बचपन का दोस्त
बचपन का दोस्त
अभी रितिका अपने काम से लौटी ही थी की किसी ने घर की डोरबेल बजाई। किचन से रितिका की मम्मी बोली, "देख लो रितिका ज़रा कौन है" । हामी भर के रितिका दरवाज़े के तरफ बढ़ी तो देखा की एक आंटी थी और उनके साथ रितिका की उम्र का लड़का जो खड़ा होके मुस्करा रहा था।
"मम्मी हैं ना बेटा?" आंटी ने पूछा।
"हां जी, आप बैठिए। मैं बुलाती हूं उन्हें।"
कह के रितिका ने किचन में जा के मां को बताया और फिर फ्रेश होने चली गई। "कैसा लड़का है, जान ना पहचान बस मुस्कराए जा रहा था।" एक बार के लिए रितिका के मन में ख्याल आया।
जैसे ही वो बाथरूम से निकली तो उसकी छोटी बहन आ कर बोली, " दी, पता है कौन आया हैं? आपके बचपन का दोस्त..."।
"मेरे बचपन का दोस्त?"
" हां दी, जो बगल वाले घर में घर में रहते थे, मिश्रा अंकल, उनका लड़का तुम्हारा दोस्त, रोहन आया हैं।"
"क्या! वो लड़का रोहन है?"
इतना सुनना था कि रितिका जल्दी से अपना हुलिया ठीक करने लगी। ये वही रोहन था जो बचपन में उसका इकलौता दोस्त था और उसकी इकलौती दोस्त वो। इतने
सालो बाद वो मिलने आया है, ये सोच के वो इतनी खुश थी की जल्दी से ड्राइंग रूम के तरफ गई।
जैसे ही वो पहुंची, उसको देख सभी हंसने लगे। रितिका की मम्मी बोली, "अभी मैं इनको बता ही रही थी जैसे ही उसकी पता चलेगा कि कौन आया हैं वो दौड़ती हुई आएगी, तुमने पहचाना नहीं ना.." रितिका ने शर्माते हुए ना के लिए सिर हिलाया।
आंटी बोली, " रोहन तो जब से यहां आया हैं, बोल रहा है मुझे मोटीश के घर चलना.. आज ज़िद करके ले आया है।"
मोटीश कितने सालो बाद ये नाम सुन रही थी रितिका। शायद ये कब का भूल भी चुकी थी।
"ये तो बिल्कुल नहीं बदली.. वैसे ही है जैसे पहले थी।" रोहन ने उनके बीच की चुप्पी तोड़ी।
"पर तुम बहुत बदल गए, इसीलिए नहीं पहचान पाई।"
"क्या..सिर्फ वेट ही तो कम हुए है, बाकी तो वहीं हूं।"
"मेरे लिए वहीं पहचान थी तुम्हारी।" रितिका ने मुस्कराते हुए कहा।
सही ही बात थी.. रितिका और रोहन दोनो को बच्चे उनके हेल्थी लुक के वजह से चिड़ाते थे। इसीलिए वो दोनो बाकी बच्चों के खेलने के बजाए एक दूसरे के साथ ज्यादा खेलते थे और रहते थे। दोस्ती इतनी गहरी थी कि बस चलता तो वो लोग आपने घर भी नहीं जाते।
बहुत सी पुरानी बातें की, दोनो ने बैठ के। जाते जाते रोहन ने नंबर भी दिया। सिर्फ एक हफ्ते के लिए वो आया था वापस फिर जाने वाला था वो। उसने रितिका से पूछा उसके साथ शहर घूमने चलेगी वो। रात भर रितिका सोचती रही कि क्या बोले वो। वैसे उसको कोई दिक्कत नहीं थी क्योंकी था वो वहीं रोहन पर फिर भी कुछ तो अलग था उसमें। वो एक स्मार्ट हैंडसम सा लड़का था और रितिका खुद को मोटीश ही मानती थी, मोटी + चश्मिश। कैसे हां बोले उसको क्या सोचेंगे बाकी लोग। यही सब सोचती हुई रितिका सो गई। पर दूसरे दिन जब रोहन लेने ही आ गया तो वो मना नहीं कर पाई। ऑफिस से छुट्टी ली और चल दी उसके साथ।
घूमते हुए वो एक पार्क में गए जहां बचपन में वो परिवार के साथ आते थे। बेंच पे बैठ के घंटो बात किया उन्होंने। इन १० सालो में क्या क्या किया और कैसा था वो टाइम। सब कुछ बताया एक दूसरे को।
" तुम खुद को इतना कम क्यों समझती हो, तुम कुछ ज्यादा नहीं सोचती.."
"ज्यादा इसीलिए सोचती हूं क्यों की लोग सोचने को मजबूर कर देते हैं कि दूसरा इंसान तुमसे बेहतर है.. हम उसको पहले चांस देंगे उनसे ना हो पाया तो आपको देंगे है.. कह के नहीं तो बर्ताव से बता देते है। थक जाती हूं मैं हर बार खुद को साबित करते करते। क्यों इतना मायने रखता है कि मैं क्या पहनती हूं? कैसे दिखती हूं?"
कह के रितिका फूट फूट के रोने लगी.. सालो की भड़ास निकली थी उस दिन.. स्कूल, कॉलेज और जॉब.. हर जगह लुक्स के वजह से जज होते होते थक गई थी वो। कोई मिला भी नहीं था जिससे इतनी खुल की बात की थी। रोहन ने भी उसको रोने दिया। फिर बिना कुछ बोले बात किए घर पहुंचा दिया.. "कल भी इंतजार करना मेरा..कहीं चलेंगे फिर से।" रोहन बोल के चला गया।
फिर तो बाकी के ३ दिन कब बीत गए पता ही नहीं चला। पार्क वाली बात का किसी ने नहीं फिर ज़िक्र नहीं किया जैसे वी कभी हुई ही ना हो। दोनो ने साथ में अपनी मम्मी लोगों को भी घुमाया, मार्केटिंग की। फिर वो दिन भी आ गया जब रोहन को जाना था। सबसे विदा लेके वो चला गया। पर रितिका को बदल गया था। खुश रहने लगी थी वो। खुद को प्यार करना सीखने लगी थी वो। ये सब रोहन के वजह से हुआ था।
रोहन के जाने के बाद से हर दिन तो नहीं पर कभी कभी दोनो में बात हो ही जाती थी। रितिका अपने सिर्फ इतने से ही रिश्ते से खुश थी। उसको पता था उससे आगे वो नहीं बड़ सकती है, चाहते हुए भी नहीं।
कुछ महीनों बाद रितिका के ऑफिस में दिल्ली से लोग आने वाले थे। कुछ टाइम पहले भी आए थे पर रितिका ने उतना ध्यान नहीं दिया था। इस बार कुछ जिम्मेदारी रितिका को भी मिली थी तो वो खुश थी। ख़ैर वो दिन आ ही गया। कुछ लोग साथ ही ऑफिस में आए। रितिका ने देखा रोहन भी था उनमें। वो रितिका को देख के मुस्करा रहा था पर रितिका चौकी हुईं थीं.. ये क्यों आया है? इसने कभी बताया क्यों नहीं की ये भी इसी फील्ड से है? और ना जाने कितने सवाल थे उसके मन में। पर उसने कुछ नहीं बोला।
सारी मीटिंग्स और जरूरी काम ख़तम होते होते शाम हो गई। इस बीच रितिका ने रोहन से बिल्कुल बात नहीं की।रोहन ने कोशिश भी की पर फिर भी नहीं बात बनी। जैसे ही रितिका ऑफिस से बाहर आई, रोहन की आवाज़ सुन के रुक गई। रोहन पास आया और बोला, "कुछ बात करनी है तुमसे।"
दोनो फिर से उसी पार्क में आए। रितिका के बिना पूछे रोहन ने बताना शुरू किया, " तुम सही समझ रही हो। आखिरी बार भी मैं आया था ऑफिस में। तुम नहीं पहचान पाई थी पर मैंने देखते है तुम्हे पहचान लिया था। सोचा तुमको जाके बताऊं पर तुमको काफी परेशान पाया। २ दिन देखने के बाद लगा की तुम खुश नहीं हो पर वहा की वजह से नहीं खुद की वजह से। सोचा तुम्हारी थोड़ी मदद कर था हूं। तुमको वैसे देख कर बिल्कुल अच्छा नहीं लगा था।"
रितिका बोली, " तुमको क्या फर्क पड़ता है, जैसे थी रहने देते। क्या जरूरत थी ये सब करने की। झूठ में.." कहते कहते रुक गई रितिका।
" झूठ में क्या?? नहीं देख पाया था अपनी बचपन की सबसे अच्छी दोस्त को ऐसे। हमेशा से सोचता था कि बड़े होते ही तुमसे मिलने आता और अपनी दिल की बात बताता। १० साल जिस चीज के लिए इंतज़ार किया वो बोल ही नहीं पाया क्यों की तुम तैयार नहीं थी। जो लड़की खुद से प्यार नहीं कर पाई वो दूसरे से क्या करेगी।"
रितिका बोली, "प्यार?"
रोहन बोला, " हां यही बताना था। यहां से वापस जाने के बाद से एक बार भी नहीं भूल पाया था तुमको। धीरे धीरे एहसास हुए की क्या था वो। सिर्फ अट्रैक्शन या बचपना रहता था तो कब का भूल गया होता तुम्हें। पर नहीं.. इस बार आया हूं तुमको साथ लेने.. चलना चाहती हो क्या मेरे साथ?"
रितिका ने भरे हुए आंखो से हामी भरी.. "हां"

