पान पंडिताइन कुर्ता और इश्क
पान पंडिताइन कुर्ता और इश्क
बात सात साल पुरानी है जब हम पान खाने में इतना एक्सपर्ट नहीं हुए थे। एक्सपर्ट भी कैसे होते कोई लखैर सीनियर था ही नहीं जो हमको बतावे कि पान को ऐसे पकड़ो, ऐसे मुँह खोलो, और ऐसे दोनों दांतो के मध्य मुँह में घोलना शुरू करो और जब मुँह भर आये तो मार दो पिचकारी किसी लावारिस उजले कुत्ते या कौनो भौजाई के उजली बकरी के ऊपर, फिर झाड़ू का एक टुंगना लो और दांत खोदते रहो और तब तक अनवरत खोदते रहो जब तक की तुमको पंडिताईन या उसकी छोटकी बहिन से पिरेम न हो जाए।
खैर इंटर परीक्षा से ही हमको पान खाए के जबरदस्त लत लग गिया था, जब हमको पंडिताईन के छोटकी बहिन बोल गयी थी कि पान खाते वख्त आपका चेहरा एकदम हीरो बुझाता है, पूरे अड़तालीस दिन के बाद उसकी आवाज सुन के मेरे कलेजे में उपस्थित इश्क की फूल की एक पंखुड़ी वहीं से खिलना शुरू हो गिया। हम ख़ुशी में पगला कर पंखुड़ी को ही सहलाते रह गए और वो अपनी सहेली के संग वहाँ से चली गयी पर बाद में एक बाल्टी से डेढ़ गिलास ज्यदा अफ़सोस हुआ की हम उसको एक ठंकु भी न बोल पाये, छ्हिह...कितने गन्दे हैं हम, और इसी क्रोध में आकर मैंने अपने हाथ से अपने खिले पंखुड़ी के ऊपर एक मुक्का धक्क से मार बैठा। जैसे ही पंखुड़ी पे एक मुक्का का बल लगा तब जा के धियान आया की अरे...उसकी सहेली भी भौत सुन्नर थी यार और इसी तरह दूसरी पंखुड़ी को भी खिलने का मौका मिल गया।
शाम के करीब सात बज रहे होंगे, धीरे धीरे सभी दुकानें भी बन्द हो रही थी, इससे पहले की मुरारी चचा का भी दुकान बन्द हो जाता हम उनसे बोल बैठे चचा दुइ ठो पान बनाइये तो, जर्दा वाला, चचा एकटक्के हमार मुँह निहारे, और फिर मसाला बनाने लगे, पर कुछौ बोले नहीं, बगल में एक रेडियो रखा हुआ था हम बोल बैठे चचा इसको बजाइये न बन्द काहे किये हुए है जाइयेगा तो साथ ले के जाइयेगा का ? इससे पहले कि चचा हमको गरियाते तब तक हम रेडियो में डीसी करंट प्रवाहित कर चुके थे- ये जो हल्का हल्का सुरूर है, कुछ इश्क सा तो ज़रूर है......कुछ यही गाना बजा, तभी फुलेसर भिया बोल बैठे साला पान खाते वक़्त ऐसा गाना बज जाए तो सच में पान का पैइसा ही वसूल हो जाता है। फिर क्या सभी के दिल थिरकने लगे, सभी मजे में सुनने लगे।
इधर मेरा पान तैयार हो चुका था एक को पॉकेट में रखे और दूसरे को मुँह में, ये पहली बार था जब हम जर्दा वाला पान मुँह में भर रहे थे, थोड़ा थोड़ा हम भी झूम रहे थे, तभी हमको दुआरी पे पंडिताईन मिल गयी हमको बोल बैठी शर्म नहीं आता है इत्ते रात को जर्दा वाला पान खा के बौखला रहे हो, शायद वो मेरे चेहरे को ही नहीं दिल को भी अच्छी तरह भाँप चुकी थी, हम कुछ बोलने के लिए थूक बाहर बिगे, त पान का पूरा मसाला हमार कुर्ते पे छितरा गया। फिर एक लोटा पानी लायी और हमको कुल्ला करवाई, जितना सम्भव हुआ पंडिताईन ने हमारे कुर्ते पे छितराये हुए दाग अपनी ओढ़नी से ही जल्दी जल्दी मिटाने की कोशिश की और हमारे पॉकेट में पड़ी पान को भी उसने बहुत बेदर्दी से फेंक दिया, इसी प्रेम भाव को देखते हुए, हम बोल बैठे सुनो न पंडिताईन एक बात बोले, हाँ जल्दी बोलो, हम न तुमसे भर कठौती पियार करते हैं। ठीक है ठीक है हम भी तुमसे एक कठौती ज्यदा करते हैं, मगर इसी तरह बौड़ाते रहोगे न तो किसी दिन इस कठौती को चूर के गंगा जी में धहा देंगे। हाँ नहीं तो।
फिर हम वहाँ से उठे और मद्धम स्वर में गुनगुनाते हुए अपने घर की ओर चल दिए..... ये जो हल्का हल्का सुरूर है... कुछ इश्क सा तो ज़रूर है।
आपको बता दे की, घर पहुँचते ही सबसे पहले मैंने डिटर्जेंट का घोल बनाया और कुर्ते को रात भर उसी में डूबका के छोर दिया। और सुबह सवेरे उठके ही उसे छुड़ाने का क्विंटल भर अनवरत प्रयास किया पर कमबख्त निशानी रह ही गया, शायद ये प्रेम की निशानी थी जो अमिट रह गयी, हम दोनों के बीच, शायद इसी को प्यार कहते हैं। और हाँ सबसे जरूरी बात उस दिन हम बाबू जी से दस सोंटा पिटाये थे, उ भी खजूर वाला से, और मम्मी बस आठ घण्टे के लिए हमसे नाराज रही थी।
आज गोदरेज में से वही कुर्ता निकला है तो सोचे आप लोग को बताई देते है।