गाँव - 1.3

गाँव - 1.3

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धूल से भरी, पैरों से, पहियों से और खुरों से रौन्दी, कचरे और लीदभरी चरागाह ख़ाली हो गई, मेला उठ गया। मगर तीखन इल्यिच, मानो किसी से खार खाए, गर्मी और धूल में अनबिके घोड़ों को थामे बस गाड़ी में बैठा रहा। ऐ ख़ुदा, कैसा प्रदेश है! काली मिट्टी डेढ़-डेढ़ आर्शिन गहरी, और कैसी बढ़िया! मगर ऐसा नहीं होता कि पाँच साल गुज़र जाएँ बिना भुखमरी के। शहर मशहूर है पूरे रूस में गेहूँ के व्यापार के लिए, मगर पूरे शहर में बस सौ लोग ही इस गेहूँ को पेटभर खाते हैं। और मेला? भिखारी, बेवकूफ़, अन्धे और अपाहिज – सब ऐसे कि देखकर डर लगे और मतली आने लगे – पूरी फ़ौज है।

गर्म साफ़ दिन की सुबह तीखन इल्यिच घर के लिए चल पड़ा, पुराने मुख्य मार्ग से। पहले वह शहर से गुज़रा, फिर उथली और चमड़े की फैक्टरियों के कारण बदबूदार हो चुकी नदी से गुज़रा, नदी के उस पार – पहाड़ से होकर काली बस्ती से होते हुए। बाज़ार में कभी वह भाई के साथ मतोरिन की दुकान पर काम किया करता था। तब बाज़ार में सभी उसे झुककर सलाम किया करते। बस्ती में उसका बचपन गुज़रा था – इस पहाड़ी पर, सड़े हुए और काले पड़ चुके छप्परों वाली मिट्टी की झोंपड़ियों के बीच, गोबर के बीच, जिसे उनके सामने ईंधन के लिए सुखाया जाता है, कचरे, राख और चीथड़ों के बीच। । अब तो उस झोंपड़े का नामो-निशान तक न रहा, जिसमें तीखन इल्यिच का जन्म हुआ, जहाँ वह बड़ा हुआ। उसकी जगह अब एक नया लकड़ी का घर खड़ा था, प्रवेश-द्वार के ऊपर ज़ंग लगी तख़्ती वाला : “गिरजे का दर्जी सबाल्योव”। बस्ती में बाकी सब पहले जैसा ही था : देहलीज़ के पास सुअर और मुर्गियाँ, दरवाज़े के पास ऊँचे-ऊँचे डण्डे, उन डण्डों पर भेड़ की सींगी, छोटी-छोटी खिड़कियों में, रंग-बिरंगे मिट्टी के बर्तनों के पीछे से झाँकते हुए लेस बुनने वाली औरतों के सफ़ेद चौड़े चेहरे; नंगे पैर घूमते हुए बच्चे कंधे पर टँगे एक पट्टे से अपनी पतलून सँभालते फूस की पूँछ वाली कागज़ की पतंग उड़ाते हुए; चमकीले सफ़ेद बालों वाली ख़ामोश लड़कियाँ, झोंपड़ों के चारों ओर बनी मेंड पर अपना मनपसन्द खेल – गुड़ियों की अन्त्ययात्रा, खेल रही थीं। । । पहाड़ी पर खेत में स्थित कब्रिस्तान के सामने उसने सलीब का निशान बनाया। परकोटे के पीछे, पुराने पेड़ों के बीच कभी अमीर, कंजूस ज़ीकव की कब्र हुआ करती थी, जो भरते ही फ़ौरन ढह गई थी। और, कुछ देर सोचने के बाद उसने घोड़े को कब्रिस्तान के प्रवेश द्वार की ओर मोड़ दिया।

इस बड़े, सफ़ेद दरवाज़े के पास परीकथाओं की बुढ़िया जैसी – चश्मा पहने, लटकते हुए होठों वाली एक बुढ़िया बैठी-बैठी मोज़े बना रही थी – यह उन बेवाओं में से एक थी, जो कब्रिस्तान के साथ वाले आश्रम में रहती थीं।

“दादी माँ, नमस्ते!” घोड़े को दरवाज़े के पास वाले खम्भे से बाँधते हुए तीखन इल्यिच ने चिल्लाकर कहा, “मेरे घोड़े की रखवाली करोगी?”

बुढ़िया उठी, काफ़ी नीचे झुककर सलाम करते हुए बुदबुदाई, “कर लूँगी, हुज़ूर!”

तीखन इल्यिच ने टोपी उतारी, आँखे घुमाते हुए दुबारा दरवाज़े के ऊपर लगी हुई माँ मरियम के स्वर्गारोहण की तस्वीर पर सलीब का बड़ा निशान बनाया और आगे बोला:

“कितनी हो तुम लोग आजकल?”

“पूरी बारह हैं, जनाब। ”

“तो, अक्सर झगड़ती रहती हो ना?”

“अक्सर, हुज़ूर। । । ”

और तीखन इल्यिच बगैर जल्दबाज़ी के पेड़ों और सलीबों के बीच, गलियारे पर चल पड़ा, जो पुराने लकड़ी के बने चर्च की ओर जाता था। मेले में उसने बाल कटवा लिए थे, दाढ़ी को छोटा और ठीक-ठाक करवा लिया था और वह काफ़ी जवान दिखने लगा था। बीमारी के बाद के दुबलेपन और झुलसी काया ने उसे जवान बना दिया था – अभी-अभी काटे गए कल्लों के नीचे वाली तिकोनी नर्म खाल सफ़ेदी से चमक रही थी। बचपन और जवानी की यादों ने, नई किरमिची टोपी ने जवान बना दिया। वह चलते-चलते दोनों ओर देख लेता था। । । कितनी छोटी और बेतरतीब है ज़िंदगी! और कितनी शांति और ख़ामोशी है चारों ओर, इस धूपभरी निश्चलता में, इस पुराने गिरजे में! गर्म हवा धूप में चमकते, गर्मी के कारण समय से पहले ही विरल हो चुके पेड़ों की चोटियों को, जिनके पार साफ़ आसमान दिखाई दे रहा था, सहलाती हुई चल रही थी, पत्थरों पर, स्मारकों पर पड़ रही उनकी पारदर्शी, हल्की परछाईं को लहरों की तरह हिला रही थी। और जब वह थम गई तो सूरज ने फूलों और घास को तपा दिया, झाड़ियों में पंछी मीठे सुर में गाने लगे, गर्म रास्ते पर तितलियाँ मीठी थकान से निश्चल होने लगीं। । । एक स्मारक पर तीखन इल्यिच ने पढ़ा : “कैसा भयानक कर वसूलती है मौत लोगों से!”

मगर आसपास कोई डरावनी बात नहीं थी। वह चलता रहा, कुछ प्रसन्नता से ही इस बात पर ध्यान देते हुए कि कब्रिस्तान बढ़ रहा है और खम्भों पर बनी पुरानी कब्रों को दर्शाते पुराने पत्थरों, भारी लोहे की पट्टियों और बड़ी-बड़ी, भद्दी और सड़ रही सलीबों के बीच, जिनसे वह अटा पड़ा था, कई नये स्मारक बन गए हैं। “ख़त्म हो गई सन् 1819 की नवम्बर की सात तारीख को सुबह पाँच बजे” – ऐसी इबारतों को पढ़ने से डर लग रहा था; पुराने कस्बाई शहर में शिशिर के मेघाच्छादित दिन की सुबह को मौत अच्छी नहीं लगती! मगर पास ही, पेड़ों के बीच में प्लास्टर ऑफ पेरिस का बना सफ़ेद फ़रिश्ता चमक रहा था, उसकी आँखें आसमान की ओर ताक रही थीं, और नीचे वाले आधार पर सुनहरे शब्द खुदे हुए थे : “सुखी हैं वे मृत, जो ईश्वर की छाया में मर गए हैं। ”। लोहे के, समय और बुरे मौसम के साथ इंद्रधनुषी हो चुके किसी सरकारी कर्मचारी के स्मारक पर ये पंक्तियाँ पढ़ी जा सकती थीं


ईमानदारी से की उसने त्सार की सेवा,

तहे दिल से किया अपनों से प्यार,

आदर पाया लोगों से। । ।

तीखन इल्यिच को ये पंक्तियाँ झूठी प्रतीत हुईं। मगर सच कहाँ है? वह, झाड़ियों में पड़ा है, आदमी का जबड़ा मानो गन्दे मोम से बनाया गया हो – बस यही है जो शेष बचा हुआ है आदमी का। । । मगर क्या यही सब कुछ है? फूल, रिबन, सलीब, कब्रें और ज़मीन के अंदर हड्डियाँ सड़ जाती हैं, - बस मृत्यु और सड़न! मगर तीखन इल्यिच आगे चलता रहा और पढ़ता रहा – “ऐसा ही होता है मुर्दों के पुनर्जीवन पर : जाता है नश्वरता में, उठता है अनश्वर होकर। ”

सभी लेख बड़ी मार्मिकता से कह रहे थे सुकून और आराम के बारे में, नज़ाकत के बारे में, प्यार के बारे में, जो मानो धरती पर है ही नहीं और न ही कभी होगा, एक-दूसरे के प्रति समर्पण के बारे में और ईश्वर के प्रति लगन के बारे में, पुनर्जीवन सम्बन्धी अदम्य आशाओं के बारे में और किसी अन्य सुखी देश में मुलाकात के बारे में, जिस पर सिर्फ यहीं विश्वास किया जा सकता है, और उस समानता के बारे में, जो सिर्फ मृत्यु ही दे सकती है, वे क्षण जब मृत भिखारी के होठों का अंतिम चुम्बन लिया जाता है, मानो वह अपना भाई हो, उसकी तुलना सम्राटों और शासकों से की जाती है। । । और वहाँ, परकोटे के परले छोर पर, धूप में ऊँघ रहे बूज़िना के झुरमुट में तीखन इल्यिच ने देखी एक बच्चे की ताज़ा कब्र, सलीब और सलीब पर दो पंंक्तियाँ :


धीरे पत्तों, शोर न मचाओ,

मेरे कोस्त्या को न जगाओ!

और अपने बच्चे की याद आने पर, जो गूँगी रसोइन से नींद में दब गया था, आँखों में भर आए आँसुओं के कारण वह पलकें झपकाने लगा।

कब्रिस्तान के सामने से गुज़रने वाले और लहराते खेतों के बीच से जानेवाले राजमार्ग से होकर कोई नहीं जाता। पास ही की धूलभरी पगडंडी से लोग जाते हैं। तीखन इल्यिच भी पगडंडी पर ही चल पड़ा। सामने से चार पहियों वाली किराये की ख़स्ताहाल गाड़ी गुज़री – कस्बों की गाड़ियाँ बड़े ख़तरनाक ढंग से चलती हैं! और गाड़ी में था शहरी शिकारी : पैरों के पास चितकबरा शिकारी कुत्ता, घुटनों पर खोलबन्द बन्दूक, पैरों में ऊँचे दलदली जूते, जबकि कस्बे में दलदल थी ही नहीं, और तीख़न इल्यिच ने गुस्से से दाँत पीसे : इस निकम्मे को तो मज़दूरी पर भेज देना चाहिए! दोपहर की धूप झुलसा रही थी, गर्म हवा चल रही थी, बादल रहित आसमान सलेटी रंग का हो चला था, और अधिकाधिक क्रोध से तीखन इल्यिच रास्ते पर उड़ रही धूल से बचने के लिए मुड़ता। बढ़ती हुई फिक्र से मरियल, समय से पहले ही सूख चली गेहूँ की फ़सल को छू लेता।

सधे हुए कदमों से, हाथों में लम्बी-लम्बी लाठियाँ लिए, थकान और भूख से बेहाल भक्तिनों की टोली चली आ रही थी। उन्होंने तीखन इल्यिच को नम्रतापूर्वक नीचे झुककर सलाम किया, मगर अब उसे फिर से यह सब बदमाशीभरा प्रतीत हुआ।

“बड़ी शांत हैं! और रात में एक-दूसरे से कुत्तों जैसी लड़ती होंगी। ”

धूल के बादल उड़ाते, घोड़ों को हाँक रहे थे नशे में धुत्, मेले से लौट रहे किसान - लाल, भूरे, काले बालों वाले, मगर सब एक जैसे बेतरतीब, दुबले-पतले और फ़टेहाल। उनकी खड़खड़ करती गाड़ियों को पीछे छोड़ते हुए तीखन इल्यिच ने सिर हिलाया

“ऊ। । । आवारा, भिखमंगे, भाड़ में जाओ!”

उनमें से एक जिसने अपना सिर फोड़ लिया था तार-तार हुई छींट की कमीज़ पहने मुर्दे की तरह पड़ा था, पीठ के बल, सिर लटकाए, खून से लथपथ दाढ़ी और सूजी नाक ऊपर उठाए, जिस पर लगा खून सूख चुका था। दूसरा भाग रहा था, हवा के कारण उड़ गई टोपी को पकड़ने के लिए, वह लड़खड़ाया और तीखन इल्यिच ने एक दुष्ट आनन्द से उस पर चाबुक लहराया। एक गाड़ी मिली – जालियों, फ़ावडों और औरतों से भरी हुई, घोड़े की ओर पीठ किए वे हिचकोले खा रही थीं और उछल-कूद मचा रही थीं, उनमें से एक बच्चों वाली नई हैट पहने थी, सामने वाला हिस्सा पीछे किए, दूसरी गा रही थी, तीसरी हाथ हिलाकर ठहाका लगाते हुए तीखन इल्यिच के पीछे चिल्लाई:

“चाचा! कीली खो बैठे!”

नाके के पार, जहाँ राजमार्ग एक ओर को मुड़ता था, जहाँ धड़धड़ाती गाड़ियाँ पीछे रह गई थीं, ख़ामोशी, स्तेपी की असीमता तथा गर्मी ने दबोच लिया, फिर से उसे महसूस हुआ कि दुनिया में सबसे महत्वपूर्ण चीज़ है, “व्यापार”। यह कैसी ग़रीबी है चारों ओर! पूरी तरह कंगाल हो चुके हैं किसान, कस्बे में फ़ैली हुई जीर्ण-शीर्ण हवेलियों में कुछ भी नहीं बचा है। । । मालिक चाहिए यहाँ, मालिक!”

आधे रास्ते में बड़ा गाँव रोव्नोए था। सूखी गर्म हवा खाली रास्तों, गर्मी से झुलसे झुरमुटों से बह रही थी। देहलीज़ के पास मुर्गियाँ पगला रही थीं, राख के ढेर में घुस रही थीं। नंगी चरागाह में भद्दे रंग वाला गिरजाघर भौंडेपन से खड़ा था। गिरजे के पीछे, सूरज की रोशनी में, गोबर के ढेर से सटा, उथला, कीचड़ से भरा तालाब चमक रहा था – घना, पीला पानी, जिसमें गायों का झुण्ड खड़ा था, हर पल अपनी ज़रूरतें पूरी करते हुए, और एक नंगा किसान सिर धो रहा था। वह कमर तक पानी में घुसा था, उसके सीने पर ताँबे की सलीब लटक रही थी, गर्दन और चेहरा धूप के कारण काले पड़ गए थे, और जिस्म आश्चर्यजनक रूप से सफ़ेद और चम्पई रंग का था।

“ज़रा लगाम तो खोल घोड़े की,” तीखन इल्यिच ने गायों के झुण्ड की बू वाले तालाब में घुसते हुए कहा।

किसान ने सफ़ेद-नीले साबुन का टुकड़ा गाय के गोबर से काले हो चुके किनारे पर फेंक दिया और भूरे, धोए हुए सिर से, शर्माकर स्वयँ को ढाँपते हुए, हुक्म पूरा करने आ गया। घोड़ा बड़ी आतुरता से पानी पर झुका, मगर पानी इतना गर्म और बदबूदार था कि उसने सिर उठा लिया और दूर हट गया। सीटी बजाते हुए तीखन इल्यिच ने उसकी ओर टोपी हिलाई।

“ओह, कैसा पानी है तुम्हारे यहाँ! क्या यही पीते हो?”

“और आपके पास क्या शक्कर वाला है?” बड़े प्यार और ख़ुशी से किसान ने प्रतिवाद किया। “हज़ारों साल से पी रहे हैं! पानी की क्या बात है – अनाज ही नहीं है यहाँ। । । ”



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