बर्फानी बवंडर
बर्फानी बवंडर
बर्फ़ानी बवंडर
लेखक: मिखाइल बुल्गाकव
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास
कभी वह जंगली जानवर की तरह विलाप करता है.
तो कभी बच्चे की तरह रोता है.
यह पूरा किस्सा तब से शुरू हुआ, जब, सर्वज्ञानी अक्सीन्या के अनुसार, क्लर्क पाल्चिकव को, जो शलामेत्येवा में रहता था, कृषिवैज्ञानिक की बेटी से प्यार हो गया.
प्यार काफ़ी जोशीला था, बेचारे गरीब का दिल सुखा रहा था. वह काऊंटी के शहर ग्राचेव्का गया और अपने लिए सूट का ऑर्डर दे दिया. सूट बेहद शानदार था, और काफ़ी संभव है कि ऑफिस वाली पतलून की भूरी धारियों ने उस अभागे व्यक्ति की किस्मत का फ़ैसला कर दिया. कृषिवैज्ञानिक की बेटी उसकी पत्नी बनने पर राज़ी हो गयी.
जहां तक मेरा सवाल है, मैं फलां-फलां प्रांत के जिले के एन...स्काया अस्पताल का डॉक्टर हूँ, जब से मैंने रस्सी बनाने की मशीन में फंसा लड़की का पाँव बाहर निकाला, मैं इतना मशहूर हो गया, की अपनी प्रसिद्धि के बोझ तले बस मर ही नहीं गया. मेरे पास इलाज के लिए स्लेज से हर रोज़ करीब सौ किसान आने लगे. मैंने दोपहर का भोजन करना बंद कर दिया.
अंकगणित – एक क्रूर विज्ञान है. मान लें, कि यदि अपने सौ मरीजों में से हर एक पर मैंने सिर्फ पांच मिनट ही खर्च किये...पाँच! तो पाँच सौ मिनट हुए – आठ घंटे बीस मिनट. लगातार, गौर कीजिये. और इसके अलावा मेरे यहाँ तीस आदमियों के लिए इन-पेशंट सेक्शन भी था. और, इसके अलावा, मैं ऑपरेशन्स भी करता था.
मतलब यह, कि रात के नौ बजे अस्पताल से लौटने के बाद मेरा न तो खाने का मन होता, न पीने का, न सोने का. कुछ भी नहीं करना चाहता था, सिवाय इसके की कोई मुझे प्रसूति के लिए बुलाने न आ जाए.
और दो हफ्तों के दौरान मुझे रात में पांच बार स्लेज से ले जाया गया.
मेरी आँखों में काली नमी छा गयी, और नासा दंड के ऊपर एक गहरी लकीर बन गयी, किसी कीड़े की तरह. रात को अस्पष्ट कोहरे में मुझे असफल ऑपरेशन्स, खुली हुई पसलियाँ दिखाई देतीं, और अपने हाथों को मैं मानवीय रक्त से लथपथ पाता और, जाग जाता – चिपचिपा और ठण्डा, गर्म डच-भट्टी के बावजूद.
राउण्ड्स पर मैं तेज़ चाल से चलता, मेरे पीछे-पीछे एक पुरुष सहायक-चिकित्सक, एक महिला चिकित्सक और दो नर्सें होतीं. पलंग के पास रुककर, जिस पर बुखार में पिघल रहा और दयनीयता से सांस लेता हुआ, मरीज़ होता, मैं अपने दिमाग से वह सब निकाल देता, जो उसके भीतर होता था. मेरी उंगलियाँ सूखी, सुलगती हुई त्वचा टटोलतीं, मैं पुतलियों को देखता, पसलियों पर टकटक करते हुए, भीतर गहराई में दिल की रहस्यमय धड़कन सुनता, और एक ही बात पर विचार करता – इसे कैसे बचाया जाए? और इसे - बचाना है. और इसे! सभी को.
जैसे एक युद्ध चल रहा था. प्रतिदिन सुबह वह बर्फ की मरियल रोशनी में शुरू होता, और भभकते हुए लैम्प ‘बिजली’ की पीली फडफडाती लौ के साथ समाप्त होता.
‘ये सब कैसे समाप्त होगा, जानना दिलचस्प होगा,’ रात को मैं अपने आप से कहता. ‘ इसी तरह मरीज़ स्लेज पर आते रहेंगे जनवरी में भी, फरवरी में भी, और मार्च में भी.’
मैंने ग्राचेव्का को पत्र भेजा और नम्रता से इस बात की ओर ध्यान दिलाया कि एन...स्काया जिले में एक अन्य डॉक्टर की भी ज़रुरत है.
पत्र लकड़ी की स्लेज पर बर्फ के समतल सागर पर चालीस मील गया. तीन दिन बाद जवाब आया: लिखा था, कि, बेशक, बेशक...मगर सिर्फ अभी नहीं....फिलहाल कोई नहीं जा सकता...
पत्र को मेरे काम के बारे में प्रशंसात्मक टिप्पणियों और भावी सफलताओं की कामना से समाप्त किया गया था.
उनसे प्रेरित होकर, मैं रूई के फाहों से रक्तस्त्राव रोकने लगा, दिफ्तेरिया के इंजेक्शन लगाने लगा, राक्षसों जैसे खतरनाक अल्सर्स को चीरे लगाने लगा, उन पर प्लास्टर बांधने लगा...
मंगलवार को सौ नहीं, बल्कि एक सौ ग्यारह लोग आये. मैंने रात को नौ बजे मरीजों को देखना बंद किया. मैं सो गया, यह अनुमान लगाने की कोशिश करते हुए कि कल – बुधवार को - कितने आयेंगे? मुझे सपना आया कि नौ सौ लोग आये हैं.
शयन कक्ष की खिड़की में विशेष रूप से सफ़ेद सुबह ने झाँका. मैंने आंखें खोलीं, ये न समझते हुए कि मुझे किस चीज़ ने जगाया है. फिर मैं समझ गया – यह दरवाज़े पर खटखट हो रही थी.
“डॉक्टर,” मैंने दाई पिलागेया इवानव्ना की आवाज़ पहचानी, “क्या आप जाग गए हैं?”
“उहूँ,” मैंने उनींदी, जंगली आवाज़ में जवाब दिया.
“मैं आपसे यह कहने आई हूँ. कि आप अस्पताल आने की जल्दी न करें. सिर्फ दो लोग आये हैं.”
“आप – क्या कह रही हैं. मज़ाक कर रही हैं?”
“कसम से. बर्फीला तूफ़ान, डॉक्टर, बर्फीला तूफ़ान,” उसने चाभी वाले छेद से प्रसन्नता से दुहराया. और इन दोनों के दांत घिसे हुए हैं. दिम्यान लुकिच उखाड़ देगा.”
“ठीक है...” मैं न जाने क्यों पलंग से उछल पडा.
गज़ब का दिन था. राउंड पूरा करके मैं पूरा दिन अपने क्वार्टर के चक्कर लगाता रहा (डॉक्टर के क्वार्टर में छह कमरे थे, और न जाने क्यों वह दुमंजिला था – तीन कमरे ऊपर, और किचन तथा तीन कमरे नीचे), ऑपेरा की धुन पर सीटी बजाता रहा, सिगरेट पीता रहा, खिड़कियों पर ढोल बजाता रहा...मगर खिड़कियों के पीछे कुछ हो रहा था, जिसे मैंने आज तक नहीं देखा था. आसमान नहीं था, धरती भी नहीं थी. कोई सफ़ेद चीज़ लगातार घूम रही थी, आड़ी-तिरछी, दाएं-बाएँ, जैसे कोई शैतान टूथ पावडर से खेल रहा हो.
मध्याह्न में मेरे द्वारा अक्सीन्या को – जो डॉक्टर के क्वार्टर में रसोईन और सफाई कर्मचारी थी, हुक्म दिया गया: तीन बाल्टियों और कड़ाही में पानी उबाला जाए. मैं एक महीने से नहाया नहीं था. मैंने और अक्सीन्या ने मिलकर स्टोर-रूम से एक बहुत बड़ा टब निकाला. उसे किचन के फर्श पर जमाया (बाथ-टब का तो, बेशक, एन...स्काया में सवाल ही नहीं था. सिर्फ़ अस्पताल में बाथ-टब थे - और वे भी खराब हो चुके थे).
दोपहर के करीब दो बजे खिड़की के पीछे घूमता हुआ जाल काफी विरल हो चुका था, और मैं सिर पर साबुन लगाए, टब में नग्न बैठा था.
“य-ये, तो मैं समझ रहा हूँ...” अपनी पीठ पर गरम, जलता हुआ पानी उछालते हुए मैंने मिठासभरी बुदबुदाहट से कहा, “ये त-तो मैं समझ रहा हूँ. और इसके बाद, पता है, हम खाना खायेंगे, और फिर सो जायेंगे. और अगर मेरी नींद पूरी हो गयी, तो फिर कल चाहे डेढ़ सौ मरीज़ भी आएँ, कोई बात नहीं. क्या बात है, अक्सीन्या?”
अक्सीन्या दरवाज़े के पीछे बैठी इंतज़ार कर रही थी कि मेरा यह स्नान-समारोह कब समाप्त होगा.
“शलामेत्येवा जागीर का क्लर्क शादी कर रहा है,” अक्सीन्या ने जवाब दिया.
“ओह, अच्छा! राज़ी हो गयी?”
“कसम से! प्यार में पागल है...” प्लेटें खड़खड़ाते हुए अक्सीन्या सुर में कहती रही.
“क्या दुल्हन ख़ूबसूरत है?”
“अव्वल दर्जे की ख़ूबसूरत! भूरे बाल, छरहरा बदन...”
“बताओ, प्लीज़!...”
इसी समय दरवाज़ा भड़भड़ाया. मैंने मायूसी से अपने बदन पर पानी डाला और सुनने लगा.
“डॉक्टर तो नहा रहे हैं,”...अक्सीन्या ने सुर में कहा.
“बुर्...बुर्” मोटी आवाज़ भर्राई.
“डॉक्टर, आपके लिए चिट्ठी है,” अक्सीन्या चहकी. “दरवाज़े से भीतर सरका दे.”
कंधे उचकाते हुए और किस्मत को कोसते हुए मैं टब से बाहर आया, और अक्सीन्या के हाथों से लिफाफा लिया.
“भाड़ में जाए. मैं टब से निकलकर सीधे नहीं जाऊंगा. आखिर, मैं भी इन्सान हूँ,” मैंने अपने आप से बगैर आत्मविश्वास के कहा. और टब में ही लिफाफा खोला.
“आदरणीय सहयोगी ( बड़ा सा विस्मयबोधक चिह्न). मेहेरबानी (काट दिया गया)
आपसे अनुरोध करता हूँ, कि फ़ौरन आ जाए. महिला के सिर में चोट लगने के बाद उसके छिद्रों से (काट दिया गया), नाक और मुंह से खून बह रहा है. बेहोश है. मैं संभालने में असमर्थ हूँ. आपसे नम्रता से निवेदन करता हूँ. घोड़े बढ़िया हैं. नब्ज़ कमजोर है. मेरे पास कपूर है.
डॉक्टर ( हस्ताक्षर अस्पष्ट).”
“मेरी किस्मत ही खराब है”, भट्टी में जल रही लकड़ियों की ओर देखते हुए मैंने मायूसी से सोचा.
“क्या आदमी यह चिट्ठी लाया है?”
“हाँ, आदमी.”
“उसे यहाँ आने दो.”
वह भीतर आया, और शानदार हेल्मेट के कारण, जिसे उसने लम्बे कानों वाली टोपी के ऊपर पहना था, मुझे किसी प्राचीन रोमन की तरह प्रतीत हुआ. उसके बदन पर भेड़ की खाल का ओवरकोट लिपटा था, और ठण्ड की लहर मेरे बदन में चुभ गई.
“आपने हेल्मेट क्यों पहना है?” मैंने अपने अनधुले बदन को चादर से ढांकते हुए पूछा.
“मैं शलामेत्येवा का आग बुझाने वाला हूँ. वहां हमारी फायर-ब्रिगेड है...” रोमन ने जवाब दिया.
“ये किस डॉक्टर ने लिखा है?”
हमारे कृषि वैज्ञानिक से मिलने आया था. नौजवान डॉक्टर है. हमारा दुर्भाग्य है, दुर्भाग्यशाली घटना हुई है...”
“कौन सी महिला है?”
“क्लर्क की दुल्हन.”
दरवाज़े के पीछे अक्सीन्या ने आह भरी.
“क्या हुआ है?” (सुनाई दिया की कैसे अक्सीन्या का शरीर दरवाज़े से चिपक गया.)
“कल सगाई थी, और सगाई के बाद क्लर्क उसे स्लेज पर घुमाना चाहता था. रेस के घोड़े को जोता, उसे बिठाया, और गेट की तरफ भागा. और घोड़ा तो फ़ौरन ऐसे उड़ चला, दुल्हन का माथा स्लेज की चौखट से टकरा गया. वह फ़ौरन उड़ चली. ऐसा दुर्भाग्य, कि बयान करना असंभव है...क्लर्क के पीछे भागे, ताकि वह खुद अपना गला न दबा दे. पागल हो गया.”
“मैं नहा रहा हूँ,” मैंने शिकायत के सुर में कहा, “उसे यहाँ क्यों नहीं लाये?” ऐसा कहते हुए मैंने सिर पर पानी डाला और साबुन टब में बह गया.
“इसके बारे में सोचना भी नामुमकिन है, आदरणीय डॉक्टर महोदय,” फायर ब्रिगेड वाले ने भावुकता से कहा और प्रार्थना की मुद्रा में हाथ जोड़ दिए, “कोई संभावना नहीं थी. मर जायेगी लड़की.”
“मगर हम जायेंगे कैसे” बर्फीले बवंडर में !”
“शांत हो गया है. आप भी-ना. पूरी तरह शांत हो गया है. घोड़े फुर्तीले हैं, एक सीध में भागेंगे. घंटे भर में पहुँच जायेंगे...”
मैं हौले से कराहा और बाथ टब से बाहर आया. तैश से अपने बदन पर दो बाल्टियां पानी डाला. फिर भट्टी के मुंह के सामने उकडूं बैठकर, अपना सिर उसमें डाल दिया, ताकि थोड़ा-सा तो सूख जाए.
“मुझे, बेशक, निमोनिया हो जाएगा. ऐसी यात्रा के बाद, क्रूपस निमोनिया. और, ख़ास बात ये, कि मैं उसका इलाज क्या करूंगा? ये डॉक्टर, जैसा कि चिट्ठी से ज़ाहिर है, मेरी अपेक्षा कम अनुभवी है...मैं कुछ नहीं जानता, सिर्फ छः महीने का अनुभव है, और उसे इससे भी कम. ज़ाहिर है की अभी अभी यूनिवर्सिटी से निकला है. और मुझे अनुभवी समझ रहा है.”
इस तरह सोचते हुए मुझे पता ही नहीं चला कि मैंने कब कपड़े पहन लिए. कपड़े पहनना आसान नहीं था: पतलून और कमीज़, फेल्ट के जूते, कमीज़ के ऊपर चमड़े की जैकेट, फिर ओवरकोट, और उसके ऊपर भेड़ की खाल का कोट, टोपी, थैली, उसमें कैफीन, कैम्फर, मॉर्फीन, एड्रेनलीन, मुड़े हुए चिमटे, स्टेरीलाइज़ करने की सामग्री, इंजेक्शन, जांच-पाईप, ब्राउनिंग पिस्तौल, सिगरेट, माचिस, घड़ी, स्टेथोस्कोप.
बिल्कुल भी डरावना नहीं लग रहा था, हांलाकि अन्धेरा हो रहा था, मगर जब हम सीमा से पार हो रहे थे, तो दिन पिघल रहा था. अब बर्फ की मार उतनी तेज़ नहीं थी. तिरछी, एक दिशा में, दायें गाल पर. फायरब्रिगेड वाला पहाड़ की तरह पहले घोड़े की पिछाड़ी को ढांक रहा था. घोड़े वाकई में मस्ती से जा रहे थे, वे सीधे हो गए, और स्लेज गड्ढों से होकर जाने लगी. मैं उसमें सिमट गया, फ़ौरन गरमा गया, गले की बीमारी के बारे में सोचने लगा, उस बारे में कि शायद लड़की के मस्तिष्क की हड्डी भीतर से चटख गई हो, कोई टुकड़ा मस्तिष्क में घुस गया हो...
“क्या फायर-ब्रिगेड के घोड़े हैं?” मैंने ऊनी कॉलर के बीच से पूछा.
“उहू...हूँ...” गाड़ीवान बिना मुड़े बुदबुदाया.
“और डॉक्टर ने उसका क्या इलाज किया?”
“हाँ, वह...हू...हूँ...वह, पता है, उसने यौन रोगों के बारे में पढ़ा है...उहू...हू...”
“हू...हू” बवंडर जंगल में गड़गड़ाया, फिर उसने बगल से सीटी बजाई, बिखर गया...मैं डोलने लगा, डोलने लगा, डोलने लगा...जब तक की मैं मॉस्को के सुन्दुनोव्स्की स्नानगृह में नहीं पहुँच गया. और सीधा ओवरकोट में, क्लोक रूम में, और पसीने से तर-बतर हो गया. इसके बाद टॉर्च जली, ठण्ड भीतर आई, मैंने आंखें खोलीं, देखा की लाल हेल्मेट चमक रहा है, सोचा, की आग लगी है...इसके बाद जाग गया और समझ गया कि मैं पहुँच गया हूँ. और स्तंभों वाली बिल्डिंग की देहलीज़ पर हूँ, जो ज़ाहिर है निकोलाय प्रथम के ज़माने की थी, चारों ओर घुप अन्धेरा था, और मेरे सामने हैं फायर ब्रिगेड वाले, और उनके सिरों पर नाच रही हैं लपटें. मैंने फ़ौरन ओवरकोट की दरार से घड़ी निकाली, देखा – पांच बजे हैं. हो सकता है, हम एक घंटा नहीं, बल्कि ढाई घंटे चले थे.
“मुझे वापसी के लिए फ़ौरन घोड़े दीजिये,”
मैंने कहा.
“जी,” गाड़ीवान ने कहा.
आधी नींद में और गीला, जैसे चमड़े की जैकेट के नीचे कम्प्रेस में रखा गया हूँ, मैंने ड्योढी में प्रवेश किया. किनारे से लैम्प की रोशनी मार कर रही थी, जिसकी एक पट्टी रँगे हुए फर्श पर पड़ रही थी. तभी सुनहरे बालों वाला नौजवान अभी अभी इस्त्री की हुई कड़क पतलून पहने, हैरान नज़रों से देखता हुआ बाहर की ओर भागा. काले डॉट्स वाली उसकी टाई एक ओर को लटक रही थी, कमीज़ कूबड़ की तरह बाहर निकल रही थी, मगर जैकेट एकदम नई, थी, मानो धातु की तह वाली हो.
आदमी ने हाथ हिलाए, मेरे ओवरकोट से लिपट गया, मुझसे चिपक गया और हौले-हौले बिसूरने लगा:
“मेरे प्यारे...डॉक्टर...फ़ौरन...वह मर रही है. मैं हत्यारा हूँ.” उसने कहीं किनारे की ओर देखा, गंभीरता से और पूरी आंखें खोलीं, किसी से कहा: “मैं हत्यारा हूँ, यही बात है.”
फिर वह सिसकियाँ लेने लगा, अपने पतले बालों को पकड़ लिया, उखाड़ने लगा, और मैंने देखा की वह वाकई में अपने लटें उखाड़ रहा है.
“रुक जाईये,” मैंने उससे कहा और उसका हाथ मरोड़ा.
कोई उसे ले गया. कुछ औरतें बाहर भागीं. किसी ने मेरा ओवरकोट उतारा, सजे हुए पायदानों से ले गईं, और सफ़ेद पलंग के पास लाईं. मेरे स्वागत के लिए नौजवान डॉक्टर कुर्सी से उठा. उसकी आंखें बदहवास थी, उनमें पीड़ा थी. पल भर के लिए उनमें अचरज की लहर दौड़ गयी कि मैं भी उतना ही जवान हूँ, जितना वह है. आम तौर से हम दोनों एक ही व्यक्ति की दो तस्वीरों जैसे थे. मगर फिर वह मेरे आने से इतना खुश हुआ कि उसका गला रुंध गया.
“मैं कितना खुश हूँ...मेरे सहयोगी...ये...देख रहे हैं ना, कि नब्ज़ गिर रही है. मैं, दरअसल, वेनेरोलोजिस्ट हूँ. मैं भयानक खुश हूँ कि आप आये...
मेज़ पर बैंडेज के एक टुकड़े पर सिरिंज और पीले तेल की कुछ शीशियाँ रखी थीं.
दरवाज़े के पीछे से क्लर्क का रुदन सुनाई दे रहा था, दरवाज़ा थोड़ा सा बंद किया, मेरे कन्धों के पीछे सफ़ेद कपड़ों में एक महिला की आकृति उभरी. शयन कक्ष में आधा-अन्धेरा था, लैम्प को एक किनारे से हरे टुकड़े से ढांक दिया गया था. हरी छाँव में तकिये पर कागज़ के रंग का चेहरा पड़ा था. सुनहरे बालों की लटें फ़ैली हुई थीं और लटक रही थीं. नाक तीखी हो गयी थी, और नथुने खून से गुलाबी हो गई रुई से भरे थे.
“नब्ज़...” – डॉक्टर ने फुसफुसाकर मुझसे कहा.
मैंने बेजान हाथ लेकर, आदत के मुताबिक़ उंगलियाँ रखीं और काँप गया. उँगलियों के नीचे हल्की-सी, बार-बार थरथराहट हो रही थी, फिर वह टूटने लगी, धागे की तरह खिंचने लगी. मैंने पेट में ठंडक महसूस की, जैसा आम तौर से तब होता है, जब मैं मौत से रूबरू होता हूँ. मुझे उससे नफ़रत है. मैंने इंजेक्शन की शीशी का सिरा तोड़ा और गाढ़े तेल को अपनी सिरींज में भर लिया. मगर उसे यंत्रवत चुभोया, व्यर्थ ही लड़की के हाथ की त्वचा के नीचे धकेला.
लड़की का निचला जबड़ा थरथराया, जैसे उसका दम घुट रहा हो, फिर लटक गया, कंबल के नीचे बदन खिंच गया, जैसे जम गया हो, फिर ढीला पड़ गया. और मेरी उँगलियों के नीचे से आख़िरी धागा खो गया.
“मर गई,” मैंने डॉक्टर के कान में कहा.
सफ़ेद बालों वाली श्वेत आकृति समतल कंबल पर गिर गई, लिपट गयी और थरथराने लगी.
“धीरे, धीरे,” मैंने इस सफ़ेद वस्त्रों वाली इस महिला से कहा, और डॉक्टर ने पीड़ा से दरवाज़े की ओर कनखियों से देखा.
“उसने मुझे हैरान कर दिया,” डॉक्टर ने बहुत धीरे से कहा.
हम दोनों ने ऐसा किया : रोती हुई माँ को शयनकक्ष में छोड़ा. किसी से भी कुछ भी नहीं कहा, क्लर्क को दूर के कमरे में ले गए.
वहां मैंने उससे कहा:
“अगर आप हमें दवा का इंजेक्शन नहीं लगाने देंगे, तो हम कुछ भी नहीं कर पायेंगे. आप हमें परेशान कर रहे हैं, काम में बाधा डाल रहे हैं!”
तब वह राज़ी हो गया; हौले से रोते हुए, जैकेट उतारा, हमने उसकी शादी वाली शानदार कमीज़ की आस्तीन ऊपर उठाई और उसे मॉर्फीन का इंजेक्शन लगा दिया.
डॉक्टर मरणासन्न लड़की के पास गया, जैसे उसकी मदद कर रहा हो, और मैं क्लर्क के पास रुक गया. मॉर्फीन ने मेरी अपेक्षा से काफ़ी जल्दी असर दिखाया. करीबी पंद्रह मिनट बाद क्लर्क धीमे-धीमे और असंबद्ध शिकायत करते हुए और रोते हुए,ऊंघने लगा, फिर आंसुओं से भीगा हुआ चेहरा हाथ पर रखा और सो गया.
चारों तरफ हो रही गड़बड़, रोना-धोना, सरसराहट, और दबी-दबी चीखें उसने नहीं सुनीं.
“सुनिए, मेरे सहयोगी, इस समय जाना खतरनाक है. आप भटक सकते हैं,” डॉक्टर ने प्रवेश कक्ष में मुझसे फुसफुसाकर कहा. “ रुक जाइए, रात यहीं गुज़ारिये...”
“नहीं, नहीं रुक सकता. चाहे जो भी हो, मैं जाऊंगा. उन्होंने मुझसे वादा किया है कि मुझे फ़ौरन वापस भेज देंगे.”
“हाँ, वो तो भेज देंगे, सिर्फ देखिये...”
“मेरे पास टायफाइड के तीन मरीज़ ऐसे हैं, कि उन्हें छोड़ नहीं सकता. मुझे रात में उन्हें देखना है.”
“खैर, देख लीजिये...”
उसने स्प्रिट में पानी डाला, मुझे पीने के लिए दिया, और मैंने वहीं, प्रवेश कक्ष में, हैम का एक टुकड़ा खाया. पेट में गर्माहट महसूस हुई, और दिल पर छाई निराशा कुछ कम हुई. मैं आख़िरी बार शयनकक्ष में आया, मृत लड़की पर नज़र डाली, क्लर्क के पास गया, मॉर्फीन का इंजेक्शन डॉक्टर के पास छोड़ा और, अपने आप को अच्छी तरह ढांक कर ड्योढी में निकल गया.
वहां सीटी बज रही थी, घोड़े झुके हुए थे, उन पर बर्फ की मार पड़ रही थी, लालटेन झूल रही थी.
“रास्ता तो मालूम है ना?” मैंने मुँह ढांकते हुए पूछा.
“रास्ता तो जानते हैं,” गाड़ीवान ने अत्यंत दयनीयता से जवाब दिया (उसके सिर पर अब हेल्मेट नहीं था), “मगर आप रात में यहीं रुक जाते तो...”
उसकी टोपी के कानों से भी दिखाई दे रहा था, कि वह किसी हाल में जाना नहीं चाहता.
“रुक जाना चाहिये,” दूसरे ने भी, जो भड़कती हुई मशाल पकड़े था, कहा – “मैदान में हालात अच्छे नहीं हैं.”
“ बारह मील,” मैं उदासी से बुदबुदाया,” पहुँच जायेंगे. “मेरे पास गंभीर रूप से बीमार मरीज़ हैं,” और मैं स्लेज में चढ़ गया.
मानता हूँ, कि सिर्फ उस आउट-हाउस में रुकने का ख़याल, जहां दुर्भाग्य मंडरा रहा है, जहां मैं मजबूर और अनावश्यक हूँ, मुझसे बर्दाश्त नहीं हो रहा था.
गाड़ीवान नाउम्मीदी से डंडे पर धम् से चढ़ गया, सीधा हो गया, हिलने लगा, और हम गेट से बाहर फिसल गए. मशाल गायब हो गयी, मानो गिर गई हो, या बुझ गई हो. मगर एक मिनट के बाद मुझे दूसरी ही चीज़ में दिलचस्पी महसूस हुई. मुश्किल से पीछे मुड़कर मैंने देखा, कि न सिर्फ मशाल गायब हो गई है, बल्कि शलामेत्येवो भी अपनी सभी इमारतों के साथ गायब हो गया है, जैसे सपने में होता है.
मेरे दिल में एक अप्रिय-सी चुभन महसूस हुई.
“लेकिन, यह अच्छा है,” मैं या तो सोच रहा था, या बुदबुदा रहा था. एक मिनट के लिए नाक बाहर निकाली और फिर से छुपा ली, मगर इतना अप्रिय लग रहा था. पूरी दुनिया जैसे सिकुड़ कर गेंद बन गयी थी, और उसे सभी दिशाओं में उछाला जा रहा था.
दिमाग़ में एक ख़याल कौंध गया – क्या वापस लौट जाऊं? मगर मैंने उसे भगा दिया, स्लेज की तली में रखी हुई घास में और गहरे घुस गया, जैसे नाव में घुस रहा हूँ, सिकुड़ गया, आंखें बंद कर लीं. फ़ौरन लैम्प पर पड़ा हुआ हरा टुकड़ा और सफ़ेद चेहरा नज़र के सामने तैर गया. दिमाग में जैसे अचानक बत्ती कौंध गयी: “ये खोपड़ी के आधार का फ्रैक्चर है...हाँ, हाँ, हाँ...आहा-हा...बिलकुल वही!” आत्मविश्वास जाग उठा कि यही सही अनुमान है. इत्मीनान हो गया. मगर, इससे क्या? अब इसका कोई फ़ायदा नहीं है, और पहले भी नहीं था. क्या कर सकते हो? कितना भयानक भाग्य है!
दुनिया में जीना कितना बेतुका और डरावना है! कृषि वैज्ञानिक के घर में अब क्या हो रहा होगा? ये ख़याल भी डरावना और दुखद है! फिर अपने आप पर दया आई: मेरी ज़िंदगी भी कितनी मुश्किल है.
लोग अभी सो रहे हैं, भट्टियाँ गरमाई गई हैं, और मैं फिर भी नहा नहीं सका. बर्फ का बवंडर मुझे पत्ते की तरह उड़ा ले जा रहा है. तो, मैं घर पहुंचूंगा, और मुझे, हो सकता है, फिर से कहीं ले जायेंगे. मुझे निमोनिया हो जाएगा, और मैं यहीं मर जाऊंगा...ऐसे, अपने आप पर तरस खाते हुए, मैं अँधेरे में गिर गया था, मगर उसमें कितनी देर रहा, नहीं जानता. मैं किसी स्नानगृह में नहीं गया, और मुझे ठण्ड लगने लगी. अधिकाधिक ठण्ड लगने लगी.
जब मैंने आंखें खोलीं, तो काली पीठ देखी, और तब मैं समझ गया कि हम कहीं नहीं जा रहे हैं, बल्कि खड़े हैं.
“क्या पहुँच गए?” मैंने धुंधली आंखें फाड़ते हुए पूछा.
काला गाड़ीवान पीड़ा से कसमसाया, अचानक नीचे उतरा, मुझे ऐसा लगा कि वह चारों तरफ गर-गर घूम रहा है...और बिना किसी लिहाज़ के बोलने लगा:
“पहुँच गए... लोगों की बात तो सुनना चाहिए था...आखिर ये क्या है! खुद को भी मार डालेंगे और घोड़ों को भी...”
“क्या रास्ता भूल गए हैं?” मेरी पीठ में ठंडक दौड़ गई.
“कहाँ का रास्ता,” गाड़ीवान उखड़े हुए सुर में बोला, “हमारे लिए तो पूरी सफ़ेद दुनिया ही रास्ता है. कौड़ी के मोल लुट गए...चार घंटे से चल रहे हैं, मगर कहाँ...आखिर ये हो क्या रहा है...”
चार घंटे. मैं टटोलने लगा, घड़ी महसूस की, माचिस निकाली. किसलिए? कोई फ़ायदा नहीं था, एक भी दियासलाई नहीं जली. उसे घिसो, चिंगारी चमकती है, - और फ़ौरन आग गायब हो जाती है.
“कह रहा हूँ, चार घंटे से,” मातमी आवाज़ में गाड़ीवान ने कहा, “अब क्या करें?”
“अभी हम कहाँ हैं?”
सवाल इतना बेवकूफ़ी भरा था, कि गाड़ीवान ने उसका जवाब देना भी ज़रूरी नहीं समझा.
वह अलग-अलग दिशाओं में मुड़ा, मगर मुझे कभी-कभी ऐसा लगता कि वह निश्चल खड़ा है, और मैं स्लेज में गर-गर घूम रहा हूँ. मैं बाहर निकला और फ़ौरन समझ गया कि बर्फ मेरे घुटनों तक है. पिछला घोड़ा बर्फ के ढेर में पेट तक धंस गया है.
उसकी अयाल सीधे बालों वाली महिला की तरह लटक रही थी.
“खुद-ब-खुद खड़े हो गए?”
“खुद-ब-खुद. जानवर परेशान हो गए...”
मुझे अचानक कुछ किस्से याद आये और न जाने क्यों ल्येव तल्स्तोय पर गुस्सा आ गया.
“उसके लिए तो यास्नाया पल्याना में सब कुछ अच्छा ही था,” मैं सोच रहा था, “उसे शायद मरते हुए लोगों के पास नहीं ले जाते थे...”
मुझे गाड़ीवान पर भी दया आई. फिर मुझे भयानक डर का दौरा पडा. मगर मैंने उसे सीने में ही दबा दिया.
“ये – कायरता है...” मैं भिंचे हुए दांतों से बुदबुदाया.
और मुझमें एक तूफानी शक्ति का संचार हो गया.
“ बात ये है, चचा,” मैं कहने लगा, यह महसूस करते हुए कि मेरे दांत जम रहे हैं, “इस समय हमें हताश नहीं होना चाहिए, वर्ना हम वाकई में शैतानों के पास पहुँच जायेंगे. वे कुछ देर खड़े हो गए, सुस्ता लिए, अब आगे चलना चाहिए. आप देखिये, आप सामने वाले घोड़े की लगाम पकड़ो,और मैं स्लेज चलाऊंगा. बाहर निकलना पडेगा, वर्ना तो हम बह जायेंगे.”
टोपी के कानों ने बदहवासी से देखा, मगर फिर भी गाड़ीवान आगे बढ़ा. लड़खड़ाते हुए, धंसते हुए, वह पहले घोड़े तक पहुंचा. हमारा प्रस्थान मुझे अंतहीन रूप से लंबा प्रतीत हुआ. आंखों के सामने गाड़ीवान की आकृति ओझल हो रही थी, मेरी आंखों में बवंडर की सूखी बर्फ भर गयी थी.
“ओह-ओ,” गाड़ीवान कराहा.
“ओह! ओह!,” मैं चिल्लाया और लगाम हिलाई.
घोड़े थोड़ा-सा आगे बढे, बर्फ दबाने लगे. स्लेज ऐसे उछली, जैसे लहर पर सवार हो. गाड़ीवान की आकृति कभी लम्बी होती, कभी छोटी हो जाती., वह आगे बढ़ा.
करीब पंद्रह मिनट हम इसी तरह चले, जब तक कि स्लेज सुचारू रूप से न चरमराने लगी.
घोड़े के पिछले खुरों को देखकर मेरे भीतर खुशी की लहर दौड़ गयी.
“बढ़िया, रास्ता है!” मैं चिल्लाया.
“ओ...हो...” गाड़ीवान ने जवाब दिया. वह मेरी तरफ झुका और उसकी आकृति अचानक बड़ी हो गई.
“लगता है, कि रास्ता है,” फायरब्रिगेड वाले ने खुशी से, चहकते हुए कहा. “कहीं फिर से रास्ता न खो जाए...उम्मीद है...”
हमने अपनी जगह बदल ली. घोड़े ज़्यादा फुर्ती से चलने लगे. मुझे ऐसा लगा कि बवंडर जैसे सिकुड़ गया था, वह कमजोर पड़ने लगा. मगर ऊपर और अगला-बगल सिवाय कीचड़ के कुछ नहीं था. मुझे, खासकर, अस्पताल पहुँचने की कोई उम्मीद नहीं थी. मेरा दिल कहीं और जाने को चाह रहा था, ये रास्ता वैसे भी बस्ती की ओर जाता है.
घोड़े अचानक तन गए और जोश से पैर चलाने लगे. मैं खुश हो गया, इस खुशी का कारण अभी समझ नहीं पाया था.
“शायद, उन्होंने बस्ती का अनुमान लगा लिया है?” मैंने पूछा.
गाड़ीवान ने मुझे जवाब नहीं दिया. मैं स्लेज में थोड़ा ऊपर उठा, और गौर से देखने लगा.
एक अजीब-सी आवाज़, दयनीय और गुस्सैल, अँधेरे में कहीं सुनाई दी, मगर फ़ौरन ही शांत हो गयी.
न जाने क्यों मुझे अप्रियता का अनुभव हुआ और क्लर्क की याद आई,और यह भी कि वह कैसे सिर हाथों में रखकर पतली आवाज़ में कराह रहा था. दायें हाथ की तरफ़ मैंने अचानक काला बिन्दु देखा, वह बढ़ते-बढ़ते काली बिल्ली में बदल गया, फिर वह और बड़ी हो गयी और पास आ गयी. फायरमैन अचानक मेरी तरफ़ मुड़ा, मैंने देखा कि उसका जबड़ा उछल रहा है, और उसने पूछा:
“देखा, नागरिक डॉक्टर?...”
एक घोड़ा दाईं तरफ़ छिटक गया, दूसरा बाईं तरफ़, फायरमैन एक सेकण्ड के लिए मेरे घुटने पर गिरा, कराहा, सीधा हो गया, सहारा लेकर लगाम निकालने लगा. घोड़े हिनहिनाये और चल पड़े. वे बर्फ के ढेले उछाल रहे थे,घबराहट से चल रहे थे, काँप रहे थे.
मेरे जिस्म में भी कई बार थरथराहट हुई. अपने आप को संभालकर मैंने भीतरी जेब में हाथ डाला, ब्राउनिंग निकाली और अपने आप को कोसा कि दूसरी क्लिप घर पर ही भूल आया.
नहीं, अगर मेरा रात में वहां रुकने का इरादा नहीं था तो मैंने अपने साथ मशाल क्यों नहीं ली?!
ख्यालों में मैंने अखबार में एक संक्षिप्त टिप्पणी देखी अपने बारे में और अभागे फायरमैन के बारे में.
बिल्ली बढ़कर कुत्ते में बदल गयी और स्लेज से कुछ दूर लुढ़कने लगी. मैं मुड़ा और स्लेज के पीछे एक अन्य चार पैरों वाला प्राणी दिखाई दिया. कसम खाकर कह सकता हूँ, कि उसके तीखे कान थे और वह स्लेज के पीछे आराम से चल रहा था, मानो लकड़ी की छत पर चल रहा हो. उसके इरादों में कुछ भयानक और बेशर्म-सा था.
‘क्या झुण्ड है,या सिर्फ दो ही हैं?’ मैंने सोचा, और ‘झुण्ड’शब्द से ही फ़र-कोट के भीतर मैं भाप से लथपथ हो गया और पैरों की उंगलियों को ठण्ड लगना बंद हो गई.
“कस के पकड़ और घोड़ों को भी संभाल, अभी गोलियां चलाता हूँ’, मैंने ऐसी आवाज़ में कहा, जो मेरी नहीं थी, और मेरे लिए अपरिचित थी.
गाड़ीवान ने जवाब में सिर्फ आह भरी और सिर को कन्धों के बीच खींच लिया. मेरी आंखों के सामने चमक कौंध गयी और बहरा कर देने वाली आवाज़ गूंजी. फिर दूसरी बार और तीसरी बार. याद नहीं कि मैं कितनी देर स्लेज की तली में उछलता रहा. मैंने जंगली, तीक्ष्ण गुर्राहट सुनी, मेरा सिर किसी चीज़ से टकरा गया, मैं फूस से बाहर निकलने की कोशिश करने लगा और मौत के खौफ़ से कल्पना करने लगा कि मेरे सीने पर एक भारी-भरकम जिस्म पडा है. ख्यालों में ही अपनी ज़ख़्मी आंतें भी देखी...
इसी समय गाड़ीवान चीखा : “ओहो...हो...ये रहा वो...ये...खुदा, बाहर निकालो, बाहर निकालो...”
मैंने आखिरकार भारी-भरकम भेड़ की खाल से छुटकारा पा लिया, हाथ सीधे किये, उठा. न तो पीछे, ना ही बगल में काले जानवर नहीं थे. बर्फ भी बेहद कम और शराफत से गिर रही थी, और विरल परदे से एक सर्वाधिक सम्मोहक आंख टिमटिमा रही थी, जिसे मैं हज़ारों आंखों के बीच पहचान सकता था, - मेरे अस्पताल की लालटेन टिमटिमा रही थी. अन्धेरा उसके पीछे हट गया था. “महल से कहीं ज़्यादा ख़ूबसूरत...” मैंने सोचा और अचानक जोश में ब्राउनिंग से दो बार पीछे की ओर गोलियां चला दीं, वहां, जहां भेड़िये गायब हो गए थे.
*****
फायरमैन सीढ़ी के बीचोंबीच खडा था, जो डॉक्टर के शानदार क्वार्टर के नीचे वाले भाग से जाती थी, - मैं इस सीढ़ी के ऊपर था, भेड की खाल का कोट पहने अक्सीन्या – नीचे थी.
“चाहे मुझे सोने से मढ़ दो,” गाड़ीवान कहने लगा, “अगर मैं दूसरी बार...” उसने अपनी बात पूरी नहीं की, एक घूँट में पतली शराब पी ली और भयानक डकार ली, अक्सीन्या की ओर मुड़ा और जितना संभव था, हाथ फैलाकर बोला, “इतनी...”
“क्या मर गयी? नहीं बचा पाए?” अक्सीन्या ने मुझसे पूछा.
“मर गयी,” मैंने उदासीनता से उत्तर दिया.
करीब पंद्रह मिनट बाद सब शांत हो गया. नीचे बत्ती बुझ गयी. मैं ऊपर अकेला रह गया.
न जाने क्यों कंपकंपाते हुए हंस पडा, जैकेट के बटन खोले, फिर से उन्हें बंद किया, किताबों की अलमारी के पास गया, सर्जरी की किताब निकाली, खोपड़ी के आधार के फ्रैक्चर के बारे में कुछ देखना चाहता था, किताब फेंक दी.
जब कपडे उतार कर कंबल के भीतर घुसा तो करीब आधा मिनट के लिए बुरी तरह कंपकंपाया, फिर कंपकंपाहट रुक गई और पूरे शरीर में गर्माहट दौड़ गयी.
“चाहे मुझे सोने से मढ़ दो,” ऊँघते हुए मैं बुदबुदाया, “मगर मैं फिर नहीं जा...”
“जाएगा,हाँ, जाएगा...” शरारत से बवंडर सीटी बजाने लगा.
वह गरजते हुए छत से गुज़रा. फिर पाईप में गाने लगा, उसमें से बाहर उड़ गया, खिड़की के पीछे सरसराया, गायब हो गया.
“जाओगे,..जाओ-ओ-गे ...” घड़ी टिकटिक कर रही थी, मगर धीमे, धीमे.
फिर कुछ नहीं. खामोशी. नींद.
***