Kameshwari Karri

Classics

3.9  

Kameshwari Karri

Classics

एक माँ की इच्छा जो पूरी हो न सकी

एक माँ की इच्छा जो पूरी हो न सकी

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जानकी पाँच बजे ही उठ गई। बाहर आकर घर के सामने रंगोली डालने लगी। उनके घर का रिवाज है कि रोज सबेरे घर के मुख्य दरवाज़े के सामने काम करने वाली बाई पानी छिड़क कर जाते ही रंगोली बनाना है। यह रंगोली रोज जानकी ही बनाती है। संक्रांति के त्योहार के समय वह पूरे गाँव में सबसे बड़ी रंगोली बनाती है। माँ पुकारती है जानकी नाश्ता बनाने के लिए मदद करने के लिए आ जा। पूरे गाँव में जानकी के दो ही दोस्त हैं एक पिछवाड़े में चंपा के फूलों का पेड़ और उसकी पक्की सहेली गौरी। अभी छह महीने पहले गौरी का ब्याह हो गया और वह शहर में रहती है। इसलिए अब उसका समय चंपा के पेड़ के नीचे ही बीतता था।  

माँ ने पीछे से आकर एक चपत लगाई। जानकी झट से उठकर रसोई में जाती है। काम ख़त्म करके चंपा के पेड़ के नीचे बैठकर फूलों की माला बनाती रहती है। और उससे बातें करती रहती है। अपने सुख दुख मन की सारी बातें उस पेड़ को ही बताती है,तभी माँ ने कहा जानकी गौरी आई है। उसकी माँ बता रही थी एक महीने रहेगी अभी उसका तीसरा महीना चल रहा है। जानकी बहुत खुश होती है सोचती ऐसे लगता है जैसे हम इस पेड़ के नीचे अभी अभी तो खेल रहे हैं,ढेर सारी बातें कर रहे हैं। वह भागकर गौरी के घर जाती है। गौरी बिलकुल बदल गई है। शहर के लोगों के समान तैयार हुई है। जानकी की तो उस पर से नज़रें ही नहीं हट रहीं थीं। गौरी ने बताया उसका पति बहुत बड़ा ऑफ़िसर है घर कार नौकर चाकर सब हैं। जानकी भी शहर के ही सपने देखने लगी। उसे लगा उसकी शादी भी शहर में काम करने वाले युवक से हो तो अच्छा है पर एक भले घर की लड़की मुँह खोलकर किसी को नहीं बता सकती। इसलिए वह चुप ही रही पर गौरी से शहर की ढेर सारी बातें सुनती थी।  

जानकी की क़िस्मत थी या भगवान की कृपा थी कि जानकी की शादी एक शहर में रेवेन्यू डिपार्टमेंट में काम करने वाले युवक से तय हो गई। जानकी खुश थी कि उसका शहर जाने का सपना पूरा होने वाला है। शादी हो गई और जब पूरे गाँव वाले बातचीत कर रहे थे तब जानकी ने किसी को कहते हुए सुना कि जानकी के पैर उस घर में पड़ते ही देखो विजय का प्रमोशन हुआ और उसका तबादला अपने गाँव में ही हो गया। पिताजी ने कहा वाह क्या बात है। राघवजी आपका घर ख़ाली हुआ है न जानकी और विजय वहीं आकर रहने लगेंगे। जानकी कुछ नहीं बोल सकी और सास ससुर दो ननदों के साथ उसका नया जीवन शुरू हुआ। ननंदों की शादियाँ उसके खुद के बच्चों की परवरिश सास ससुर की सेवा करते -करते उसे समय का पता ही नहीं चलता था। सास -ससुर के स्वर्गवास के बाद जब उसके खुद के बच्चे भी बड़े हुए और साथ ही वह उम्र के पचासवें पड़ाव पर पहुँच गई। एक रात यूँ ही बातें करते हुए उसने अपने शहर में रहने की इच्छा जताई तो विजय ने कहा इतनी सी बात तुमने पहले क्यों नहीं बताई ?

कोई बात नहीं कल ही हम शहर चलते हैं। तुम भी शहर देख लेना पसंद आया तो वहीं शिफ़्ट हो जाएँगे। जानकी बहुत खुश हुई। उसे ख़ुशी से रात भर नींद नहीं आई। सुबह तड़के उठी नहा धोकर नाश्ता बनाकर पति को उठाने गई तो विजय कभी न उठने वाले नींद में चला गया था। बच्चे बड़े हुए शहर में ही नौकरियाँ करने लगे। जानकी ने अपने दिल से शहर जाने वाली बात को हटा दिया था। बच्चे सोचते थे कि माँ को गाँव में रहना ही पसंद है। वह शहर पसंद नहीं करती है। इसलिए माँ को नहीं बुलाते थे। खुद ही आकर तीज त्योहार में रहकर चले जाते थे। जानकी ने अपने ससुराल में भी चंपा के फूलों का पेड़ लगाया था और अभी भी वह उससे ही बातें करती थी। उसका बहुत सारा समय उस पेड़ के नीचे ही गुजरता था। एक दिन उसका छोटा बेटा रंजीत आया और उसने कहा माँ मैंने एक सप्ताह की छुट्टी ली है बताना तुम्हें कहीं तीर्थ यात्रा पर जाना है तो ले जाऊँगा। माँ ने कहा नहीं बेटा मेरी ऐसी कोई ख्वाहिश नहीं है। रंजीत ने कहा ठीक है अपना बचपन और अपने बारे में बताना। जानकी उसे बताती जा रही थी। उन्हीं बातों में उसने अपने शहर जाने की इच्छा वाली बात भी बता देती है और उसके आँखों से आँसू रंजीत के हाथ पर गिरते हैं। वह कहता है माँ हम तो सोचते थे कि तुम इस गाँव से बाहर नहीं जाना चाहती हो इसलिए हमने कभी भी आपसे पूछा ही नहीं कि चलोगी क्या कहकर माँ वैसे भी मैंने छुट्टी ले रखी है चल कल ही शहर चलते हैं मैं तेरी इच्छा पूरी करता हूँ। दोनों ने रात भर दूसरे दिन की तैयारी की। रंजीत गाड़ी लाने बाहर गया। जानकी अपने चंपा के पेड़ के नीचे बैठकर मन ही मन उससे कहती है जल्दी आ जाऊँगी क्योंकि जानकी को भी विश्वास नहीं हो रहा था कि उसका सपना पूरा हो रहा है। जानकी बैठे बैठे ही गिर जाती है अपने दोस्त के बिना कैसे रहेगा चंपा का पेड़ वह भी गिर जाता है सारे फूल जानकी पर झर जाते हैं। रंजीत आकर माँ को पुकारता है !माँ चल गाड़ी आ गई पर माँ नहीं उठती है। उसके प्राण पखेरू बन उड़ गए थे।  

माँ की इच्छा ! इच्छा बनकर रह गई !


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