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हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

Abstract Comedy Classics

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हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

Abstract Comedy Classics

एक रुपया महीना की पगार

एक रुपया महीना की पगार

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आज सुबह-सुबह "बड़े साहब" मिल गए। वो भी पार्क में टहलने आते हैं और हम भी। बस, वहीं मुलाकात हो गई। खुशी के मारे उनके चेहरे से नूर टपक रहा था। दो दिन पहले जब मिले थे तो उनका चेहरा एक पके हुए आम की तरह झुर्रियों वाला और पिलपिला सा लग रहा था लेकिन आज एकदम काश्मीर के सेव के जैसे लाल सुर्ख दमकता हुआ सा था। दो ही दिन में इतना तगड़ा बदलाव कैसे आ गया ? ऐसी कौन सी जादू की "झप्पी" किसी ने उनको दे दी कि उनकी रंगत, चाल ढाल सब बदल गई ? जो बॉलीवुड में "जादू की झप्पी" दिया करता था उसे खुद जादू की झप्पी की जरूरत पड़ी हुई है आजकल। फिर, ऐसा और कौन पैदा हो गया जो जादू की झप्पी से ऐसा तगड़ा बदलाव दो दिनों में लाकर दिखा दे ? हमारा सिर चकराने लगा। 

हमने उन्हें नमस्कार किया। "बड़े साहबों" की आदत होती है कि वे नमस्कार का जवाब नहीं देते हैं। जितना बड़ा साहब होगा वह बाकी लोगों को उतना ही छोटा समझेगा, यह बात हम जानते थे इसलिए हमें कन्फर्म हो गया कि साहब "बहुत बड़े" हैं। 

हम अपनी शंका के मारे मरे जा रहे थे और वे हमारी हालत देखकर मन ही मन मुस्कुरा रहे थे। आखिर हमने पूछ ही लिया।

"साहब जी। छोटा मुंह और बड़ी बात वाली कहावत है इसलिए पूछने की हिम्मत कर रहा हूं वरना तो आपसे पूछने की हिम्मत तो बड़े बड़े मंत्री भी नहीं कर सकते हैं। आपका चेहरा कल परसों तक तो "सड़े केले" की तरह दिख रहा था आज वही चेहरा"कश्मीरी सेव" कैसे बन गया" ? 

वो बहुत जोर से हंसे। कहने लगे 

"कल तक मैं सरकार से बहुत दूर था। मुझे रिटायर हुए कई साल हो गए थे। आप तो जानते ही हैं कि रिटायरमेंट के बाद हमारे बंगलों में "मक्खी" भी भिनभिनाने से इंकार कर देती है, आदमी की तो बात ही क्या है ? हम लोगों को सरकारी नौकरी में "सलामी" लेने की आदत पड़ जाती है। दिन में हमको जब तक सौ दो सौ लोग सलाम नहीं कर लें तब तक तबीयत लगती ही नहीं है कहीं भी। रिटायरमेंट के बाद हम तो सलामी के दर्शनों के भी मोहताज हो गए थे। इसलिए चेहरे की रंगत उतर गई। 

फिर, हमें तो भौंकने की आदत पड़ी हुई है। जब तक दिन में दस बीस बार ऑफिस में किसी अधिकारी या बाबू, चपड़ासी पर भौंक नहीं लें,और किसी कर्मचारी को काट नहीं लें तब तक हमारा भोजन भी हजम नहीं होता है। तो ऐसे में हमें अपच की बीमारी हो गई जिसके परिणामस्वरूप हमारा चेहरा "सड़े केले" जैसा हो गया था।

हमारे घरों में एक अलिखित समझौता किया हुआ है हम पति-पत्नी के बीच। ऑफिस में हम लोग बॉस होते हैं और घर में बीबी। हम ऑफिस में लोगों को डांटते हैं और घर में बीबी हमको डांटती है। इस तरह हमारा हिसाब किताब बराबर हो जाता है। लेकिन सेवानिवृत्ति के पश्चात हमारी डांट डपट तो बंद हो गई लेकिन बीबी की बदस्तूर जारी रही। इससे हमें "ओवरडोज" की बीमारी हो गई और हमारा हाल एक सड़े हुए केले जैसा हो गया था। 

असली बात तो अब तक मैंने बताई ही नहीं है। दरअसल हम लोगों को चार चार सरकरी गाड़ियां रखने की आदत पड़ी हुई थी। एक हमको, एक घरवाली को, एक बच्चों को और एक "गोपनीय कार्यों" के लिए। सेवानिवृत्त होने के बाद एक भी गाड़ी नहीं रही बंगले में। अफसर की पहचान ही घोड़ा गाड़ी से होती है। जब गाड़ी नहीं तो ऐसा लगा कि हम भी अफसर नहीं रहे। सौ बात की एक बात है कि "अफसरी" की सुगंध सबसे ज्यादा नशा देती है। इसका नशा तो सात जन्मों क्या जन्मों जन्मों तक चढ़ा रहता है। सेवानिवृत्त होने के बाद वह नशा काफूर हो गया, यह हम जैसे लोगों के लिए बड़ा दुखदायी था। 

गाड़ी के अलावा हमारा निजी स्टाफ होता है जो हमारे "निजी" काम ही करता है मगर वेतन सरकार ही देती है उनको। अब बिजली पानी, टेलीफोन के बिल जमा करवाने के लिए लाइन में खड़ा रहना पड़ता था। एक दिन हम ऐसे ही लाइन में खड़े थे। आगे एक भिखारी टाइप का दढियल आदमी और पीछे बदबूदार पियक्कड़ सिंह खड़ा था। दुर्गंध के मारे हमारा बुरा हाल था। जी तो कर रहा था कि हम उस लाइन से भाग जाएं लेकिन भागें भी तो कैसे ? घर पर बीबी डंडा लेकर खड़ी रहती है। अगर बिना काम किए घर वापस आ जाएं तो मार मार के "हुक्का बार" बना देती हैं। जब अफसर थे घर का सारा काम "स्टाफ" ही करता था। इसलिए हमें कुछ करना नहीं पड़ता था सिवाय हुकुम सुनाने के। 

वे हमारे एकदम नजदीक आ गये और हमारे कान में अपना मुंह घुसा कर कहने लगे। "असल में तो सबसे बड़ा फैक्टर "गांधी जी" हैं। जब तक हरे और लाल लाल नोटों की गड्डियों के दर्शन नहीं हो जाते तब तक हम अन्न जल ग्रहण नहीं करते थे। अब दर्शन दुर्लभ हो गए थे। भूख प्यास के कारण हमारी हालत सूखे छुआरे जैसी हो गई थी। जिस तरह शराबी शराब के बिना नहीं जी सकता है उसी तरह "सरकारी आदमी" नोटों की लाल हरी गड्डी के बिना नहीं जी सकता है। अब जबसे वापस "कुर्सी" पर बैठे हैं तब से वापस "लाल हरी" दुनिया के दर्शन होने लगे हैं।

वो कुछ और बताते, उससे पहले हम बीच में ही बोल पड़े "ये एक रुपए का चक्कर क्या है" ? 

यह बात सुनकर वे बड़ी देर तक हंसते रहे। हंसते हंसते लोटपोट हो गए। पेट पकड़कर हंसने लगे। फिर बोले "नौटंकियों" का देश है यह। यहां पर जो जितना बड़ा त्याग करता है वह उतना ही पूजनीय बन जाता है ‌‌भगवान राम ने सिंहासन का त्याग कर वन गमन किया तो वे मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम कहलाए। सिद्धार्थ ने घर छोड़ा। बीवी बच्चे छोड़े, राज्य छोड़ा और एक सन्यासी बन गए तो लोगों ने उन्हें "भगवान बुद्ध" बना डाला। एक "कठपुतली" को गद्दी पर बैठाकर कोई "त्याग की देवी" बन गई तो हमने भी "वेतन" का त्याग करके "त्याग का देवता" बनने की कोशिश की है। 

फिर एक रुपए की महिमा बहुत बड़ी है। जितने भी "नेग" होते हैं वे सब एक रुपए से ही किए जाते हैं। यहां तक कि दहेज में एक रुपए और नारियल का ही प्रावधान है। आपको याद होगा जब माननीय उच्चतम न्यायालय ने एक नामी गिरामी वकील के मानहानि मामले में उसे "एक रुपए" के दंड से दंडित किया था और "एक रुपए " की महत्ता प्रतिपादित की थी। तो हम भी इस "एक रुपए" की महिमा से प्रेरित होकर "एक रुपया महीना" पगार लेने पर अड़ गए"। वे मुस्कुराते हुए बोले। 

हमने उनकी हां में हां मिलाते हुए कहा "बिल्कुल सही बात है। ज्यादा तनख्वाह लेते तो लगभग तीस प्रतिशत "कर" देना पड़ता सरकार को और उसके अलावा "सैस" भी देना पड़ता। फिर आपके पास बचता क्या ? अब आप लूटेंगे तो दोनों हाथों से, मगर "टैक्स" कुछ नहीं चुकाना पड़ेगा। वाह ! क्या आइडिया है सर जी" ! 

उन्होंने बात आगे बढ़ाई और कहा "अब हम जब सरकारी दौरों पे जाया करेंगे तो बीवी बच्चों को भी साथ ले जाया करेंगे। इससे एक तो यह होगा कि सबका फ्री में "ट्यूर" हो जाएगा। सर्किट हाउस या तीन सितारा होटलों में एशो-आराम हो जाएगा। कोई न कोई अधिकारी श्रीमती जी की शॉपिंग करवा ही देगा। वहां की लोक कला, गीत संगीत सबका आनंद सरकारी खर्चे पर लेंगे। और क्या चाहिए ? अब क्या सरकार की जान ही ले लें " ? 

उनके जज्बे को, अद्भुत त्याग को, जनसेवा की भावना को हमने दंडवत प्रणाम किया। वे हमें ढेरों आशीर्वाद देकर झूमते हुए सफेद हाथी की तरह विदा हो गए। 


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