गांव में मिले गांधी जी
गांव में मिले गांधी जी
जब मेरी शाखा प्रबंधक के रूप में नारायणगंज (जिला -मंडला ) में पदस्थापना हुई तो अचानक मुझे याद आया कि बहुत पहले मैने कहीं किसी किताब में पढ़ा था कि वर्ष १९३३-१९३४ में महात्मा गाँधी नारायणगंज की हरिजन बस्ती में पकुआ के घर आये थे, वहां से उन्होंने छुआछूत की बीमारी दूर करने का प्रयोग किया था, ये बात नारायणगंज पहुचने के बाद लगातार याद आती रही और लगता रहा की वह स्थान देखने मिल जाता जहाँ पर महात्मा गाँधी ने पकुआ के हाथ से पानी पिया था और हरिजन बस्ती में छुआछूत पर भाषण दिया था।
जबलपुर के स्वतंत्रता सेनानी ब्यौहार राजेंद्र सिंह जी की नारायणगंज में मालगुजारी थी, वहां बियाबान जंगल के बीच में उनकी पुराने ज़माने की कोठी थी । जब महात्मा गांधी १९३३-३४ में जबलपुर आये थे तो ब्यौहार राजेंद्र सिंह जी के अनुरोध पर महात्मा गांधी नारायणगंज मालगुजारी गाँव एवं जंगल घूमने उनके साथ ६ डिसेम्बर १९३३ को आये थे। तभी नारायणगंज में आराम करने के बाद हरिजन बस्ती में पकुआ के घर जाकर स्थानीय सवर्णों को पकुआ के हाथों से पानी पिला कर छुआछुत की प्रथा को समाप्त करने का प्रयोग किया था ।
हमने स्टेट बैंक नारायणगंज में २००५ में शाखा प्रबंधक के रूप में कार्यभार लिया तो गांधी जी याद आये और याद आया उनका नारायणगंज प्रवास....... तब से हम व्याकुल रहते कि कहाँ है वह जगह जहाँ गांधी जी बैठे थे ? परन्तु नई पीढी के लोग यह मानने को राजी ही नहीं थे कि महात्मा गांधी जैसी हस्ती नारायणगंज आये थे । जिससे भी हम पूछ- ताछ करते सभी को ये बातें झूठी लगतीं, नयी पीढी के लोग मजाक बनाते कि बैंक में इस बार ऐसा मेनेजर आया है जो नारायणगंज में महात्मा गांधी और कोई पकुआ को खोज रहा है । बस्ती में तरह -तरह के लोगों से पूछते- पूछते हम हैरान हो गए थे, किसी को पता नहीं था न कोई बताने को राजी था ।
एक दिन शाखा में बहुत भीड़ थी, मैंन हॉल खाचा - खच भरा हुआ था, एक फटेहाल ९५ साल की बुढ़िया जिसकी कमर पूरी तरह से झुकी हुई थी, मजबूर होकर मेरे केबिन की तरफ निरीह नजरों से देख रही थी, नजरें मिलते ही हमने तुरंत उसे केबिन में बुलाकर बैठाया, पानी पिलाया चाय पिलाई वह गद -गद से हो गई उसकी आँखों में गजब तरह की खुशी और संतोष के भाव दिखे, उसकी ४००/ की पेंशन भी वहीँ दे दी गई, फिर अचानक गांधी जी और पकुआ याद आ गए, हमने तुरंत उस बुढ़िया से पकुआ के नाम का जिक्र किया तो वह घबरा सी गई उसके चेहरे में विस्मय और आश्चर्य की अजीब छाया देखने को मिली, जब हमने पूछा कि इस गाँव में कोई पकुआ नाम का आदमी को जानती हो ?तो हमारे इस प्रश्न से वह अचकचा सी गई और सहम सी गई कि क्या पकुआ के नाम पर बैंक में कोई पुराना क़र्ज़ तो नहीं निकल आया है, उसने थोड़ी अनभिज्ञता दिखाई परन्तु वह अपने चेहरे के भावों को छुपा नहीं पाई, धोखे से उसने कह ही दिया कि वे तो सीधे - साधे आदमी थे उनके नाम पर क़र्ज़ तो हो ही नहीं सकता ! में उछल पढ़ा था ऐसा लगा जैसे अपनी खोज के लक्ष्य तक पहुच गया, मैने तुरंत नारायणगंज का फेमस रसगुल्ला बुलवा लिया था और उसे खिलाकर फिर मीठी मीठी गर्मागर्म चाय पिलायी थी, उसके चेहरे की खुशी देखकर मुझे लगा कि खुशी किसे कहते हैं।
गरीब हरिजन परिवार की ९५ साल की बुढ़िया के संकोच और संतोष ने हमें घायल कर दिया था, हमने कहा कि पकुआ के नाम पर क़र्ज़ तो हो ही नहीं सकता, हम सिर्फ यह जानना चाहते है कि इस गांव में कोई पकुआ नाम का आदमी रहता था जिसके घर में ७५ साल पहले महात्मा गांधी जी आये थे, हम यह सुनकर आवक रह गए जब उसने बताया कि पकुआ उसके ससुर (फादर इन ला )होते है, उसने बताया कि उस ज़माने में जब पकुआ की ढपली बजती थी तो हर आदमी के रोंगटे खड़े हो जाते थे,पकुआ हरिजन जरूर था पर उसे गाँव के सभी लोग प्यार करते थे,गाँव में उसकी इज्जत होती थी बस ये बात जरूर थी कि छुआ-छुत का इतना ज्यादा प्रचलन था कि जहाँ से पकुआ ढपली बजाते हुए निकल जाता था वहां का रास्ता बाद में पानी से धोया जाता था, उस ज़माने में हरिजनों को गाँव के कुए से पानी भरने की इजाजत नहीं होती थी, जब मैने उस से पूछा कि ७५ साल पहले आपके घर कोई गांधी जी आये थे क्या ? तब उसने सर ढंकते हुए एवं बाल खुजाते हुए याद किया और कहा - हाँ कोई महात्माजी तो जरूर आये थे पर वो महात्मा गांधी थे कि नहीं ये नहीं मालूम !
मैने पूछा कि क्या पहिन रखा था उन्होंने उस समय ? तब उसने बताया कि हाथ में लाठी लिए और सफेद धोती पहिने थे गोल गोल चश्मा लगाये थे, उस समय उस महात्मा ने गाँव में गजब तमाशा किया था कि पकुआ के हाथ से सभी सवर्णों को पानी पिलवा दिया था, सबने बिना मन के पानी पिया था और कुछ को तो उल्टी भी हो गई थी बाद में हम ही ने सफाई की थी, में दंग रह गया था मुझे ऐसा लगा मैने बहुत बड़ी जंग जीत ली है, साल भर से गली- गली गाँव भर में सभी लोगों से पूछता था तो सब मेरा मजाक उड़ाया करते थे, आज मैने उस किताब में लिखी बातों को सही होते पाया, मैने उस दादी से सभी तरह की जानकारी ले डाली उसने बताया था कि ७५ साल से हमारा परिवार भुखमरी का जीवन जी रहा है हम सताए हुए लोग है। आप को ये क्या हो गया जो हमारी इतनी आव-भगत कर रहे है आज तक किसी ने भी हमारी इतनी परवाह नहीं की। न ही किसी ने हमे मदद की। कल रात की रोटी का जुगाड़ हो पाता है या नहीं ऐसी असंभव भरी जिन्दगी जीने के हम आदी हो गए है, लड़के बच्चे पैसे के आभाव में पढ़ नहीं पाए, थोड़ी बहुत मजदूरी कर के गुजारा चलता रहा है।
इस तरह नारायणगंज जैसे पिछड़े और छोटे गांव में गांधी जी को ढूंढने का निर्णय। हमारे जीवन का महत्वपूर्ण निर्णय बन गया।