एक सफ़र दादी के साथ
एक सफ़र दादी के साथ
अभी बिजली गए एक ही मिनट हुए था कि मैं तुरंत ही आगे के कमरे से दादी के पास पहुंच गई।
"दादी, चलिए ना बाहर बैठते हैं। जब लाईट आएगी तब पूजा पूरी करिएगा ना अपनी।"
"ठीक है दीप्ति, चलो बाहर कुर्सी रखो, आते है हम।" मैंने फिर नीलम बुआ से भी पूछा
"नीलम बुआ आप भी बैठेंगी ना बाहर.. आपके लिए भी कुर्सी रख दे रहें हैं।"
ये उस समय की बात है जब मैं रही होंगी वहीं १०-११ साल की। इन्वर्टर का ज़माना अभी भी दूर था। बिजली जाने के बाद हम सभी घर वाले बाहर बैठ के किस्से कहानियाँ और भजन गया करते थे। भजन हम बच्चे यानी मैं और मेरा छोटा भाई देव गाया करते थे और दादी कहानियाँ सुनाती थी।
देव बोला, "दादी वहीं अभिमन्यु वाली कहानी सुनाइए।"
मैंने विरोध किया "नहीं मुझे कोई नई कहानी सुननी हैं।" पर हमेशा कि तरह मेरे भाई की ही चली। दादी ने शुरू किया किस तरह अभिमन्यु का जन्म हुआ था, उसकी वीरता की कहानी, मृत्यु कैसे हुई और कैसे अर्जुन के दुखी होने पर कृष्ण जी उनको स्वर्ग लेके जाते हैं तो अभिमन्यु उनको पहचानता ही नहीं है और सिर्फ कृष्ण जी को प्रणाम करके चला जाता है। देव ने पूछा, "क्या मरने के बाद हम सब रिश्ते नाते भूल जाते हैं ? हमें पुराना कुछ भी नहीं याद रहता ?" दादी ने कहा, "हाँ, रिश्ते नाते सब संसार का मोह माया है। सच तो यही है कि मरने के बाद सब पीछे रह जाता है। जो काम देता है वो है बस भगवान का नाम।"
इतने में मेरी नींद टूटी। मेरे आस पास छोटी बुआ, मम्मी और बुआ के बच्चे सी रहे थे। उठ के मैं दादी के कमरे में गई तो वहा भी बड़ी बुआ, बच्चे और देव सो रहे थे। पापा दादी के बेड के पास कुर्सी पे बैठे थे। मुझे देख के बोले, "हम अभी ही बैठे है। देव को सोने को कहा है। आराम से सो जाओ तुम भी। दादी की चिंता मत करो जो होगा उनके लिए ही अच्छा होगा।" "ठीक है पापा" कह के मैं वापस उसी कमरे में आ गई। दादी की तबीयत ४-५ दिन से बहुत खराब चल रही है। एक तरह से अंतिम साँस ही ले रही हैं। दादी का पूरा परिवार यानी तीनों बेटी, बेटा बहू, नाती पोतों सब उस समय उनके पास ही थे। डॉक्टर ने पहले ही जवाब दे दिया था। दिन भर नाते रिश्तेदार देखने आते थे घर पर और शाम से लेके रात तक हम सब भजन कीर्तन करते। सब लोग कहते थे कि इन की साँस किसी चीज़ में आटकी हैं। जो भी आता नया उपाय बताता हम सब वहीं करते। दान, पूजा पाठ सब करते थे पर... शायद यही सब सोचते हुए मेरी आँख लग गई थी और चली गई थी बचपन में। जब मैं उनके सबसे करीब थी।
मेरा बचपन ज्यादातर दादी से बात करने, उनके किस्से कहानियाँ सुनने में ही बीता हैं। मुझे मम्मी के बारे में उतना नहीं पता हैं जितना दादी के बारे में पता हैं। मेरी दादी अच्छे व सम्पन्न परिवार से एक बड़े परिवार में ब्याही गई। १२ पास और शहरी बहू की बहुत इज्जत थी गांव में। हालाकि मेरी दादी अपने ज़माने में सीधी साधी बहू हरगिज़ नहीं थी। काफी तेज तर्रार मानी जाती थी वहीं मेरे बाबा उतने ही सीधे इंसान थे। गलत बात के लिए किसी से भी बहस कर लेती थी मेरी दादी चाहे उनकी चारों सास ही क्यों ना हो। किराए के मकान में चार बच्चों और दो देवरों के साथ रहती थीं। संघर्ष तो उन्होंने ने काफी देखा है पर कभी घबराती नहीं थीं, बहादुर थीं वो। बाबा मेरे पैदा होने के कुछ सालों बाद ही गुजर गए थे। दादी ने सबको संभाला और सबकी जीवन की गाड़ी आगे बढ़ाई। हमारे लिए दादी ही सब थी।
गाने बजाने का शौक काफी था उनको। बहुत सारी किताबें और कापियां थी उनके पास जिसमें बेशुमार भजन थे पर मुझे कुछ छूने भी नहीं देती थी कि मैं उनके सामान के साथ कुछ गड़बड़ कर दुंगी। हाँ एक गर्मी की छुट्टियों में उन्होंने सारे अपने भजन मुझसे नए कॉपी पे लिखवाए थे क्युकी पुराने कापियां के पन्ने निकालने लगे थे। दादी के पास पुराने बहुत सारे बक्से थे। मुझे उनका बक्सा कोई जादू का पिटारा ही लगता था। जैसे ही वो खुलता मैं मंडराने लगती थी उनके आस पास। पर मजाल की मुझे कोई वो अपना सामान छूने भी दे।
दादी अपने घर को छोड़ के कहीं रहना नहीं चाहती थीं। पहले जहाँ वो गांव में २-३ हफ्ते रह लेती थी वहीं बाद में उनका वहा मन ही नहीं लगता था। एक बार हम सब गांव गए थे तो दादी को हुआ कि वो बाद में आएंगी, बाकी लोगों के साथ कुछ दिन रह के। मुझे उनको वहाँ छोड़ के लौटना बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा था। मैंने पापा को बोल दिया था कि नहीं दादी भी चलेंगी हमलोग के साथ, उनको यहाँ अकेले बिल्कुल नहीं छोड़ेंगे। इतना सुनना था कि मेरी दादी रोने लगी उनको देख मुझे भी रोना आ गया। दादी काफी भावुक थीं। जब भी मुझे किचन में काम करते देखती तो रोने लगती थी, मम्मी को साफ मना कर देती थी कि दीप्ति से काम करवाने की कोई जरूरत नहीं। इम्तिहान से पहले जब हम उनका पैर छुने जाते तो भी आशीर्वाद देते देते रोने लग जाती थी। अक्सर जब अपने पुराने दिन याद करती, अपने माँ पिताजी, बाबा, छोटे भाई, उनकी आँखें भर आती थी। बुआ लोग वापस अपने ससुराल जाती तब भी खुद को रोने से रोक नहीं पाती। वो जितनी जल्दी दुखी होती थी उतनी ही जल्दी खुश भी। जब बुआ लोग या मम्मी पापा उनके लिए कोई नया सामान लाते तो इतनी खुश हो जाती थी। मैगी, नुडल्स, ठंडा भी उनको खुश करने के लिए काफी था। जीवन से हमेशा से बहुत संतुष्ट थी वो। मुझे अक्सर कहती थी कि वो एक बार मुझे अपने पुराने इलाके में के चलेंगी. सब दिखाएंगी। पर वो कभी नहीं हो पाया..
मेरी और उनकी दूरियां तब बढ़ने शुरू हुई जब केबल टीवी आया और मुझे अपना नया दोस्त टीवी मिल गया था। फिर धीरे धीरे पढ़ाई का भार बढ़ता चला गया तो उनसे बहुत कम बात होने लगी। मोबाइल का दौर तो उस प्यारे नाज़ुक से रिश्तों को और भी तोड़ता गया। धीरे धीरे उनकी लंबी बातें बोर करने लगी थीं। चिड़चिड़ाने लगी थीं मैं जब वो मुझसे कुछ पूछती थी पढ़ाई के बारे में या और किसी चीज के बारे में या फिर उनके भूलने के बीमारी से। मैं कमरे में सिर्फ सोने ही जाती थी या फिर उनको दवा देने । अपनी दुनिया में इतनी मगन थी कि उनसे बहुत दूर चली गई हूँ। यही सब सोच के खुद को बिल्कुल माफ नहीं कर पा रही थी मैं। बार बार सोच रही थी कि काश उनके साथ समय और बिताया होता। काश कुछ और बातें सुनी होती उनकी। काश उनके आखिरी समय में उनको खुश रख पाती.. काश...
दूसरे ही दिन दादी कि तबीयत पहले से ज्यादा खराब लग रही थी। सब पहले ज्यादा सतर्क थे। शाम होने वाली थी, सब घेरे हुए थे दादी को। मुझे अचानक सीने में तेज़ दर्द हुआ। कमरे से बाहर आके अभी पानी ही पी रही थी कि कमरे में से मम्मी और बुआ लोग की तेज़ आवाज़ आई.. "अम्मा"...
