Mohanjeet Kukreja

Comedy Drama Others

4.5  

Mohanjeet Kukreja

Comedy Drama Others

एक दोस्त की जान बची…

एक दोस्त की जान बची…

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कॉलेज में हमारी एक तिकड़ी थी - मैं यानि अमित, अमन और मनीष। तीनों के घर एक दूसरे से तक़रीबन २० किलोमीटर की दूरी पर, एक दिल्ली के साउथ में, दूसरा वेस्ट में और मैं ईस्ट में। तीनों बिल्कुल अलग-अलग स्कूलों से निकल कर आए हुए… लेकिन शुरू में एक बार जो कॉलेज में हमारी दोस्ती हुई वो बीस-पच्चीस सालों से अभी तक क़ायम है; हालाँकि अब पिछले बहुत अर्से से सब दिल्ली से बाहर हैं - अपने अपने काम-काज के सिलसिले में, मगर यह दूरी कभी हमारी दोस्ती को कम, या दिलों में कोई दूरी पैदा, नहीं कर पाई!

आते हम सब अलग-अलग थे लेकिन एक बार कॉलेज में पहुँच कर हम तीनों पूरा दिन… हर क्लास में, लाइब्रेरी में, कैंटीन में, हर जगह, यहाँ तक कि टॉयलेट में भी, एक साथ ही होते थे। ज़ाहिर है, कॉलेज बंक करने में भी हम अपनी दोस्ती पूरी निभाते थे!

एक दिन मैं सबसे पहले कॉलेज पहुँच गया, थोड़ी देर बाद मनीष आया, और फिर हम दोनों मिल कर अमन का इंतज़ार करने लगे। उस दिन का टाइम-टेबल देखने पर पता चला कि लंच से पहले वाला जो इकलौता लेक्चर था, वो भी प्रोफ़ेसर शर्मा के न आने की वजह से ख़ाली था…और लंच के बाद का एक और लेक्चर आसानी से छोड़ा जा सकता था, कौन सा कुम्भ का मेला था!

कैंटीन में बैठे न्यूज़ पेपर देखते हुए मनीष अचानक बोला,

"यार अर्चना टॉकीज़ पे जेम्स बॉन्ड की एक नई मूवी लगी है।"

"कौन कर रहा है बॉन्ड का रोल?"

"तेरा फेवरिट, रॉजर मूर... क्या कहता है?"

"आईडिया तो बढ़िया है यार, लेकिन अमन का क्या करें?" मैंने कहा, "कहीं वो अपनी नई ‘सेटिंग’ के साथ तो नहीं घूम रहा आज फिर?"

अमन की एक दूसरे कॉलेज की एक लड़की, नीलिमा, से अभी हाल ही में दोस्ती हुई थी, और जब मौक़ा मिलता, वो घर वालों से छिप कर (और हमें भी बताए बिना!) अपनी नई यामाहा मोटर-साइकिल पर बिठा कर उसको घुमाने निकल जाता था।

"चल फ़ोन करके पूछते हैं साले को, कहाँ मर गया है..." मनीष ने कहा।

तब कोई मोबाइल फ़ोन नहीं होते थे, बाबा आदम के ज़माने के वो लैंडलाइन टेलीफ़ोन (हमारे यहाँ तो अभी वो भी नहीं था; पड़ोस के मल्होत्रा साहब के नंबर को पीo पीo बता कर काम चलता था) जिनको आज कल के बच्चे शायद किसी म्युज़ियम में ही देख पाएँ! उंगली डाल कर चर्र-चर्र करते हुए नंबर घूमाना पड़ता था। उस डायल में ९ और ० इतनी दूर से घूमते हुए आते थे कि पूछिए मत!

"कहाँ से करना है?" मैंने ऐसे ही पूछा।

"ऑफ़िस से कर लेते हैं, इमरजेंसी बता कर..."

"पागल है क्या! बाहर चलते हैं," मैंने कहा "वो क्लर्क गुप्ता हज़ार बातें पूछेगा!"

"चल फिर, उठ।"

"सिक्का है ना?"

मेन गेट पर सिक्योरिटी केबिन के पास ही एक पीo सीo ओo बूथ हुआ करता था, जहाँ से सिक्का डाल कर फ़ोन किया जा सकता था।

"है, लेकिन बात तू ही करेगा..." मनीष ने सरे-आम मुझे फंसाते हुए कहा।

असल में अमन की मम्मी से हम बहुत डरते थे, वो पहले एक स्कूल-टीचर रह चुकी हैं और अब भी घर में सब की क्लास लेती रहती हैं, फिर वो चाहे अमन के पापा हों, ख़ुद अमन, या उसकी छोटी बहन अंशु। ज़ाहिर है, इस क्लास और प्यार भरी डांट-डपट से मैं और मनीष भी कभी बख़्शे नहीं जाते थे...

"चल यार, मैं ही कर लूंगा!" मैंने हिम्मत दिखाई।

गेट पर पहुँच कर मैं टेलीफ़ोन बूथ में दाख़िल हुआ... मनीष भी मेरे साथ ही बूथ में घुस कर खड़ा हो गया। उसको सब की गाड़ियों और फ़ोन के नंबर हमेशा ज़बानी याद रहते थे... ग़ज़ब की यादाश्त थी पट्ठे की! 

मैंने रिसीवर उठा कर देखा, डायल-टोन मौजूद थी, "चल सिक्का निकाल और नंबर बोल।"

उस ने जेब से एक सिक्का निकाल कर मेरे हवाले किया और नंबर बोलने लगा... वह एक-एक अंक बोलता था और मैं डायल करता जाता था... आख़िर दूसरी तरफ़ फ़ोन की घंटी बजी।

"क्या हुआ?" मनीष ने पूछा।

"बेल्ल जा रही है..." मैंने जवाब दिया।

एक-डेढ़ मिनट के बाद वहाँ से किसी के फ़ोन उठाते ही मैंने सिक्का खट्ट की आवाज़ से मशीन में डाल दिया...

"हैल्लो..." अमन की मम्मी की ही आवाज़ थ।।

"नमस्ते आंटी" मैंने अपनी आवाज़ में मिठास घोलते हुए कहा…

"कौन?"

"मैं हूँ आंटी, अमित... कैसी हैं आप?"

"अच्छा अमित! कैसा है रे तू?"

"सब ठीक है आंटी, आप सुनाइए..."

"मैं भी ठीक हूँ बेटा। आज कैसे याद किया आंटी को?"

"बस आंटी... ऐसे ही..."

"चल बोल"

"आंटी, अमन है क्या?"

"अरे, वो तो सुबह ही निकल गया था... कॉलेज के लिए!"

"अच्छा?" मैंने हैरान होकर पूछा, और मनीष की तरफ़ देख कर आँख मारी!

"हाँ, क्यों? वह कॉलेज नहीं पहुँचा क्या?"

अगर मैं सच बता देता कि अब मुझे पता है वह कमीना कहाँ है तो अमन की तो उस दिन शामत पक्की थी। मैंने कुछ सोच कर कहा, "पता नहीं आंटी! मुझे लगा शायद घर पर हो..."

"तू कहाँ है, अमित?" जासूसी खोज-बीन शुरू हो चुकी थी।

"वो… आंटी, असल में मैं आज घर में ही हूँ, तबियत थोड़ी ख़राब है।" मैंने कुछ सोच कर तुरंत बात बनाई...

"ओह!" आंटी की ठंडी सांस मुझे रिसीवर में से भी सुनाई दी, "चल अपना ख़्याल रख, मौसम बदल रहा है आजकल!"


हम दोनों बूथ से बाहर निकले और हंसते-हंसते फिर से कैंटीन की तरफ़ चल दिए!!


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