हिमपरी
हिमपरी


हिमपरी
(रूसी लोककथा)
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास
दुनिया में हर चीज़ होती है, हर चीज़ के बारे परीकथा में बताया जाता है.
कभी एक दददू और दादी रहते थे. उनके पास हर चीज़ प्रचुर मात्रा में थी – गायें और भेड़ें, और भट्टी पर बिल्ली, मगर बच्चे नहीं थे. वे बहुत दुखी थे, हमेशा उदास रहते. एक बार सर्दियों में सफ़ेद-सफ़ेद बर्फ घुटनों तक गिरी. पड़ोस के बच्चे रास्ते पर आ गए – स्लेजों में घूमने के लिए, बर्फ के ढेले एक दूसरे पर फेंकने के लिए, और बर्फ की गुडिया बनाने के लिए. दद्दू ने अपनी खिड़की से उन्हें देखा, देखता रहा और उसने दादी से कहा:
"क्या, बीबी, इतने सोच में डूबी हो, पराये बच्चों को देख रही हो, चल, हम भी बुढ़ापे में सैर-सपाटा करेंगे, हम भी बर्फ की औरत बनायेंगे."
और दादी को भी, सचमुच, खुशी हुई.
" चल, दद्दू, जायेंगे, बाहर निकलेंगे. मगर हम औरत क्यों बनाएं? चल, हम बच्ची 'हिमपरी' बनाते हैं."
जैसा कहा – वैसा किया.
बूढ़े लोग बाहर निकले और हिमपरी बनाने लगे. नन्हीं परी को बनाया, आँखों की जगह पर दो नीले मोती लगाए, गालों पर दो नन्हें गढ़े बनाए, लाल रिबन से – मुंह बनाया. कितनी प्यारी बेटी – हिमपरी! दादी और दद्दू उसे देखते हैं – खुश होते हैं – खुशी से अघाते नहीं हैं. और हिमपरी का मुंह मुस्कुराता है, बाल लहराते हैं.
हिमपरी हाथ-पैर हिलाती है, अपनी जगह से उठती है, और आँगन से होकर झोंपड़ी की तरफ़ जाती है.
"दद्दू,' दादी चीखती है, "देखो, यह हमारी बेटी है, ज़िंदा, प्यारी हिमपरी! और भागी झोंपड़ी में...कित्ती किती खुशी थी!
हिमपरी बड़ी होने लगी, हर दिन नहीं, बल्कि हर घंटे. दिन प्रतिदिन हिमपरी अधिकाधिक ख़ूबसूरत होती जाती. दद्दू और दादी उसे देख-देखकर फूले नहीं समाते, उसके ऊपर से नज़र नहीं हटाते.
हिमपरी थी – सफ़ेद, बर्फ के फ़ाहे जैसी, आंखें नीली बटन जैसी, भूरी चोटी कमर तक. सिर्फ लाली नहीं थी हिमपरी के मुख पर और होठों पर भी खून का नामोनिशान नहीं था. मगर वैसे भी हिमपरी कितनी सुन्दर थी!
साफ़-सुथरा बसंत का मौसम आया, कलियाँ फूल गईं, मधुमक्खियाँ खेत में उड़ने लगीं, लवा पंछी गाने लगा. सारे बच्चे खुश-बेहद खुश हैं, लड़कियाँ बसंत के गीत गा रही हैं. मगर हिमपरी उकता रही है, दुखी हो गयी है, खिड़की से देखती रहती है, आँसू बहाती रहती है.
और गर्मियां भी आ पहुँची, ख़ूबसूरत गर्मियों का मौसम, बागों में फूल खिलने लगे, खेतों में गेंहू की बालियाँ पकने लगीं...
अब तो हिमपरी और भी ज़्यादा उदास हो गयी, सूरज से छुपती रहती, उसे बस छाँव और ठंडक ही चाहिए, और बारिश हो तो और भी अच्छा.
दद्दू और दादी आहें भरते हैं:
"बच्ची, तेरी तबियत तो ठीक है?"
"मैं बिल्कुल ठीक हूँ, दादी."
मगर खुद कोने में छुप जाती है, बाहर निकलना नहीं चाहती. एक बार लड़कियां जंगल में जाने को तैयार हुईं – स्ट्राबेरी, रसभरी, ब्लूबेरी चुनने के लिए.
हिमपरी को बुलाने लगीं:
"चल, चल, जायेंगे, हिमपरी....चल, सहेली, जायेंगे, जायेंगे!"...हिमपरी का मन जंगल में जाने का नहीं था, धूप में जाने का हिमपरी का मन नहीं था. मगर दद्दू और दादी ने कहा;
"जाओ, जाओ, हिमपरी; जाओ, जाओ बच्ची, सहेलियों के साथ खुशी मनाओ."
हिमपरी ने एक छोटी सी डलिया ली, सहेलियों के साथ जंगल में गयी. सहेलियां तो जंगल में घूमती हैं, मालाएं बनाती हैं, नृत्य करती हैं, गाने गाती हैं. और हिमपरी ने एक ठंडा झरना ढूंढा, उसके पास बैठ गई, पानी में देखती रही, तेज़ धारा में उंगलियाँ भिगोती रही, बूंदों से खेलती रही, जैसे वे मोती हों.
फिर शाम उतर आई. लड़कियां इधर-उधर खेलने लगीं, उन्होंने फूलों की मालाएं पहनीं, झाड़-झंखाड़ से अलाव जलाया, अलाव को फांदते हुए कूदने लगीं. हिमपरी का कूदने का मन नहीं था...मगर सहेलियां जिद करने लगीं. हिमपरी अलाव के पास आई...खड़ी है – थरथरा रही है, चेहरा पर ज़रा भी लाली नहीं है, भूरी चोटी गिर पडी....सहेलियां चिल्लाई:
"कूद, कूद, हिमपरी!"
हिमपरी भागते हुए आई और उछली...
अलाव के ऊपर सनसनाहट हुई, दर्दभरी कराह उठी, और हिमपरी नहीं रही.
अलाव के ऊपर सफ़ेद भाप उठी, बादल से मिल गयी, आसमान की ओर उड़ चली, खूब ऊंचे, ऊंचे.
हिमपरी पिघल गयी...
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