Shelly Gupta

Drama

2.5  

Shelly Gupta

Drama

एक नटखट सी लड़की

एक नटखट सी लड़की

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मैं प्रिया, उम्र बत्तीस साल। पेशे से एक टीचर हूं। अपने बचपन से कहानी शुरू करती हूं, बताती हूं मैं कैसी थी ,कौन हूं मेरा जन्म एक भरे पूरे परिवार में हुआ। तीन भाई बहनों में बीच का नंबर था मेरा, बड़ी बहन और छोटा भाई। मेरे मां बाबूजी बहुत प्यार करने वाले हैं और भाई बहन के साथ वैसा ही रिश्ता था जैसा सब का होता है। कुछ नटखट सा कुछ प्यार भरा। साथ लड़ते भी थे, साथ शैतानियां भी और साथ पढ़ाई भी। 


पैसा बहुत खुला नहीं था तो कभी कम भी नहीं रहा। क्योंकि बाबूजी एक गवर्मेंट टीचर थे( अब रिटायर हो गए हैं) तो आमदनी अच्छी तो थी लेकिन तीन बच्चों को अच्छा पढ़ाने लिखाने और थोड़ा सा बचाने की कोशिश करने में बस पूरी सी रहती थी। लेकिन प्यार बहुत खुला था और संस्कार भी पूरे। माना हम तीनों बहुत शैतान थे लेकिन मारते नहीं थे एक दूसरे को और ना ही किसी बड़े को ,चाहे वो पड़ोस का भी हो, को उल्टा जवाब देने की इजाजत थी। विश्वास था हम सब के बीच। और जहां ये सब हो तो घर स्वर्ग हो जाता है, ऐसा ही मेरा घर था।


मेरी दीदी सरल स्वभाव की और मितभाषी थी। अपने काम निपटाकर माँ की मदद करना और थोड़ा टीवी देखना, बस यही शौक थे उसके। भाई को क्रिकेट का शौक था। उसका साथ देती थी मैं। और जब साथ नहीं दे रही होती थी तब अपना काम निपटाकर या तो आंगन में फूलों और पेड़ों से बातें करती थी या फिर घर में किसी को परेशान करने के तरीके ढूंढ़ती थी। किताबों में गुम अपनी बहन को डराने और भाई को सताना मेरा मनपसंद शगल था। लेकिन इतना भी किसी को तंग नहीं करती थी कि सब मुझ से तंग आ जाएं, बस सब का दिल लगाए रखती थी। और अगर ऐसे में बारिश आ जाए तो मेरे मन के मोर को पंख लग जाते थे। हॉकी हॉकी बूंदाबांदी में घंटों घूमना मेरी आत्मा तक को तृप्त कर देता था।


हम सब यूं ही हँसते खेलते बड़े हो गए। दीदी भी टीचर बन गई और मैं भी, हमारे आदर्श हमारे बाबूजी जो थे। लेकिन उसके साथ ही हम बहने घर भी अच्छे से संभाल लेती थी क्योंकि हमारे लिए आदर्श हमारी माँ भी थी। कैसे वो इतनी कम तनख्वाह में घर चलाती थी, मुझे कभी समझ नहीं आया और वो भी ऐसे तरीके से की घर खुशियों से भरा रहे। 


भाई छोटा ही था अभी, पढ़ रहा था कि बड़ी बहन के लिए अच्छा सा रिश्ता आ गया। बाबू जी ने खूब छान फटक कर माँ की और दीदी की रजामंदी से रिश्ता पक्का कर दिया। जीजाजी बहुत अच्छे लगे मुझे। हँसी खुशी मेरी बहन विदा हुई। ससुराल भी अच्छा मिला था। वहां जाकर फिर से नौकरी कर ली थी उसने। एक बेटी भी हो गई थी ।


फिर बाबूजी ने मेरे लिए भी एक अच्छा सा रिश्ता देखा और मेरी शादी कर दी।मेरा भाई भी मेरी शादी तुरंत बाद आगे की पढ़ाई करने बाहर चला गया। मेरी ससुराल भी अच्छी ही थी। एक बड़ी शादीशुदा ननद थी और मेरे सास ससुर । मेरे ससुर को बागवानी का शौक था और अपने शौक से फारिग होकर वो लाइब्रेरी चले जाते थे। मेरी सास पूजा पाठ की शौकीन, घर में रहती तो पूजा पाठ करती रहतीं या फिर कीर्तन में। पति सुबह ऑफिस चले जाते थे और रात को ही आते थे और कम ही बात करना चाहते थे।


कुल मिला कर एक अच्छा ससुराल था लेकिन मेरे साथ कोई बोलने वाला नहीं था । अक्सर ऐसा लगता था मुझे की में अकेली हूं। उन दिनों फोन भी नहीं होते थे कि मायके में किसी से बात कर लूं। बस यूं ही दिन भर अकेली सी रहती , मैं अंदर से मरने सी लगी थी।


तभी पता चला कि मैं माँ बनने वाली हूं। ऐसे लगा कि किसी ने जान सी फूंक दी मेरे अंदर। ससुराल में सब ख्याल तो रखते थे लेकिन बात कम ही करते थे। स्वभाव होता है ना सबका अलग, अलग। बड़ा मुश्किल होता है इसे बदलना। ना वो लोग बदल पाते थे और ना ही मैं।


मुझे एक प्यारा सा बेटा हुआ। मैंने बड़े चावसे उसका नाम रखा सलिल। सब बहुत खुश थे। ससुराल वाले भी और मायके वाले भी। सलिल के नामकरण में सब आए थे, मेरी बहन और भाई भी। भाई अब नौकरी करने लगा था और माँ और बाबूजी को अपने साथ ही ले गया था।


मुझे मेरी बहन ने पूछा - अब भी उतनी ही शैतान है क्या तू , फूलों और बारिश से बातें करने वाली। मैं फीके से हंस दी, ना दीदी अब बड़ी जो हो गई हूं। मेरी ननद तो बोली , अरे ये कहां ऐसी है। ये तो कम ही बोलती है । तब दीदी उन्हें मेरे बचपन के किस्से सुनाने लगी। तो मेरी ननद बोली कि लगता ही नहीं तुम कभी ऐसी थी। मैं क्या बोलती, बस चुप रह गई और फिर से फीके से हंस दी।


देखते देखते मेरा बेटा दो साल का हो गया। वो शक्ल औरत में बिल्कुल अपने पापा पर गया था लेकिन बोलना उसने शायद मुझ से लिया था। सारा दिन पटर पटर बोलता था। उसकी बातों ने जैसे मेरे मरे से मन को नया जीवन दे दिया था। 


मैं भी बहुत बोलने लग गई थी वापिस। और मेरी शैतानी भी वापिस आ गई। अब शायद ही कोई दिन ऐसा बीतता हो जब मैं अपने पति या सास ससुर में से किसी को परेशान बा करती हों। पापाजी यानी मेरे ससुरजी को दरवाज़े के पीछे छुप कर भों कर के डराना, मेरी और सलिल की बेस्ट हॉबी थी।मेरी हरकतों पर सब बस हँसकर रह जाते थे और पापाजी मेरे सिर पर प्यार से हाथ फेर देते थे।


फिर आया बारिश का मौसम। मेरे अंदर बड़े सालों बाद मोर फिर बोला। मैं और मेरा बेटा , हम दोनों मिल कर बारिश में खूब नहाए। इतवार का दिन था सो सब घर पर ही थे। उस दिन अचानक एक नई सी बात हुई। मेरे पति भी हमारे साथ बारिश में नहाने आ गए। मैं बहुत हैरान हुई। 


 पूछने पर उन्होंने बोला की कब सलिल के होने पर तुम दोनों दीदी के साथ बातें कर रही थी और दीदी तुम्हारे बचपन के किस्से बता रही थी तो मैं दरवाजे के बाहर ही खड़ा था। जितना मज़ा तुम्हारा बचपन सुनकर आया उतना ही दुख ये सोचकर हुए कि शायद मैंने तुम्हे पिंजरे में कैद कर दिया। बहुत सोचा कि तुम्हे इस कैद से बाहर कैसे निकालूँ लेकिन कोई तरीका समझ नहीं आया और मैं बस सोचता ही रह गया।


फिर देखा सलिल के साथ तुम धीरे धीरे उस कैद से बाहर आ रही हो अच्छा लगता था मुझे। और आज मुझे महसूस हुआ कि तुमने वो पिंजरा पूरी तरह से तोड़ दिया है। तो इस जश्न को मनाने मैं भी बारिश में चला आया।


ऐसा लगा कि मेरी ज़िन्दगी में इन्द्रधनुष छा गया ।



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