गाड़ी
गाड़ी
गाड़ी सीखने की कोशिश तो बहुत की पर आई नहीं।
हाँ, लेकिन लाइसेंस बनवाने की जरुर ठानी।
यानी अगर एक्सिडेंट हो तो लाइसेंस हाथ में हो।
ख्याल बुरा नहीं था।
अब सवाल था आर.टी.ओ.ऑफिस तक जाने का।
पर डर भी था,पकड़े गए तो आफत।
खैर, पहुँचे आॅ फिस,
आर.टी.ओ. महाशय अभी पधारे नहीं थे।
खैर, कोई बात नहीं, समय पर न आना तो हमारी व्यस्तता की पहचान है।
भला कोई अपनी शिनाख्त कैसे मिटा सकता है।
गुम गए तो कम से कम गुमशुदा तलाश केंद्र में एक पहचान तो काम आ ही जाएगी।
आर. टी. ओ. उर्फ एक्स वाई ज़ेड।
कद- समथिंग-समथिंग।
पहचान-आप लेट लतीफ है।
अरे मिंया, जरा हम पर भी गौर फरमाएँ।
हम से भी बड़ा गुरुघंटाल है कोई भला। एक तो गाड़ी हमें आती नहीं।
पर जनाब का विश्लेषण तो ऐसे कर रहे हैं। जैसे हमारे एक हाथ में उस्तरा और दूसरे में मेंढ़क हो।
खैर, पूरे एक घंटे बाद जनाब पधारे। भीड़ उनकी तरफ खींची, हम भी घुस गए।
जनाब कुर्सी पर बैठे और सामने हमने फॉर्म रख दिया।
उन्होंने नीचे मुँह किया और लिखा कुछ कुछ कुछ और कह दिया यहाँ साइन करो। हम तो सोचे बच गए, पर पकड़े गए।
पूछ बैठे- गाड़ी नम्बर बताओ।
हमें अपनी मूर्खता पर डर भी लग रहा था और हँसी भी आ रही थी।
तभी एक सज्जन उछले और तपाक से बोले- एम.पी.059 बी.
सोच रहे थे फँस गए पर छूट गए।
लाइसेंस बन चुका था। उन सज्जन का धन्यवाद किया लेकिन तभी दिमाग में एक ख्याल आया।
वाह ! क्या बात है। यानी लाइसेंस बनवाने के लिए आज आपके नाम से एक गाड़ी होना ही काफी है।
चाहे वो हमें ढोए या हम उसे। क्या फर्क पड़ता है।
फर्क पड़ेगा जनाब, जब हर दिन अस्पताल में 10-12 मरीज एक्सिडेंट के भर्ती होंगे। वाह ! जनसंख्या कम करने की क्या तरकीब निकाली है। खैर ! अब घर वापसी की बारी थी।
हम तो थे तीन और गाड़ी एक। सोचा कैसे बैठे ? एक गाड़ी पर तीन पकड़े गए तो ?
खैर ! थोड़ी हिम्मत जुटाई और निकल पड़े।
आर. टी. ओ. जनाब तो गर्दन झुकाए साइन पर साइन किए जा रहे थे। जैसे फॉर्म का पुलिंदा टेबल पर नहीं उनके सर पर ही रख दिया गया हो।
वाह रे ! आर. टी. ओ.। अगर 2-4 ऐसे और मिल जाए तो देश अच्छी खासी प्रगति कर लेगा। रोज 1000 नहीं तो कम- से-कम 100 तो कम कर ही देेगा।