एक भिखारी की आत्मकथा
एक भिखारी की आत्मकथा
मैं एक भिखारी हूं नाम घीसू जिसका जीवन ही एड़ियां घिसते-घिसते कटा हो उसका नाम घीसू ही हो सकता है लेकिन जन्म लेते समय मेरा नाम यह तो नहीं था। तब... तो... मेरा नाम कुछ अच्छा सा रहा होगा। वैसा ही, जैसे छोटे-छोटे, गोल-गोल, सुंदर-सुंदर बच्चों के नाम होते हैं- गोलू, गुड्डू, मुन्ना या फिर बबलू। हां! शायद.. मेरा नाम बबलू ही रहा होगा। अब तो कुछ ठीक से याद भी नहीं आ रहा। समय के साथ शायद दिमाग भी घिस गया है मेरा। इसलिए मेरा नाम घीसू ही ठीक है। क्या कहा? कहां रहता हूं? अरे यही शहर के लाल चौक के पीछे जो रेलवे स्टेशन है ना, वही मेरा घर है। अरे नहीं, आप समझे नहीं, वहीं मेरा घर नहीं है दरअसल वह पूरा का पूरा रेलवे स्टेशन ही मेरा घर है। भला किसके पास होगा इतना शानदार घर। दिन-दिन भर नए-नए लोगों से मिलना। नए नए शहरों, प्रांतों का भोजन और मिठाई खाना... और, एक बार तो, एक मेम साहब ने मुझे कोला भी पिलाया। कोला! अरे वही काला- काला मीठा पानी जो बोतल में मिले हैं। अरे ठहरो-ठहरो! कोई रेल गाड़ी आ रही है... अब बातचीत बंद। ये तो अपने धंधे का टाइम है। लो गई गाड़ी...कुल ₹10 जमा और दो रोटियां मिली। चलो ठीक है... 'अल्लाह' की मर्जी। क्या पूछा साहब? मैं मुसलमान हूँ? ना भाई ना! मैं तो सिर्फ भिखारी हूं। और भिखारी का ना कोई धर्म होवे है ना जाति। बचपन की धुंधली सी याद तो है.. अम्मा है.. जो मनुहार करके रोटी खिला रही है... बापू स्कूल छोड़ने जा रहा है... लेकिन अम्मा कैसे मर गई, और बापू जेल क्यों चला गया, यह मुझे आज तक समझ ना आया। मामी की मार खा खाकर मैं इतना ढीठ हो गया कि एक दिन मामी ने जब जलती लकड़ी मेरे हाथ पर चिपका दी तो मैंने भी वापस वही लकड़ी उसके सिर पर दे मारी। मामी के जोर से चिल्लाने पर गलती पता चली उसके बाद तो ऐसा भागा, ऐसा भागा की पीछे मुड़कर नहीं देखा। उसके बाद क्या-क्या हुआ क्या बताऊं। दो दिन तीन दिन भागता ही रहा। इस डर से कि मामा-मामी लकड़ी लेकर मुझे ही ढूंढते आ रहे होंगे। आखिरकार भूख से व्याकुल होकर उस पल्लीपार के रामचरण ढाबे पर रोटी मांगने गया तो उस भले मानुष ने मुझे प्लेट धोने के काम पर रख लिया। सारा दिन दौड़ दौड़ कर काम करने के बाद भी मैं खुश था क्योंकि रात में बचा खुचा ही सही पर भरपेट खाने को मिलता था। लेकिन यहां भी मेरी फूटी किस्मत ने रंग दिखाया एक दिन पुलिस वाले ने उस बेचारे का ढाबा ही तोड़ दिया। अब भला मैं कहां जाता। न रहने को घर न खाने को रोटी। कई जगह काम मांगने गया पर सब ने दुत्कार दिया और फिर सहारा दिया इस रेलवे स्टेशन ने। अब तो यही मेरा घर है! क्या बताऊं बाबू जी। दिल दुखता है, जब आते जाते लोग दुत्कारते हैं, गालियां देते हैं, ठोकर मारते हैं, पुलिस वाले चोरी का इल्जाम लगाते हैं, तब अंदर ही अंदर मन बहुत रोता है। अम्मा-बाबा याद आते हैं। काश! मेरे अम्मा-बाबा होते तो क्या मेरी यह दशा होती। मैं भी स्कूल जाता। पढ़ लिख कर भला आदमी बनता। लेकिन शायद 'ईश्वर' की यही मर्जी है। क्या कहा? मैं हिंदू हूँ? अरे नहीं भाई साहब। भिखारी का ना कोई धर्म होवे है ना जाति।
