एक रिश्ता टूटा हुआ

एक रिश्ता टूटा हुआ

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ओस धुली अलसाई सुबह में विंड चाइम की मधुर घंटीयों की सरगम ने मेरी बोझिल पलकों पर दस्तक दी। कोहरे की भीनी खुशबू से सराबोर होते एक झोंका आया खिड़की खोलकर सूरज की पहली रश्मि के संग, हौले से टकोर दी कुछ कड़वी यादों भरी ढ़ेर सारी सुबह की, ओर में चली गई अतीत की डगर पर चलते एक टूटे रिश्ते के सफ़र पर।

कितने साल बीत गए पर ये स्मृतियों के गाह में पड़ी ये यादें अक्सर रुला जाती है, शादी की शुरुआत में मेरी आदत से अनजान देव सुबह 6 बजते ही खोल देता था पर्दे ओर खिड़कीयाँ, ओम जय जगदीश हरे की आरती गुनगुनाते विद कॉफ़ी और एक हल्की सी चुम्मी मेरे भाल पर चिपकाते जगाता, "जागो मेरी महारानी साहिबा" मुझे प्यार से कंकु बुलाता था क्योंकि में गोरी हूँ तो मेरे गाल हमेशा गुलाबी दिखते है, कितना प्यार था दोनों के बीच बस थोड़ी अन्डरस्टैंडिंग भी होती दोनों के बीच।

देव से रोज़ सुबह मेरा झगड़ा हो जाता था हाँ उसका प्यार मुझे भाता था पर सुबह की नींद के आगे हर चीज़ बेमतलब की लगती थी मुझे.! 

सच में नहीं उठती थी मैं तकिये के नीचे मुँह छुपाकर वापस सो जाती थी ओर देव रोज़ जल्दी उठने के फायदे पर लंबा-चौड़ा लेक्चर झाड़ देता था,

विपरीत स्वभाव के दो लोगों के तार जब जुड़ जाते है तब साथ में ज़िंदगी काटना दूभर हो जाता है, शादी की शुरुआत में बड़ा प्यार भरा संसार था हमारा नोंक-झोंक के पीछे भी हम दोनों का एक दूसरे के प्रति प्यार छलकता था, 

हाँ मैं ज़िद्दी थी मेरी बात को मनवा कर ही दम लेती थी एंड यस मेरे स्टेटस के हिसाब से चलती हूँ "nobody can hurt me, without my permission" 

मैं पढ़ी लिखी अपनी मर्जी की मालिक मेरी लाइफ मुझे कैसे जीनी होगी ये मैं तय करूंगी, ना नहीं हक दिया मैंने किसी को मेरी ज़िंदगी के मायने बदलने का, तो देव ऐसा कैसे कर सकता था मेरे साथ।

एक दिन एक रिश्तेदार की शादी में संगीत के फंक्शन से रात दो बजे लौटे थे ओर सोते-सोते 3 बज गए इतनी थकान थी की बदन टूट रहा था तो मन बना लिया की कल आराम से उठूँगी वैसे भी रविवार था तो, पर देव जिसका नाम रोज़ की तरह आदतन आरती गुनगुनाते पर्दे ओर खिड़कीयाँ खोलने लगा आज मेरी सब्र का बाँध टूट ही गया मैं ज़ोर से चिल्लाई, देव तुम इंसान हो की हैवान जरा सोचो तो सही कितने बजे सोएँ हम और थकान भी इतनी है कुछ तो समझो बोल कर मैंने तकिया उसके मुँह पर दे मारा। देव ने वही तकिया मेरे मुँह पर दे मारा ये कहते हुए की "तुम कभी नहीं सुधरोगी फूहड़ और आलसी की आलसी ही रहोगी किसके घर में औरते इतनी देर तक सोती है, I hate u मरो जो करना है करो।" मेरा भी दिमाग हिल गया हाँ मैं देर से जरूर उठती हूँ पर घर का हर काम बखूबी निभाती हूँ खुद भी up to date रहती हूँ ओर घर को भी साफ़ सुथरा रखती हूँ किस बिनाह पर देव मुझे फूहड़ बोल सकता है। बस घमासान हो गया हमारे बीच, एक दूसरे पर इल्ज़ाम लगाते रहे। मैंने बोला "आज तक तुमने मुझे तानों के सिवाय दिया ही क्या है कितना भी करूँ हर बात में नुक्स निकालना तुम्हारी आदत बन गई है", देव बोला "आख़िर तुम क्या चाहती हो एशो आराम सुख सुविधा की तमाम चीज़ें सब कुछ तो है? 

किसी चीज़ की कमी है तुम्हें, जो बोलती हो लाकर रख देता हूँ तुम्हारे कदमों में फिर भी दिन उगे का उत्साह नहीं है। साँझ ढले की चाह नहीं, एक जल्दी उठने पर कितने नाटक करती हो।"

हम दोनों पूरा दिन झगड़ते रहे मेरी छोटी सी गुड़िया सिया रूआँसी सी एक कोने में खड़ी अपने मम्मी पापा को झगड़ते देख दुबक कर बैठ गई थी, देव का गुस्सा ओर मेरा अहं टकरा गया था कोई हार मानने को तैयार ही नहीं था दो दिन तक चला झगड़ा कोई समाधान नहीं दिख रहा था तो मैं सिया को लेकर पापा के घर चली आई। मम्मी-पापा को शॉक लगा, ओर भैया भाभी को भी सदमा लगा सबने मिलकर बहुत समझाया पर मुझे देव की ज़िद के आगे घुटने टेकना हरगिज़ मंज़ूर नहीं था।

मम्मा-पापा ने सोचा दो चार दिन में गुस्सा शांत हो जाएगा तो सब ठीक हो जाएगा पर एक वीक के बाद भी ना मैंने घर जाने का नाम लिया ना देव की कोई ख़बर आई तो पापा ने सामने से देव को फोन किया और लखनऊ बुलाया की आगे जो भी करना है दोनों आमने-सामने बैठकर तय कर लो, पर देव ने आने से साफ़ मना कर दिया ये कह कर की संध्या खुद घर छोड़कर गई है आना चाहे तो दरवाज़ा खुला है बाकी मैं मनाने नहीं आने वाला, और हाँ उसे बोल दीजिए की यहाँ आकर भी अगर कुछ रुल्स मेरे भी मानकर रहना है तो ही वापस आए वरना.....

थोड़ा बहुत मन बनाया था मेरी सिया की ख़ातिर की अपने इगो को परे रखकर घर चली जाऊँ पर पापा ने जब ये बात बताई तो मेरा दिमाग ओर हट गया ये क्या बात हुई वो होता कौन है अपने मुताबिक जीने के लिए मुझे बोलने वाला, मैंने पापा को साफ़ बोल दिया पापा मुझे देव से डिवोर्स चाहिए। 

मम्मा-पापा सकता गए वापस समझाने बैठ गए प्रशांत भैया ओर भाभी ने इस बार थोड़ा मेरा पक्ष लिया तो मेरा हौसला ओर बढ़ा बस मुझे डिवोर्स चाहिए मतलब चाहिए जैसे कोई खेल को जितने की होड़ लगी हो हम दोनों ही अपने दाँव खेलते अड़ग रहे, अंत में ज़िद और अहं की लड़ाई में नासमझी जीत गई नतीजन एक सुंदर रिश्ते का अग्नि संस्कार हो गया। पर जब पति-पत्नी का रिश्ता टूटता है तो साथ में कई रिश्ते टूटते है पर ये सब सोचने के मूड में कहाँ थी मैं बस अपनी जीत पर इतरा रही थी बिना भविष्य के बारे में सोचे। 

पापा को पैसों की कमी नहीं थी आराम से मैं ओर सिया रह रहे थे, पर सिया की उदासी मानो अंदर ही अंदर उसे खाए जा रही थी वो कई बार देव को याद करके रोने लगती ओर घर जाने की ज़िद करती पर समझा बुझा कर ओर कुछ ना कुछ लालच ओर रिश्वत देकर मना लेती थी, ये कभी नहीं सोचा की एक पनप रहे पौधे सी बच्ची को माँ के दुलार के साथ बाप का सानिध्य और साया भी चाहिए। कुछ दिन तो मेरे आराम से कटे पर अब ज़िंदगी मानो बेमायने सी लगती थी सच कहूँ तो अपना घर अपना होता है। कुछ दिन मम्मी-पापा भैया-भाभी सबने बहुत अच्छे से रखा पर धीरे-धीरे जैसे मैं ओर सिया सबको खटक रहे हो एसा महसूस हो रहा था, दुनिया विरान ओर बेरंग होने लगी थी पहले कुछ दिन तो पुरानी सहेलियाँ किटी पार्टीस ओर मौज मजे में काट लिए पर सबको अपनी-अपनी लाइफ में सेटल ओर खुश देखकर जलन होने लगती थी, खुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी जो मार ली थी क्या करूँ क्या नहीं की असमंजस में थी, की एक दिन पापा को हार्ट अटेक आया और वो हमें छोड़कर चले गए, अब तो मम्मी भी उदास रहने लगी वो अपने धर्म ध्यान ओर सत्संग में अपनी खुशी ढूँढने लगी, भैया अपने बिजनेस में व्यस्त थे और भाभी को तो मानो मैं अब बोझ ही लगने लगी थी। 


मेरे सामने पहाड़ सी ज़िंदगी अपने संघर्षों का पिटारा खोले खड़ी थी सिया के भविष्य की चिंता भी खाए जा रही थी पापा के पास पूरे हक से पैसे मांग लेती थी पर अब भैया के सामने हाथ फैलाना कुछ अजीब ही लगता था उनकी अपनी भी लाईफ थी। एक बार ख़याल आया देव के साथ समझौता करके वापस चली जाऊँ एक फ्रेंड के ज़रिए फोन करवाया तो मालूम पड़ा देव ने दूसरी शादी कर ली थी, मेरे दिल को धक्का लगा मैं टूट गई एक तरफ़ सिया अंदर ही अंदर घुटकर बीमार रहने लगी कितने डाॅक्टर को दिखाया ठीक ही नहीं हो रही थी, एक बार मेरा भी मन किया कोई मिल जाए तो मैं भी दूसरी शादी कर लूँ पर सिया का ख़याल आ जाता क्या कोई दूसरा इंसान सिया को सगे बाप का प्यार दे पाएगा? पर हाँ अब वक्त आ गया है अपनी ज़िंदगी को एक मोड़ देने का एक ठोस निर्णय पर पहुँचने से पहले दोराहे पर खड़ी मुझे चुनना था कोई एक रास्ता पहले तो मुझे तय करना था की मैं खुद क्या चाहती हूँ दूसरी शादी करके किसी की so called बीवी कहलाना या अपने बल बूते पर अपनी खुशी के लिए अपने तरीके से ज़िंदगी जीना, बहुत मंथन के बाद एक ठोस निर्णय करने के बाद भैया-भाभी से बात की, की मैं कोई नौकरी करना चाहती हूँ MBA तक पढ़ी लिखी थी आज तक जरूरत ही नहीं पड़ी तो कभी नौकरी करने के बारे में सोचा नहीं था पर अब ज़िंदगी को मायने देना चाहती हूँ.!

भैया-भाभी झट से मान गए मानो वो यही चाहते थे की मैं अब अपना इंतज़ाम खुद करूँ, भैया ने कुछ कंपनियों के नं दिए ओर कहा की अपना रेज़्यूम सबमिट कर दो ओर देखो जहाँ से अच्छा ऑफ़र मिले वहाँ कर लो जाॅब, कुछ ही दिनों में बहुत सारी कंपनी से इंटरव्यू के लिए बुलाया ओर एक अच्छी ऑफ़र वाली कंपनी से अपोइन्टमेन्ट लेटर भी आ गया, आज खुद पर प्राउड फ़ील हो रहा था ज़िंदगी जीने का कुछ उत्साह जगा था। 

लग रहा था अब सब ठीक हो जाएगा बहुत ही मेहनत ओर लगन से काम करने लगी एक साल हुआ तो दूसरी अच्छी सैलेरी वाली कंपनी में जम्प लगा लिया और ऐसा करते पाँच साल में तो मुंबई आकर वर्ल्ड की नंबर वन कंपनी की सीईओ बनकर बैठ गई और मुंबई में ही टू बी एच के वाला एक फ्लैट लेकर मेरी बच्ची सिया के साथ शिफ्ट हो गई। पर सच कहूँ किसी अपने की कमी हर मोड़ पर खटक रही, "ज़िंदगी नहीं सिर्फ़ वक्त कट रहा था" ऐसा नहीं की कोई मिला नहीं बहुत आए अकेली ओर तलाक शुदा देखकर किसीको मेरी जवानी में दिलचस्पी थी तो कोई ये सोचकर नज़दीक आता की अच्छा खासा कमा रही है ये मिल गई तो लाईफ में एश ही एश है।

पर अब मैं बुद्धु वाली संध्या नहीं थी दुनियादारी सीख ली थी इंसान के चेहरे की शिकन से इरादों को पहचानने का हुनर बखूबी सीख गई थी, और बस एक जुनून सवार था की खुद को स्थापित करना है कुछ बनकर दिखाना है, रात के बाद दिन ओर दिन के बाद रात राजधानी एक्सप्रेस की गति से दौड़ रहे थे।

बहुत बार कई लोग बोलते की संध्या जी शादी कर लीजिए पर अब सिया जवान होने लगी थी बेटी की शादी के दिन नज़दीक आ रहे थे ऐसे में खुद के लिए कहाँ दूल्हा तलाशती.! 

सिया को मैंने बोल ही दिया था अगर किसीको चाहती हो तो उसके साथ ही शादी करना कम से कम दोनों एक दूसरे को समझ तो सकोगे, और सिया ने सच में एक दिन सिद्धार्थ से मिलवाया, "मम्मा ये सिद्धार्थ है हम दोनों काॅलेज के पहले साल से एक दूसरे को जानते है आज पाँच साल हो गए हम दोनों एक दूसरे से बहुत प्यार करते हैं, आपका आशीर्वाद हो तो मैं सिद्धार्थ से शादी करना चाहती हूँ।"

मैं बहुत खुश हुई सिद्धार्थ बहुत ही सुलझा हुआ ओर काबिल लड़का था पर मैंने तय किया था मेरी बेटी को पहले अपने पैरों पर खड़ी रहना सिखाऊँगी ताकि किसी भी परिस्थिति में उसे किसी का मोहताज ना होना पड़े इसलिये दोनों के आगे एक शर्त रखी की जब तक सिया जाॅब करके कम से कम महीने के पच्चीस तीस हज़ार कमाती नहीं तब तक शादी नहीं होगी, सिया ने वो करके दिखाया फिर दोनों की धूम-धाम से शादी कर दी ओर ज़िम्मेदारी से मुक्त हो गई।

पर सही में अब कसौटी शुरू हुई सिद्धार्थ ने बहुत बोला "मोम आप अकेले नहीं रहेंगे हमारे साथ आकर रहिए आप सिर्फ़ सिया की नहीं मेरी भी माँ हो, 

पर "हर रिश्ते की बारीकियों को इतना करीब से जान चुकी थी समझ चुकी थी तो ताउम्र अकेले ही रहने का प्रण ले लिया था" आज ज़िंदगी के आख़री पड़ाव पर ये महसूस होता है ओर समझ में आ रहा है की अहं ओर ज़िद के टकराव से इंसान कहाँ से कहाँ पहुँच जाता है।

क्यूँ देव अपना अहं ओर झक्कीपन नहीं छोड़ पाया, क्यूँ मैं सुबह एक जल्दी उठने जितनी बात को लेकर समझौता नहीं कर पायी, एक छोटी सी बात ने मुझे अपनों से ओर अपने घर से पूरी ज़िंदगी वंचित ओर अकेला रखा, "एक अपने की एक अपने घर की कमी दुनिया की कितनी भी दौलत से आप नहीं ख़रीद सकते" ज़िद्द और अहं का सैलाब सिर्फ़ आपको एकांत और दर्द की गर्ता में धकेलता है, और आपकी ज़िंदगी की सारी ख़ुशियाँ अपने साथ बहा ले जाता है, काश की ये बात वक्त रहते समझ लेती,अब पछताना क्या जब चिड़िया चुग गई खेत।।



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