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Charumati Ramdas

Others

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Charumati Ramdas

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बोहेमियन

बोहेमियन

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 बोहेमियन 

                                                                               लेखक: मिखाइल बुल्गाकव 

                                                                                   अनुवाद: आ. चारुमति रामदास 


1

साहित्य की सहायता से कैसे अस्तित्व में रहें 

नाटक पर सवार होकर तिफ्लीस 

 

अगर कोई मुझसे पूछे, कि तुम्हारे साथ क्या करना चाहिए, तो, जैसे सचमुच के भगवान के सामने कहता, मैं कहूंगा: मुझे सश्रम कठोर कारावास का दण्ड मिलना चाहिए.

मगर, वैसे, ये तिफ़्लीस के लिए नहीं, तिफ़्लीस में मैंने कोई भी बुरा काम नहीं किया. ये व्लदिकफ्काज़ के लिए है. 

मैं पिछले कुछ दिनों से व्लदिकफ्काज़ में था, और भूख का भयावह भूत (स्टाम्प! स्टाम्प!...’भयावह भूत’... वैसे, छोड़ो! ये नोट्स कभी भी नहीं छपेंगे!), तो मैं कह रहा हूँ – भूख के भयावह भूत ने मेरे मामूली क्वार्टर का,जो मुझे आदेश के अनुसार मिला था, दरवाज़ा खटखटाया. और भूत के पीछे-पीछे एटॉर्नी गिन्ज़ुलाएव ने भी खटखटाया – उज्जवल व्यक्तित्व – ब्रश की तरह कटी हुई मूंछों वाला, और प्रेरित करता हुआ चेहरा. 

हमारे बीच बातचीत हुई. उसे संक्षेप में प्रस्तुत कर रहा हूँ.

“ये, आप इतने उदास क्यों हैं?” (ये गिन्ज़ुलाएव.)

“आपके इस घटिया व्लदिकफ्काज़में तो भूखे मरने की नौबत आ गयी है...”

“बहस नहीं करूंगा. व्लदिकफ्काज़ घटिया शहर है. दुनिया में इससे ज़्यादा घटिया शहर शायद ही कोइ और होगा. मगर मरने की नौबत क्यों?”

“करने के लिए कुछ और है ही नहीं. मैंने सारी संभावनाएं छान मारी हैं. कला-उपविभाग में पैसे नहीं हैं और वे वेतन नहीं दे सकेंगे. नाटकों के परिचयात्मक शब्द समाप्त हो गए हैं. मैंने व्लदिकफ्काज़ के स्थानीय अखबार में एक व्यंगात्मक लेख लिखा था और उसके लिए 1200 रूबल्स पाए थे, और यह वादा भी कि अगर मैं इस पहले व्यंगात्मक लेख जैसा कुछ और भी छापूँ, तो मुझे एक विशेष विभाग में बिठाया जाएगा.

“किसलिए?” (गिन्ज़ुलाएव डर गया. बात समझ में आती है. बिठाना चाहते हैं – मतलब,मैं संदेहास्पद हूँ.)

“उपहास के लिए.”

“ओह, बकवास. यहाँ व्यंगात्मक लेखों के बारे में कुछ भी नहीं समझते हैं.

जानते हैं...

और जानते हैं, गिन्ज़ुलाएव ने क्या किया. उसने मुझे अपने साथ देसी जीवन से एक क्रांतिकारी नाटक लिखने के लिए प्रेरित किया. यहाँ मैं गिन्ज़ुलाएव को बदनाम कर रहा हूँ. उसने मुझे सिखाया: और मैं, युवावस्था और अनुभवहीनता के कारण राज़ी हो गया. नाटकों की रचना से गिन्ज़ुलाएव का संबध है? ज़ाहिर है, कोई नहीं. उसने वहीं मेरे सामने स्वीकार किया, कि वह ईमानदारी से साहित्य से नफ़रत करता है और मेरे दिल में अपने प्रति ढेर सारी सहानुभूति पैदा कर गया. मैं भी साहित्य से नफ़रत करता हूँ, और, यकीन कीजिये, गिन्ज़ुलाएव से कहीं ज़्यादा. मगर गिन्ज़ुलाएव देसी जीवन मुँह ज़बानी जानता है, अगर, बेशक, दुनिया के सबसे घृणित पहाड़ों की पृष्ठभूमि में, बारबेक्यू नाश्ते को जीवन कहा जाए तो, घटिया स्टील के चाकू, मरियल घोड़े, छोटी-मोटी सेंट की दुकानें, और रूह को चीरने वाला घिनौना संगीत. अच्छा, अच्छा, मतलब, मैं रचना करूँगा, और गिन्ज़ुलाएव उसे देसी जीवन से सजा देगा. “बेवकूफ होंगे वे, जो इस नाटक को खरीदेंगे.” “बेवकूफ तो हम होंगे, अगर हम इस नाटक को नहीं बेचेंगे.” हमने उसे साढ़े सात दिनों में लिखा, इस तरह सृष्टि के निर्माण से डेढ़ दिन अधिक लिया. (पवित्र बाइबल के अनुसार – अनु.) इसके बावजूद, वह सृष्टि से बदतर ही निकला. एक बात मैं कह सकता हूँ: यदि कभी सबसे ज़्यादा संवेदनहीन, अक्षम और निर्लज्ज नाटकों की प्रतियोगिता होगी तो हमारे नाटक को प्रथम पुरस्कार मिलेगा (हालाँकि, वैसे...वैसे...सन् 1921 – 1924 के कुछ नाटकों को याद करता हूं, और संदेह करने लगता हूँ), खैर, पहला नहीं – दूसरा या तीसरा. संक्षेप में: यह नाटक लिखने के बाद मुझ पर एक अमित कलंक लग गया है, और एक ही चीज़, जिसकी मैं उम्मीद करता हूँ, - कि यह नाटक देसी कला-उपविभाग की गहराइयों में सड़ चुका है. रसीद – पड़ी रहे. वह 200,000 रुबाल्स के लिए थी. 100,000 – मुझे और 100,000 – गिन्ज़ुलाएव को. नाटक तीन बार खेला गया (रेकॉर्ड), और लेखकों को स्टेज पर बुलाया गया. गिन्ज़ुलाएव बाहर आया और उसने झुक कर, हाथ को हंसली के पास रखा और अभिवादन किया. मैं भी बाहर निकला और मुंह बनाने लगा, ताकि फोटोग्राफ में मेरा चेहरा पहचाना न जा सके (दृश्य को फ्लैश के साथ फिल्माया गया था). इन अजीब हाव-भावों की वजह से शहर में अफवाह फ़ैल गयी कि मैं प्रतिभाशाली तो हूँ, साथ ही सिरफिरा इंसान भी हूँ. बहुत अपमानजनक लगा, क्योकि मुँह बनाने की ज़रुरत नहीं थी: हमारी फोटो थियेटर से जुड़े फोटोग्राफर ने खींची थी, और इसलिए सिवाय बन्दूक, और शीर्षक : “नमस्ते...” के अलावा फोटो में कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा था, साथ में थीं कोहरे की लकीरें. सात हज़ार रूबल्स मैं दो दिन में खा गया, और बचे हुए 93 हजार लेकर मैंने व्लदिकफ्काज़ छोड़ने का फैसला कर लिया. **** आखिर क्यों? तिफ्लीस ही क्यों? चाहे मुझे मार ही क्यों न डालो, अब मुझे समझ में नहीं आ रहा है. हांलाकि याद आ रहा है : कहते थे, कि :


तिफ़्लीस में सारी दुकानें खुली हैं;“ – वाईन है;“ – बहुत गर्मी है और फल सस्ते हैं;“ – बहुत सारे अखबार हैं वगैरह.. वगैरह...मैंने जाने का फैसला कर लिया. और सबसे पहले, सामान पैक कर लिया. अपनी दौलत समेटी – कंबल, थोड़े से अंतर्वस्त्र और केरोसिन स्टोव.सन् 1921 में हालात कुछ अलग थे, बनिस्बत सन् 1924 के. इस तरह से जाने की इजाज़त नहीं थी : उठो और शैतान जाने कहाँ चले जाओ! ज़ाहिर है,वे, जो नागरिकों के सफ़र के प्रभारी थे, इस निष्कर्ष पर पहुंचे:“अगर हर कोई जाने लगे, तो इसका नतीजा क्या होगा?”इसलिए इजाज़त लेना ज़रूरी था. मैंने फ़ौरन जहां ज़रूरी था, वहां आवेदन पत्र दे दिया और और उस कॉलम में, जहां पूछते हैं:“क्यों जाना है?”गर्व से लिख दिया:“तिफ्लीस – अपने क्रांतिकारी नाटक का मंचन करने.”  पूरे व्लदिकफ्काज़ में सिर्फ एक ही आदमी था, जो चेहरे से मुझे नहीं जानता था, और यह वही बहादुर नौजवान है, जिसके कूल्हे पर पिस्तौल है, ये नौजवान ऐसे खड़ा था, जैसे उसे उस मेज़ से सिल दिया गया हो, जहां से तिफ्लीस जाने के लिए ऑर्डर्स जारी किए जा रहे थे.जब मेरे ऑर्डर की बारी आई और मैंने उसकी तरफ़ हाथ बढाया, तो नौजवान ने आधे रास्ते में ही मेरा हाथ रोक दिया और खनखनाती और दृढ़ आवाज़ में कहा:“किसलिए जा रहे हो?”“मेरे क्रांतिकारी नाटक का मंचन करने.”तब नौजवान ने ऑर्डर को लिफ़ाफ़े में बंद किया, और लिफ़ाफ़े के साथ मुझे भी यह कहते हुए राइफल वाले एक आदमी को सौंप दिया:“विशेष विभाग में.”“किसलिए?” मैंने पूछा.इस पर उसने कोई जवाब नहीं दिया.जब तक मै

ं फुटपाथ पर अपनी बाईं ओर बंदूकधारी आदमी के साथ चल रहा था, बहुत प्रखर सूरज (यही पूरे व्लदिकफ्काज़ में इकलौती चीज़ है, जो अच्छी है) मुझे रोशन कर रहा था. उसने बातचीत से मेरा दिल बहलाने का निश्चय किया और कहा:“अब हम बाज़ार से होकर जायेंगे, तो तू भागने की कोशिश न करना. गुनाह हो जाएगा.”“अगर आप ऐसा करने के लिए मुझे मनाओगे, तो भी मैं नहीं करूंगा,” मैंने पूरी ईमानदारी से जवाब दिया.मैंने उसे सिगरेट पेश की.दोस्ताना अंदाज़ में सिगरेट के कश लगाते हुए हम विशेष विभाग में पहुंचे. आँगन से गुज़रते हुए मैंने सरसरी तौर पर अपने गुनाहों को याद किया. देखा – वे तीन थे.सन् 1907 में क्राएविच की भौतिक शास्त्र की किताब खरीदने के लिए 2 रूबल्स 50 कोपेक प्राप्त करने के बाद, उन्हें सिनेमा पर खर्च कर दिया;सन् 1913 में मैंने शादी कर ली, माँ की इच्छा के खिलाफ;सन् 1921 में ये प्रसिद्ध व्यंगात्मक लेख लिखा.नाटक? मगर, माफ़ कीजिये, हो सकता है, नाटक बिल्कुल भी अपराधों की श्रेणी में नहीं आता? बल्कि इसके विपरीत है.

उन लोगों की जानकारी के लिए, जो कभी विशेष विभाग में नहीं गए हैं:

एक बड़ा सा कमरा, फर्श पर कालीन, बहुत बड़ी, अविश्वसनीय आकार वाली लिखने की मेज़, आठ अलग-अलग तरह के टेलीफोन उपकरण, उनमें हरे, नारंगी और भूरे रंग के फीते लगे थे और मेज़ के पीछे फ़ौजी वर्दी में, बेहद ख़ूबसूरत चेहरेवाला एक छोटा आदमी.

खुली खिड़कियों में शाहबलूत के घने सिरे झाँक रहे थे. मेज़ के पीछे बैठे हुए आदमी ने मुझे देखकर अपना प्यारा चेहरा चिड़चिड़े और खडूस चेहरे में बदलने की कोशिश की, मगर वह इसमें आधा ही सफल हो पाया.

उसने मेज़ की दराज़ से एक फोटो निकाली और बारी-बारी से कभी मुझे तो कभी फोटो को गौर से देखने लगा.

“ऐ, नहीं. ये मैं नहीं हूँ,” मैंने फ़ौरन घोषणा कर दी.

“मूंछे तो मुंडवाई जा सकती हैं,” प्यारे आदमी ने विचारमग्न होकर कहा.

“हाँ, मगर आप गौर से देखिये,” मैं कहने लगा, “ये काला है, पॉलिश की तरह, और ये करीब 45 साल का है. मगर मैं गोरा हूँ, और 28 साल का हूँ.”

“रंग?” छोटे आदमी ने अविश्वास से कहा.

“और गंजा सिर? और इसके अलावा, नाक की तरफ़ गौर से देखिये.”

छोटे आदमी ने गौर से मेरी नाक की ओर देखा. उस पर निराशा छा गई.

“सही है. समानता नहीं है.” 

कुछ देर खामोशी रही, और स्याही की दावात में धूप की किरण दिखाई देने लगी.

“क्या आप अकाउंटेंट हैं?”

“खुदा बचाए.”

खामोशी. और शाहबलूत के घने सिरे. प्लास्टर की हुई छत. क्यूपिड्स.

“और आप तिफ्लीस क्यों जा रहे हैं? जल्दी जवाब दो, बिना सोचे,” छोटे आदमी ने जल्दी-जल्दी पूछा.

“अपने क्रांतिकारी नाटक का मंचन करने,” मैंने जल्दी-जल्दी जवाब दिया.

छोटे आदमी ने मुंह खोला और जैसे स्तब्ध रह गया और पूरा का पूरा किरण में भभक उठा.

“नाटक लिखते हैं?”

“हाँ. लिखना पड़ता है.”

“क्या बात है! क्या अच्छा नाटक लिखा है?”

उसकी आवाज़ में कुछ ऐसा था, जो किसी के भी दिल को छू सकता था, मगर सिर्फ मेरे दिल को नहीं. मैं फिर से कहता हूँ, मुझे कठोर कारावास की सज़ा मिलनी चाहिए. आंखें चुराते हुए मैंने कहा:

“हाँ, अच्छा.”

हाँ. हाँ. हाँ. ये चौथा अपराध है, और अन्य सभी से ज़्यादा गंभीर है. अगर मुझे विशेष विभाग के सामने खुद को साफ़-सुथरा साबित करना होता, तो मुझे ये जवाब देना चाहिए था:

‘नहीं. वह अच्छा नाटक नहीं है. वह – बकवास है. सिर्फ मुझे तिफ्लीस जाने की बेहद ख्वाहिश है.’

मैंने अपने फटे हुए जूतों की नोक को देखा और खामोश रहा. मैं तब होश में आया, जब छोटे आदमी ने मेरे हाथ में पासपोर्ट और बाहर जाने का आदेश थमा दिया.

छोटे आदमी ने बंदूकधारी से कहा;

“साहित्यकार को बाहर ले जाओ.”

****   

विशेष विभाग! भूल जाओ! तुम देख रहे हो, कि मैंने स्वीकार कर लिया. मैंने तीन साल का बोझ हटा दिया. वो, जो विशेष-विभाग में मैंने किया है, मेरे लिए किसी षडयंत्र से भी ज़्यादा है, प्रतिक्रान्ति है और ऑफिस के प्रति गुनाह है.

भूलो मत!!!


2.

 

चिर बंजारे 

सन् 1924 में, कहते हैं, कि व्लदिकफ्काज़ से तिफ्लीस आसानी से जा सकते थे: व्लदिकफ्काज़ में कार किराए पर लो और जॉर्जियन मिलिट्री रोड से जाओ, जो असाधारण रूप से सुंदर है. और सिर्फ 210 मील. मगर सन् 1921 में तो व्लदिकफ्काज़ “किराए पर लेना”, ये लब्ज़ विदेशी शब्द जैसा लगता था.

इस तरह जाना पड़ता था: कम्बल और केरोसिन स्टोव लेकर रेल्वे स्टेशन जाओ और वहां पटरियों के किनारे-किनारे चलते हुए, अंतहीन रेल के डिब्बों को देखते चलो. पसीना पोंछते हुए, सातवी पटरी पर एक खुले डिब्बे के पास मैंने पंखे जैसी दाढी वाले एक आदमी को देखा, जिसने रात के जूते पहने थे. वह चाय की केतली धो रहा था और ‘बाकू’ शब्द दोहरा रहा था. 

   “मुझे अपने साथ ले चलो,” मैंने विनती की.

   “नहीं ले जाऊंगा,” दाढी वाले ने जवाब दिया.

   “प्लीज़, क्रांतिकारी नाटक पेश करने के लिए.” मैंने कहा.

“नहीं ले जाऊंगा.”

दढ़ियल केतली समेत एक तख्ते से होते हुए डिब्बे में घुस गया. मैं गरम पटरियों के पास कम्बल पर बैठ गया और सिगरेट पीने लगा. डिब्बों के बीच की जगह पर बेहद गर्माहट फ़ैल गयी, और मैंने रास्ते के नल से जी भर के पानी पिया. इसके बाद मैं फिर से बैठ गया और महसूस कर रहा था की डिब्बा तेज़ बुखार में जल रहा है. दाढी बाहर झांकी.

“और, कौनसा नाटक है?”

“ये रहा.”

मैंने कंबल खोला और नाटक बाहर निकाला.

“आपने खुद लिखा है?” डिब्बे के मालिक ने अविश्वास से पूछा.

“गिन्ज़ुलाएव के साथ.”

“उसके बारे में नहीं जानता.”

“मेरा जाना ज़रूरी है.”

“अगर दो लोग नहीं आये, तब, हो सकता है, ले चलूँगा. बस, सिर्फ बर्थ के लिए ज़िद न करना. आप ये न सोचना कि अगर आपने नाटक लिखा है, तो आप ऐसा कर साकते हैं. सफ़र लंबा है, मगर हम खुद भी राजनीतिक-शिक्षा के क्षेत्र से हैं.

“मैं ज़िद नहीं करूंगा,” पिघलती हुई गर्मी में आशा की लहर महसूस करते हुए मैंने कहा, “फर्श पर सो सकता हूँ.”

“क्या आपके पास खाने का सामान है?”

“थोड़े से पैसे हैं.”

दढ़ियल ने कुछ देर सोचा.

“तो...मैं सफ़र के दौरान तुम्हें अपने राशन में नामांकित कर दूंगा. बस, सिर्फ आप हमारे यात्रा-समाचार में भाग लेंगे. क्या आप अखबार में लिख सकते हैं?”

“जो चाहो, वो लिख सकता हूँ,” राशन लेकर और ऊपरी सतह चबाते हुए मैंने यकीन दिलाया.

“व्यंगात्मक लेख भी?” उसने पूछा, और उसके चेहरे से ज़ाहिर हो रहा था की वह मुझे झूठा समझ रहा है.

“व्यंगात्मक लेख तो मेरी विशेषता है.”

बर्थ की छाया में तीन चेहरे और एक जोड़ी नंगे पैर प्रकट हुए. सब मेरी तरफ देख रहे थे.

“फ्योदर! यहाँ बर्थ पर एक जगह है. स्तिपानव नहीं आयेगा, बदमाश,” पैरों ने बेहद नीची आवाज़ में कहा, “मैं कॉम्रेड व्यंग्यकार को अंदर आने दे रहा हूँ.”

“ठीक है, आने दो,” दाढी वाले फ्योदर ने अनमनेपन से कहा.

“और आप कौनसा व्यंगात्मक लेख लिखेंगे ?”

“चिर बंजारे.” 

“शुरू कैसे होगा?” बर्थ से पूछा गया. “हाँ, आप हमारे साथ चाय पीने के लिए आइये.”

“बहुत अच्छे – चिर बंजारे, - जूते उतारते हुए फ्योदर ने कहा, - पटरियों पर दो घंटे बैठने की अपेक्षा आप पहले ही बता देते व्यंग लेख के बारे में. आप हमारे पास आ जाइए.”  

व्लदिकफ्काज़ में सुलगते हुए दिन का स्थान एक अद्भुत, भव्य शाम ले रही है. शाम के किनारे – भूरे पर्वत हैं. उन पर शाम का धुँआ है. और तली – समतल है. और तल पर खड़खड़ाते हुए पहिये चल पड़े. चिर बंजारे. हमेशा के लिए अलविदा, गिन्ज़ुलायेव.

अलविदा, व्लदिकफ्काज़!”



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