जब उसकी नींद खुली तो लगभग शाम हो चुकी थी और वो चमकीली वस्तु अब उसे नजर नहीं आ रहा थी। वो थोड़ा मयुश हुआ और भरी में से अपने घर की ओर चल पड़ा।

जब घर पहुंचा तो उसकी मां राह देख रही थी। कहां गए थे बेटा - उसकी मां ने पूछा। रघु ने कोई जवाब नहीं दिया। बस बोला मां बहुत भूख लग रही है, इतना कहना था कि मां ने कहा हाथ पैर धो लो खाना लगाती हूं।

रघु खाना खाते हुए मां को सारे दिन की बात बतलाई।

मां ने कहा, हां मैंने भी गांववालो से सुना है कि कोई फैक्ट्री लगने वाली है। उसी की चिमनी से वो लाइट आती है। शायद उचाई पे उन्होंने कोई शीशा लगा रखा होगा उसी की रोशनी देख तुम उधर चल दिए।

उत्सुकता वस रघु ने पूछा, तो मां अब हमारा गांव भी शहर जैसा हो जाएगा।

मां ने कहा, हां बेटा, अब हमारा गाओं भी शहर जैसा हो जाएगा। जहां किसी को किसी से कोई मतलब नहीं होता, जहां पानी भी खरीद कर पीना पड़ता है, जहां लोग जानवरों के जैसे केवल तमाशा देखते हैं, जहां हवा भी मुफ्त की नहीं होती वैसा ही हमारा गांव भी हो जाएगा।

रघु का एक और सवाल हाजिर था, तो मां लोग शहर की तरफ क्यों भाग रहे हैं।

मां का चिंता भरा जवाब आया, बेटा हम जितनी भी तरक्की करते हैं, उतनी ही मुश्किलों/तकलीफों को भी दावत देते हैं। पहले हमलोग ऐसे नहीं थे। पर जितनी सहूलियत मिलती गई हम इतने आलसी होते चले गए। साथ ही हम अपने पूर्वजों के दिए ज्ञान को भी भूलते चले गए। हमे ज्यादा एडवांस होने की नहीं ज्यादा स्मार्ट होने कि जरूरत थी। लेकिन हम बस एडवांस होते गए स्मार्टनेस तो जैसे खो ही दिए हैं। हम विकास करने में इतने मसगुल हो गए की प्रकृति को भी बदलने की सोचने लगे। मगर ये भूल गए की प्रकृति किसी कि जागीर नहीं जो बदल दी जाए। जब प्रकृति अपना रूप दिखाई है तो फिर किसी कि नहीं सुनती है इसका सीधा सा उदाहरण भूकंप और तूफान है। हम कितने भी सतर्क क्यों ना रहें नुकसान हमें ही होता है, किन्तु मनुष्य की प्रवृति है हम नहीं सुधरेंगे तो क्या किया का सकता है।

अब बहुत देर हो गई, रघु खाना खा चुका था। उसे मां की बात तो समझ आ रही थी लेकिन उसे ये समझ नहीं आ रहा था कि जब इतनी दिक्कतें हैं, फिर भी हम गांव को शहरों में बदलने की क्यों सोच रहे है।


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