एक संघर्ष की कहानी

एक संघर्ष की कहानी

3 mins
1.4K


कोई भी संग्रह अमिट नहीं होता और कोई भी ऐसी चीज़ नहीं जिसका संग्रह करना असंभव हो। जब कभी मेरे दादा जी मुझे किस्से सुनाते तो ये पंक्ति ज़रूर दोहरा देते और कहते कि किसी भी संग्रीहित वस्तु पर घमंड तभी करना चाहिए जब वो दूसरों को भी लाभ पहुँचाये और अपना भी सर्वांगीण विकास करे, कुल मिलाकर कह लीजिये नैतिकता का संग्रह। 

उनकी सुनाई एक कहानी मुझे अभी भी ध्यान में है । उन्होंने वो कहानी तब सुनाई थी जब हमारा परिवार खुशहाली से रह रहा था। 

उसमें एक कपड़ा व्यापारी की मेहनत की सुगंध फैली हुई थी । वो जन्म से एक पैर का लंगड़ा और बिन बाप की औलाद था, उसके पिता एक कपड़े की छोटी दुकान पर नौकरी करते थे। 

तभी जब वो दिवाली से दो दिन पहले दुकान से काम करके लौट रहे थे तभी कुछ समाज के कलंको ने उनका वो हाल कर दिया जो घर पर दिवाली की तैयारी में जुटी गर्भवती जोरू सोच भी नहीं सकती थी। शायद उन लुटेरो को पहले से भनक थी कि दिवाली का खर्चा अपने मालिक से पाकर वो इसी रास्ते से गुजरने वाले हैं, और लूट मार तो ठहरा उनका पावन पेशा। उन सबने पहले तो उनसे वो थैली छीननी चाही, विरोध करने पर उन सबको उनको मौत से परिचय करने में कोई हिचक ना हुई। 

रात भर परेशान जब जोरु को ये बात पता चली तो उसकी कमर टूट गयी, बेचारी! एकमात्र सहारा लिए हुए ऐसी हालत में वो बड़ी मुश्किल से जी रही थी कि अब वो भी छिन गया। उसकी आँखों से ज्यादा देर तक आँसू नहीं निकले, उसके पेट में एक जिम्मेदारी पल रही थी जिसे उसको खोना नही था। जैसे तैसे आगे का राशन इकट्ठा करने को वो दिन भर दूसरों के घर काम करती और लकड़ियाँ बीनती और रात में भारी मन से आराम करती। 

बच्चा हुआ और बहुत तेज़ के साथ जन्मा, उसके आते ही उसकी माँ को एक सिलाई कंपनी में काम मिल गया और उसके पालन पोषण का एक सहारा। 

उसकी माँ आभाव से घिरे होने पर भी उसकी परवरिश किसी अन्य बच्चे जैसे करना चाहती थी। उसको बाकी बच्चों की तरह स्कूल भेजती और शाम को समय निकालकर उसे लेने भी जाती, कक्षा की संख्या बढ़ने पर उसने कोचिंग की प्रथा भी अपनाई। 

कुछ सालों में उस बच्चे ने एक छात्रवृत्ति पाकर अपनी माँ के हाथों में पैसे लाकर रख दिये तो माँ का मन आँसुओ से भर गया, उसको पुराने समय की यादें घेरने लगीं। कुछ सालों पहले जब ज़िंदगी में कोई संघर्ष नहीं था तो ऐसे ही उसका पति उसके हाथों पर अपनी तनखाह लाकर रखता था। वो दौर कितना भी गरीबी भरा रहा हो पर था एकदम खूबसूरत। 

आज खाने को रोटी तो है पर साथ बैठ कर खाने वाला पति नही, ना ही उस बच्चे के पास खेलने के लिए पिता। आज रहने को छत तो है पर उस छत के नीचे अपना नहीं। 

मैंने दादा जी से पूछा,"उस बच्चे को कैसा लगता होगा?"

उन्होंने कहा कि ये बात उसने ख़ुद अपने कॉलेज के आखिरी दिन कही। उसने आँसू बहाने के बजाए ज़िंदगी जीने का तरीका बताया, अपना संघर्ष लोगो को ना बताकर उसने अपनी माँ की बात रखी जिसने उसे कह रखा था कि किसी को अपनी कमजोरी, दुविधा या संघर्ष के बारे में नहीं बताना चाहिए बल्कि उसको आगे बढ़ने की सीख देनी चाहिए चाहे ज़िंदगी में कितनी भी कठिनाई आए क्योंकि आँसू बहाने से कुछ बदलता नही मैंने बहाकर देखा जब कुछ ना बदला तो खुद ही आँसू पोंछकर आगे बढ़ गयी यही तुम्हारे पिता को असली श्रद्धांजलि थी। 

उसके लिए पिता का बिछड़ना एक रात जैसा था जो अमावस की तरह एकदम काली और डरावनी थी लेकिन उसकी माँ एक सुबह के कमल जैसी थी जो रात भर खिलकर तैयार होता है और दूसरों को भी सुगंधित करता है। अंत में दादा जी ने पूछा,"अब समझे बीती रात कमल दल फूले का मतलब!" मैं चुप था, दादा जी समझ गए और मुस्कुराकर मेरे सिर पर हाथ फेरने लगे। 


Rate this content
Log in

Similar hindi story from Drama