एक और एक ग्यारह
एक और एक ग्यारह
एक बार पापा बीमार पड़ गए थे और मैं अकेला पड़ गया। हां परिवार जरूर था लेकिन किसी झगड़े के चलते हम कम ही बोलते थे। मैं घबरा गया और मेरे दोस्त रफीक को फोन किया। वो जयपुर रहता था और मैं गांव में।
मैं - " भाई पापा बीमार पड़ गए और मैं अकेला।"
रफीक - " पागल ! किसने कहा कि तू अकेला है, मैं हूं ना आ रहा हूं अभी।"
मैं - ठीक है।
रफीक - " ये रोना - धोना बंद कर, हम बचपन से ही दोस्त थे और इतने गहरे कि अगर अकेले निकल जाते तो लोग कहते दूसरा कहां गया।
मैं अच्छी तरह जानता था कि वो नहीं आ सकता हैं लेकिन उसने कहा था। न जाने क्यों दिल को तसल्ली मिल गई सुबह वो आया और पापा को चेक करने के बाद वो चला गया।
भले ही ये लघुकथा आपको अच्छी लगे या न लगे लेकिन मुझे उसने ये अहसास करवा दिया कि दिल की तसल्ली हो या फिर हकीकत कि मुसीबत में दोस्त एक बार दिलासा देकर भी हिम्मत का अहसास दिलवा देते हैं।