एक कप कॉफी : हास्य व्यंग्य
एक कप कॉफी : हास्य व्यंग्य
☕ एक कप कॉफी और चार मीनाएँ ☕
(एक वास्तविक जीवन पर आधारित हास्य-व्यंग्य कथा)
✍️ श्री हरि
📅 27.07.2025
आज सुबह जैसे ही नींद खुली, नजर सीधी "प्रतिलिपि" मैडम की ओर गई।
अब यही हो रहा है हर सुबह — न श्रीमती जी की सूरत याद आती है, न चाय-पानी की सुध।
सारा ध्यान "प्रतिलिपि" ही लिए जा रही है। और श्रीमती जी?
वो इससे खार खाए जा रही हैं।
"ये प्रतिलिपि सौतन न जाने कहां से आ मरी!
जब देखो तब हमारे बीच में घुस आती है! बड़ी मुश्किल से उस छमिया से पीछा छूटा था, अब ये आ गई इश्क की मल्हार गाने!"—
वो झुँझलाकर बड़बड़ाईं।
"उस बेचारी को क्यों कोस रही हो?"
हमने प्रतिलिपि की साइड लेते हुए कहा।
"वो और बेचारी! बहुत लाड आ रहा है आजकल उस पे!"
वो हमें ऐसे घूरते हुए बोलीं जैसे भिंडी का टुकड़ा कढ़ाई में सीधा उछलकर आंख में गिर पड़ा हो।
अब हम श्रीमती जी से उलझने के मूड में नहीं थे।
हमें पता है — भैंस, श्रीमती और बॉस — इनसे उलझने में अपना ही नुकसान है।
इसलिए हमने चुपचाप प्रतिलिपि खोली और देखा —
आज का विषय है:
"एक कप कॉफी"
बाछें खिल गईं!
पर अगले ही पल याद आया कि हम तो न चाय पीते हैं, न कॉफी।
बचपन में अब्बू ने कहा था —
"बेटा! चाय, कॉफी, शराब और शबाब से दूर रहना।"
क़सम से आज तक छुआ तो क्या, उन्हें देखा भी नहीं —
यहाँ तक कि बेगम को भी नज़र उठा कर नहीं देखा।
बेगम ने बहुत प्रयास किए कि एक बार उन्हें देख लें —
पर हम ठहरे वचनबद्ध! जुबां दे दी तो दे दी!
बात यहाँ तक पहुंच गई कि उन्होंने अपनी अम्मी से शिकायत कर दी।
सासू माँ ने तुरंत मोर्चा संभाला:
"अपने फरजंद को कुछ तो इश्क के पेंच लड़ाना सिखा देते!
खुद तो साठ की उम्र में भी ‘पतंगें’ उड़ा रहे हैं — इन्हें कम से कम ‘चरखी’ पकड़ना ही सिखा देते!"
ये कहते हुए उन्होंने हमारे अब्बू के गाल पर चिकोटी काट दी।
अब्बू ने गंभीरता से मेरी ओर देखा और बोले:
"क्यों रे! तू बहू की ओर देखता क्यों नहीं?"
मैं उनके चरणों में बैठ गया —
"बापू! आपने ही तो सौगंध दिलाई थी कि चाय, कॉफी, शराब और शबाब की ओर देखना भी मत।
तो हम तो वचन निभा रहे हैं।"
अब्बू की आँखों में चमक आ गई —
"जीओ मेरे बेटे! काश हर कोई बेटा तेरे जैसा हो!"
फिर उन्होंने सासू माँ की ओर देख कर कहा —
"इसकी कमी मैं तुम्हें देखकर पूरी कर देता हूँ!"
बस, उसके बाद न सासू माँ ने कभी शिकायत की,
न अब्बू ने डांटा।
श्रीमती जी का मुँह सौ सैंटीमीटर छोटा हो गया।
अब बात कॉफी की थी —
पीते तो नहीं, पर देखा तो था!
"ब्याहे नहीं थे, पर बारात में गए थे ना!"
कॉफी पीते श्रीमती जी को देखकर कुछ अनुभूतियाँ संजो ली थीं।
सोचा — कविता लिख ही देते हैं,
कौन चख कर पहचानने वाला है!
बस फिर क्या था —
एक सुंदर सी श्रृंगार और हास्य रस की कविता ठोक दी!
प्रतिलिपि मैडम निहाल हो गईं।
कुछ देर बाद देखा कि टिप्पणी खंड में मीनाओं का महासंग्राम चल रहा है!
मैं चौंका —
क्या हो गया?
तब ध्यान गया अपनी दो पंक्तियों पर:
"वो बोली — कॉफी बहुत गरम है, ज़रा संभल कर पीना।
मैं बोला — तुमसे ज़्यादा गरम नहीं है यह, ओ मेरी मीना!"
हुआ ये कि उस दिन मेरी रचना को चार पाठिकाओं ने पढ़ा —
मीना कुशवाहा, मीना भदौरिया, मीना वैष्णवी, और मीना अरोड़ा।
अब चारों को लगा — ये कविता उनके लिए है!
आपस में भिड़ गईं —
"ये मीना मैं हूँ!"
"नहीं! तुम नहीं, मैं हूँ!"
"तुम तो ठंडी हो, मैं ज़्यादा गरम हूँ!"
"गरम तो मैं हूँ — सर्दी में भी एसी चलवाती हूँ!"
और अंत में, सबने मुझे टैग करते हुए लिखा —
"सर! अब आप ही फैसला कीजिए — हम चारों में सबसे ज़्यादा ‘गरम’ कौन है?"
अब क्या बताऊँ —
शबाब को न देखने की सौगंध खाए हुए हूँ!
और बिना देखे कैसे बताऊँ?
बस, संकट में पत्नी का स्मरण किया —
कहते हैं जब हनुमान जी भी न बचा सकें, तब पत्नी बचा लेती है।
और वही हुआ —
मेरी संकटमोचक पत्नी आ गईं मदद को।
मैंने चारों मीनाओं को लिख दिया —
"मीना तो मेरी श्रीमती जी का नाम है — कविता तो उन्हीं के लिए थी!"
तब जाकर हमारी जान बची।
पर बदले में श्रीमती जी ने फरमान सुना दिया —
"एक कप कॉफी बनाओ, वो भी गरम-गरम!"
😄☕
श्री हरि
27.07.2025
🔔 नोट:
यह रचना पूर्णतः हास्य-व्यंग्य है। इसमें उल्लिखित सभी पात्र कल्पनात्मक हैं।
“मीना जी” कृपया रचनाकार को क्षमा करें — ये सब तो कॉफी की गरमी है! 😄

