Rishabh kumar

Abstract

5.0  

Rishabh kumar

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एक दिन

एक दिन

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एक दिन घूमा दूंगा घड़ी की सुई को एंटी-क्लॉकवाइज़ और जाऊंगा वक़्त में वापस और जमीन से उठाकर वो सभी घी-चुपड़ी रोटियाँ फिर से चाय में डुबाकर खाऊंगा, जिन्हें मैंने माँ से आँख बचाकर फेंक दिया था।

एक दिन जाऊँगा जनवरी की सुबह में वापस जहां मैं अपनी बैटिंग करके भाग गया था और कराऊंगा बचे हुए ओवर उस दोस्त को, जो ट्यूशन बंक करके खेलने आया था!

एक दिन चुपके से घुस जाऊँगा मम्मी-पापा वाले कमरे में, जहाँ दिन भर काम करने के बाद मम्मी अपने ही पैर, अपने हाथ से दबा रही होगी, सॉरी बोलूँगा और रात भर उनके पैरों की मालिश करूंगा। और पापा के पर्स में चोरी वाले दस रुपये वापस रखकर देखूंगा कि उसमे क़र्ज़ की कितनी नोटें थी जब मेरे कहने पर उन्होंने मेरे दो-दो ट्यूशन की फीस दी थी!


अपना नया मकान तोड़कर उठाऊंगा वो लाल वाली ईंटें और बनाऊंगा वो पुराना वाला घर जिसका आँगन कच्चा था और हर कमरे में पर्दे थे दरवाज़े नहीं। उस आंगन को खोदूंगा और निकाल दूंगा उन सभी चीटियों को जिन्हें मैंने खेल-खेल में राम नाम सत्य गाते हुए मिट्टी में दबा दिया। उस चिड़िया का घोंसला भी रख दूंगा अपने नीम पर जिसे मैंने खुद को अर्जुन समझते हुए ईंटा मारकर गिरा दिया था। उन फूटे अण्डों को तो नहीं रख सकता क्यूंकि उसे तो चीटियाँ तभी चट कर गई थीं।


जाऊँगा और दादी के लहसुन-मिर्चे वाले हाथों को सूंघकर डायरी में नोट कर लूँगा और दुनिया को लाकर दिखाऊंगा की स्वाद का भी एक केमिकल स्ट्रक्चर हो सकता है। बाबा की छड़ी की लम्बाई और उनकी गोद की गहराई नापकर एक थ्योरम बनाकर सिद्ध करूंगा कि भय और प्रेम एक दूसरे के पूरक हैं।


जाऊँगा वापस स्कूल में और पूछूंगा अपने टीचर से कि सर्दी की धूप में देखने पर जो आँख के अंदर रेशा उड़ता है क्या वही किताब वाला अमीबा है? और ये पूछूंगा कि एक से बीस तक के पहाड़े रटना जीवन की सफलता के समानुपाती क्यों है? पूछूंगा की सीनरी में हमेशा पहाड़ भूरे ही क्यों हैं, और हरे और सफ़ेद बनाने पर मेरे नम्बर क्यों काट लिए गए? 

और थोडा बढ़कर जाऊँगा असेम्बली में जहाँ मैं और मेरे तीन दोस्त सजा में मुर्गा बने हैं पर फिर भी टांगों के नीचे से देखने पर आसमान हमारे पैरों तले है। उस आसमान के साथ एक सेल्फी लूँगा और टैग कर दूंगा वक़्त को उसमें, उसे उसकी औकात दिखाने को।

किसी दिन घड़ी का काँटा पकड़ कर बहुत जोर से छलांग लगाऊंगा पीछे की ओर और कलामंडी खाकर गिरूंगा अपने गाँव की उस नहर में जिसमे मैं कूदने की हिम्मत नहीं कर पाया था और नंगे नहाते हर लौंडो का झुंड मुझ पर हँस रहा था। और वहीँ किनारे बैठे ‘पगले-बाबा’ से सुनूंगा तालाब वाले बुढ़वा-भूत की बाकी की कहानी जिसे आधा सुनकर मैं रात भर सो नहीं पाया था।

और फिर जाऊँगा, एक पतली सी गली में जहाँ एक कच्ची उम्र की लड़की हाथ में मेरा दिया गुलाब आज भी लेकर खड़ी है इस अफ़सोस में कि उसे मुझसे कभी नहीं मिलना चाहिए था। उस लड़की के पास जाकर उससे वो फूल वापस लेकर नाली में फेंक दूंगा और उसके कानों से खींच के निकाल लूँगा अपनी आवाजों के तार, और आँखों से काँछ लूंगा अपनी सारी परछाइयाँ और आज़ाद कर दूंगा उसे उसके उस कल से जिसे मैं अपना आज नहीं दे सका।

अगर मैं जा सका तो


पर अभी मुझे वापस जाना है आगे के वक़्त में, क्यूंकि मैं आया हूँ वहाँ से पीछे लौटकर।

“अपने आज की डायरी के आखिरी पन्ने पर ये एक बचा रह गया आर्टिकल लिखने!



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