गाँव - 3.6

गाँव - 3.6

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यूलेटाइड (क्रिसमस के बाद का बारह दिन का समय जो पवित्र समझा जाता है – अनु।) के दौरान बसोव का इवानूश्का कुज़्मा के यहाँ कई बार आया। यह पुराने ज़माने का आदमी था, लम्बी उम्र के कारण पगला चुका था और कभी भालू जैसी ताकत का धनी, चौड़ी हड्डी वाला, पीठ धनुष की तरह झुकी हुई, कभी भी अपना भूरा झबरा सिर ऊपर न उठाता, पंजों को अन्दर की ओर मोड़कर चलता। सन् 1902 के हैजे में इवानूश्का का बड़ा भरा-पूरा परिवार ख़त्म हो गया। सिर्फ एक बेटा बचा, फ़ौजी, जो अब दुर्नोव्का के निकट ही रेल में पहरेदार का काम करता था। ज़िन्दगी बेटे के साथ भी गुज़ारी जा सकती थी, मगर इवानूश्का ने भटकना भीख माँगना ही बेहतर समझा। पंजे टेढ़े करके वह आँगन में आया, दाहिने हाथ में छड़ी और टोपी, तथा बाएँ हाथ में झोला पकड़े, खुले सिर से, जिस पर जमी सफ़ेद बर्फ़ चमक रही थी, और न जाने क्यों कुत्ते उस पर नहीं भौंकते। वह घर में घुसता, बुदबुदाता, “ख़ुदा इस घर को और घर के मालिक को सलामत रखे,” और दीवार के पास फ़र्श पर बैठ जाता। कुज़्मा किताब पढ़ना रोक कर चश्मे के ऊपर से अचरज और सकुचाहट से उसकी ओर यूँ देखता, मानो स्तेपी के किसी जानवर को देख रहा हो, जिसकी कमरे में उपस्थिति बड़ी आश्चर्यजनक प्रतीत होती। चुपचाप पलकें झुकाए, प्यारी-सी सहज मुस्कुराहट से, हौले-हौले चप्पलें चटकाती दुल्हन आती, इवानूश्का को उबले हुए आलुओं की कटोरी और डबल रोटी का बड़ा-सा टुकड़ा देती, जिस पर ख़ूब नमक छिड़का होता, और देहलीज़ के पास रुक जाती। वह फूस की चप्पलें पहने होती, कन्धे फूले-फूले, ख़ूबसूरत निस्तेज चेहरा इतना किसानों जैसा, सीधा-सादा और पुरातन-सा था, कि ऐसा लगता, मानो वह इवानूश्का को दद्दू के अलावा किसी और नाम से बुला ही नहीं सकती थी। वह मुस्कुराती हुई – वह सिर्फ उस अकेले के सामने ही नुस्कुराती थी – हौले से कहती :

“खाओ, दद्दू खाओ !”

और वह सिर उठाए बगैर, उसके स्नेह को सिर्फ आवाज़ से महसूस करते हुए जवाब में धीरे से कराहता, कभी-कभी बुदबुदाता, “ख़ुदा तेरी हिफ़ाज़त करे, छोरी,” फ़ूहड़पन से बड़ा-सा सलीब का निशान बनाता, मानो पंजे से बना रहा हो, और खाने पर टूट पड़ता। उसके भूरे, अमानुष की तरह घने और कड़े बालों में बर्फ पिघलती रहती। फूस के जूतों से फ़र्श पर पानी की धार लग जाती, जीर्ण, भूरे चेकमैन से (चेकमैन – बिना कॉलर का बेल्ट वाला कोट – अनु।), जो गन्दी, पटसन की बनी कमीज़ पर डाला गया था, धुआँभरी झोंपड़ी की गन्ध आ रही थी। अनेका साल काम करने से विद्रूप हो चुके हाथों की टेढ़ी-मेढ़ी, सीधी उँगलियाँ मुश्किल से आलू पकड़ पा रही थीं।

“एक ही चेकमैन में ठण्ड लगती होगी, है न ?” कुज़्मा ने ज़ोर से पूछा।

“का ?” कमज़ोर-सी कराहट से अपना बालों ढँका कान उसकी ओर करते हुए इवानूश्का ने पूछा। 

“ठण्ड लग रही है न तुझे ?”

इवानूश्का सोचने लगा।

“कहाँ की ठण्ड!” उसने रुक-रुककर जवाब दिया। "कोई ठण्ड-वण्ड नहीं है। पहले तो ऐसी ठण्ड पड़ती थी !”

“सिर तो उठा, बाल तो ठीक कर।”

इवानूश्का ने हौले से सिर हिला दिया।

“अब तो, भैया, नहीं उठता, धरती खींच रही है अपनी ओर”

और क्षीण मुस्कान से उसने अपना डरावना, बालों से ढँका चेहरा, अपनी छोटी-छोटी सिकुड़ी हुई आँखें ऊपर उठाने की कोशिश की।

खाने के बाद उसने गहरी साँस ली, सलीब का निशान बनाया, घुटनों से डबल रोटी के टुकड़े इकट्ठा किए और उन्हें भी खा लिया; फिर अपने आस-पास टटोलने लगा। झोला, टोपी और छड़ी ढूँढ़ी। उन्हें पाकर इत्मीनान से, फ़ुर्सत से बातें करने लगा। वह पूरे दिन चुप बैठा रह सकता था, मगर कुज़्मा और दुल्हन उससे सवाल पूछते ही रहे, और वह, जैसे नींद में हो, कहीं दूर से जवाब देता रहा। वह अपनी असम्बद्ध, पुरातन भाषा में बतलाता रहा कि ज़ार, कहते हैं, पूरा सोने का बना हुआ है, कि ज़ार मछली नहीं खा सकता। “खूब ज़्यादा नमकीन होती है,” कि सन्त ईल्या ने एक बार आसमान में छेद कर दिया था और वह ज़मीन पर गिर पड़ा : ख़ूब भारी था, कि इवान बाप्टिस्ट जन्म से ही झबरे बालों वाला, भेड़ जैसा था, और सलीब का निशान बनाते हुए उसने लोहे की बैसाखी किसान के सिर पर दे मारी, जिससे वह ‘जाग जाए’; कि हर घोड़ा साल में एक बार ‘फ्लोरा’ और ‘लाव्रा’ दिवस पर आदमी को मारने की कोशिश करता है; उसने बताया कि पुराने ज़माने में जई ऐसी होती थी कि उसमें से साँप नहीं गुज़र सकता था; कि पहले एक दिन में दो दिस्यातिना की कटाई कर ली जाती थी; कि उसके पास बधिया किया हुआ घोड़ा था, जिसे ‘जंजीर’ से बाँधकर रखा जाता था – इतना खूँखार और ताकतवर था; कि एक दिन, साठ साल पहले, उसके यहाँ से, इवानूश्का के यहाँ से, ऐसा धनुष चोरी हो गया था, जिसके लिए वह दो रूबल से भी नहीं मानता।।।उसे पूरा यकीन था, कि उसका परिवार हैजे से नहीं, बल्कि इसलिए मर गया, क्योंकि भयानक आग के हादसे के बाद नई झोंपड़ी में रहने चला गया था, घर के मुर्गे को वहाँ रात बिताने का मौका दिए बगैर वहाँ सो गया, और वह बेटे के साथ संयोगवश ही बच गया : खलिहान में सो गया था।।।शाम होते-होते इवानूश्का उठ गया और जाने लगा, मौसम की ओर ध्यान दिए बगैर, सुबह तक रुक जाने की मिन्नतों को सुने बगैर।।।और वह बुरी तरह सर्दी खा गया, मरने-मरने को हो गया और त्यौहार के बारहवें दिन बेटे की चौकी पर मर गया। बेटा उसे वहीं रह जाने के लिए मनाता था। इवानूश्का मानता न था : कहता था कि वहीं रुक जाने पर मर जाएगा और उसने पक्का इरादा कर लिया था कि अपने आपको मौत के हवाले नहीं करेगा। पूरे दिन वह बेसुध पड़ा रहता, मगर सरसाम की हालत में भी बहू से यही कहता रहा कि अगर मौत दरवाज़ा खटखटाए तो कहना कि वह घर पर नहीं है। रात में एक बार उसे होश आया, उसने पूरी ताकत बटोरी, भट्ठी से नीचे उतरा और घुटनों के बल लैम्प की रोशनी से प्रकाशित देवचित्र के सामने झुककर खड़ा हो गया। वह भारी-भारी साँस ले रहा था, बड़ी देर तक बुदबुदाता रहा, दुहराता रहा : “मेरे मालिक, मेरे गुनाह माफ़ कर।।।” फिर सोच में खो गया, बड़ी देर तक ख़ामोश रहा, फ़र्श पर सिर झुकाए। और अचानक उठ गया और दृढ़ता से बोला, “नहीं, नहीं जाऊँगा।” मगर उसने सुबह देखा कि बहू पेस्ट्रियाँ बना रही है, भट्ठी दहक रही है।।।

“ओय, क्या मुझे दफ़नाने वाले हो ?” उसने थरथराती आवाज़ में पूछा।

बहू ख़ामोश रही। उसने फ़िर से ताकत बटोरी, फिर से भट्ठी से नीचे उतरा, ड्योढ़ी में आया : हाँ, सही है, दीवार के पास भारी-भरकम बैंगनी ताबूत रखा था, आठ कोनों वाली सफ़ेद सलीबें जड़ा हुआ ! तब उसे याद आया कि ऐसा ही तीस साल पहले पड़ोसी बूढ़े लुक्यान के साथ हुआ था : लुक्यान बीमार पड़ा, उसके लिए ताबूत ख़रीदा गया। बढ़िया महँगा ताबूत। शहर से आटा, वोद्का, नमकीन मछली लाई गई, मगर लुक्यान तो भला-चंगा हो गया। अब ताबूत को कहाँ रखा जाए ? ख़र्च को कैसे पूरा किया जाए ? लुक्यान को पाँच सालों तक इसके लिए कोसते रहे, ताने दे-देकर उसे ज़िन्दगी से उठा दिया। इवानूश्का, यह सब याद करके, सिर झुकाए झोंपड़ी में वापस चला आया। और रात को, पीठ के बल लेटे हुए, बेसुध काँपती हुई कातर आवाज़ में वह गाने लगा, मगर धीमे-धीमे और अचानक उसके घुटने कँपकँपाए उसने हिचकी ली, साँस लेते हुए सीने को ऊपर उठाया, उसके खुले होठों पर झाग फ़ैल गई, वह शान्त हो गया।।।

इवानूश्का के कारण करीब-करीब महीने भर कुज़्मा बिस्तर पर पड़ा रहा। सुबह त्यौहार के समारोह पर लोग कह रहे थे कि उड़ता हुआ पंछी भी ठण्ड के कारण जम जाएगा। और कुज़्मा के पास तो सर्दियों वाले गर्म जूते भी नहीं थे। मगर फ़िर भी वह गया, मृतक के दर्शन करने। पटसन के साफ़ कुर्ते में लिपटे उसके चौड़े सीने पर रखे हुए, अस्सी साल की ज़िन्दगी के आरंभिक सालों में कड़ी मेहनत करने के कारण कड़े हो चुके, गट्ठे पड़ गए बदसूरत हाथ इतने भद्दे और डरावने थे कि कुज़्मा ने फ़ौरन मुँह फ़ेर लिया।

इवानूश्का के मृत, जानवरों जैसे चेहरे और उसके बालों को वह छूने की हिम्मत न कर सका। जल्दी से सफ़ेद कपड़ा गिरा दिया। गर्माने के इरादे से उसने वोद्का पी और गरम दहकती भट्ठी के सामने काफ़ी देर तक बैठा रहा। चौकी में गर्माहट थी, त्यौहार जैसी सफ़ाई थी, चौड़े बैंगनी ताबूत के सिरहाने, जो सफ़ेद सूती कपड़े से ढँका था, मोमबत्ती की सुनहरी लौ टिमटिमा रही थी, जो कोने में लगे काले देवचित्र के पास टँगी थी, भाइयों द्वारा यूसुफ़ को बेचने वाली, शोख़ रंगोंवाली, पटसन पर बनी तस्वीर चमक रही थी।

प्यारी सिपाहिन आसानी से लोहे के भारी-भारी बर्तन उठा-उठाकर भट्ठी में रखती-निकालती जाती, प्रसन्नता से सरकारी ईंधन के बारे में बताती जा रही थी और कुज़्मा को पति के गाँव से लौटने तक रुक जाने के लिए मना रही थी। मगर कुज़्मा को सरसाम मारे डाल रहा था, चेहरा जल रहा था, वोद्का के कारण, जो बुख़ार में तप रहे शरीर में ज़हर की तरह बह रही थी, आँखों में बिना वजह आँसू आ रहे थे और पूरी तरह गर्माए बगैर ही कुज़्मा खेतों की सफ़ेद कड़ी लहरों से होता हुआ तीखन इल्यिच की ओर चल पड़ा। बर्फ की तह से ढँका, सफ़ेद लहरियेदार घोड़ा फुर्ती से दौड़ रहा था, लार टपकाते हुए, नथुनों से भूरी भाप की फ़ुहार छोड़ता हुआ। कड़ी बर्फ़ पर स्लेज के चलने से सामने वाली लोहे की पट्टियाँ खनखना रही थीं, पीछे बर्फीले वलयों में नीचे की ओर पीला सूरज चमक रहा था; सामने, उत्तर की ओर से तीखी, दम घोंटने वाली हवा चिंघाड़ रही थी, बर्फ की घनी लहरियेदार चादर पर फूस के पौधे झुके जा रहे थे, भूरी चिड़ियों का एक झुण्ड घोड़े के आगे-आगे उड़ रहा था; वे चमकते रास्ते पर बिखर जातीं, जम चुकी खाद पर चोंच मारतीं, फ़िर से उड़ जातीं और फ़िर बिखर जातीं।

कुज़्मा ने अपनी भारी, सफ़ेद पलकों के बीच से उनकी ओर देखा, यह महसूस किया कि सफ़ेद घुँघराली मूँछों और दाढ़ी वाला, लकड़ी जैसा सख़्त हो चुका उसका चेहरा किसी सन्त के मुखौटे जैसा हो गया है, सूरज डूब रहा था, नारंगी आभा में बर्फ़ की परतें हरी-मृतप्राय दिखाई दे रही थीं, उनके लहरियेदार चढ़ाव-उतार से नीली परछाइयों की श्रृंखला बन रही थी।

कुज़्मा ने तेज़ी से घोड़े को मोड़ा और उसे वापस घर की ओर हाँकने लगा। सूरज डूब चुका था, घर में भूरी बर्फ़ से ढँकी खिड़कियों से मद्धिम रोशनी छनकर आ रही थी, धुँधलका छाया था, अकेलापन और ठण्डक थी। खिड़की पास बगीचे में लटके हुए पिंजरे में स्नेगिर (भूरे रंग का गाने वाला पंछी, जिसका सीना लाल होता है - अनु।) जम चुका था, पंजे ऊपर किए, पंख बिखेरे, लाल कलगी गिराए पड़ा था।

“इसका काम तमाम हो गया !” कुज़्मा ने कहा और स्नेगिर को बाहर फेंकने के लिए ले गया। 


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