द्वंद्व युद्ध - 13

द्वंद्व युद्ध - 13

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लगभग पाँच बजे निकोलायेवों के घर की ओर जाते हुए रमाशोव ने अचरज से अनुभव किया कि उसके भीतर आज के दिन की सफ़लता के विश्वास की सुबह वाली ख़ुशी का स्थान एक अजीब, बेवजह परेशानी ने ले लिया है। उसने महसूस किया कि ऐसा अचानक, अभी नहीं हुआ है बल्कि काफ़ी पहले हो चुका है। ज़ाहिर है कि उत्तेजना उसके दिल में धीरे धीरे, चुपके चुपके बढ़ रही थी, किसी ऐसे पल जो फ़िसल गया था। यह क्या बात हो सकती है? उसके साथ ऐसी घटनाएँ पहले भी होती रही थीं, बिलकुल बचपन से ही, और उसे मालूम था कि शांत होने के लिए इस परेशान-उत्तेजना का सबसे पहला कारण ढूँढ़ना होगा। एक बार, इस तरह से पूरे दिन पीड़ा सहते हुए, वह सिर्फ शाम को ही याद कर पाया कि दोपहर में, स्टेशन पर रेल की पटरियाँ पार करते हुए, अचानक हुए इंजिन के शोर से वह मानो बहरा हो गया था, डर गया था और इस पर ध्यान न देकर बुरे मूड़ में आ गया था; मगर – जब याद आया तो उसे अचानक सुकून महसूस हुआ और ख़ुशी भी हुई।

वह जल्दी जल्दी आज के दिन के अनुभवों को उलटे क्रम में याद करने लगा। स्वीदेर्स्की की दुकान; सेंट की बोतल; गाड़ीवान लैबा को किराये पर लिया – वह बढ़िया गाड़ी चलाता है; पोस्ट ऑफ़िस में पता किया कि क्या वक़्त हुआ है; शानदार सुबह; स्तेपान। कहीं सचमुच में स्तेपान तो नहीं? मगर नहीं – स्तेपान के लिए तो जेब में एक रुबल अलग से रख दिया है। तो फिर यह क्या बात है? क्या है?”

फेंसिंग के पास तीन दो दो घोड़ों वाली गाड़ियाँ खड़ी थीं। दो अर्दली ज़ीन चढ़े घोड़ों की लगाम पकड़े खड़े थे। भूरे, बूढ़े स्टेलियन की, जिसे हाल ही में अलिज़ार ने कैवेलरी के घटिया माल विभाग से ख़रीदा था; और बेग-अगामालव की सुडौल, सहन शक्ति वाली, गुस्साई, आग जैसी आँखों वाली सुनहरी घोड़ी की।


"आह-ख़त!"- अचानक रमाशोव के दिमाग़ में कौंधा, वह अजीब सा वाक्य।

‘बग़ैर किसी बात की ओर ध्यान दिए’ और उसे रेखांकित किया गया था। मतलब कुछ तो है? हो सकता है, हो सकता है, निकोलाएव मुझसे नाराज़ हो? ईर्ष्या करता हो? हो सकता है कोई अफ़वाह हो? पिछले कुछ दिनों से निकोलाएव मुझसे बड़ा रूखा बर्ताव कर रहा है। नहीं, नहीं, आगे निकलता हूँ!’

”आगे!” वह गाड़ीवान पर चिल्लाया।

मगर तभी – न तो उसने सुना और न ही देखा, बल्कि महसूस किया, अपने दिल की मीठी मीठी और तेज़ तेज़ धड़कन से महसूस किया कि कैसे घर का दरवाज़ा खुला, “रोमच्का, ये तुम कहाँ चले?” उसने अपने पीछे अलेक्सान्द्रा पेत्रोव्ना की खनखनाती, प्रसन्न आवाज़ सुनी।

उसने लैब को कमर में बंधे पटके से खींचा और गाड़ी से कूद पड़ा। शूरच्का खुले दरवाज़े की काली चौखट में खड़ी थी। उसने प्लेन सफ़ेद ड्रेस पहनी थी, कमरबन्द के दाहिने किनारे पर लाल फूलों वाली; वे ही लाल फूल उसके बालों में प्यार से चमक रहे थे। अजीब बात है। रमाशोव ने अचूक जान लिया कि ये-वह है, मगर फिर भी उसे सही-सही पहचान नहीं पाया। उसमें कुछ नया सा, उत्सव जैसा, दमकता सा अनुभव हो रहा था।

जब रमाशोव अपनी मुबारकबाद बुदबुदा रहा था, वह उसका हाथ अपने हाथों से छोड़े बगैर, उसे नज़ाक़तभरी, जानी पहचानी कोशिश करते हुए अपने साथ अंधेरे प्रवेश कक्ष में ले गई और तब वह जल्दी जल्दी दबी ज़ुबान में बोली।

 “धन्यवाद, रोमच्का, आने के लिए। आह, मैं कितना डर रही थी कि कहीं आप मना न कर दें। सुनिए। आज ख़ुश और प्यारे प्यारे रहिए, किसी भी बात की ओर ध्यान न दीजिए। आप बड़े अजीब हैं। कोई आप को छू ले तो आप मुरझा जाते हैं। ऐसे हैं आप छुईमुई का पेड़।”

“अलेक्सान्द्रा पेत्रोव्ना, आज आपके ख़त ने मुझे इतना परेशान कर दिया। उसमें एक वाक्य था...”

“प्यारे, मेरे प्यारे, कोई ज़रूरत नहीं है!” उसने उसके दोनों हाथ कसकर पकड़ लिए, और उसकी आँखों में सीधे देखते हुए उन्हें दबाने लगी। इस नज़र में भी फिर से कोई ऐसी चीज़ थी जो रमाशोव के लिए बिल्कुल अपरिचित थी – एक प्यार भरी नज़ाकत, एकाग्रता, और परेशानी, और कुछ और भी, नीली नीली पुतलियों की रहस्यमय गहराई में छिपा था कुछ अजीब सा, समझ में न आनेवाला, आत्मा की सर्वाधिक गुप्त, अस्पष्ट भाषा में बोलता हुआ सा।

 “प्लीज़, कोई ज़रूरत नहीं है। आज इस बारे में न सोचिए। क्या आपके लिए इतना काफ़ी नहीं है कि मैं पूरे समय यही ख्याल मन में संजोती रही कि आप कैसे आएंगे। क्योंकि मुझे मालूम है कि आप कैसे दब्बू हैं। मेरी ओर ऐसे देखने की जुर्रत न कीजिए!”

वह सकुचाहट से मुस्कुराने लगी और सिर हिलाने लगी।

 “चलो, बस हुआ। रोमच्का, फूहड़ कहीं के, तुम फिर हाथ नहीं चूमोगे! ऐसे। अब दूसरा। ठीक है। होशियार हो। चलें। भूलना मत“ वह जल्दी जल्दी, जोशभरी फुसफुसाहट से बोली, “आज हमारा दिन है, महारानी अलेक्सान्द्रा और उसका अनुचर सूरमा गिओर्गी। सुन रहे हैं? चलिए।”

 “ये, इजाज़त दीजिए...छोटी सी भेंट...”

 “क्या है ये? सेंट? कैसी बेवकूफ़ियाँ करते हैं आप! नहीं, नहीं, मैं मज़ाक कर रही हूँ। शुक्रिया, प्यारे रोमच्का। वोलोद्या!”

ड्राइंगरूम में प्रवेश करते हुए वह ज़ोर से और स्वाभाविकता से बोली। “यह रहा एक और साथी पिकनिक के लिए। साथ ही आज इसका भी नामकरण दिन है।”

ड्राइंगरूम में शोर और बेतरतीबी थी, जैसा कि सबके प्रस्थान करने से पूर्व होता है। तंबाकू का घना धुँआ उन जगहों पर आसमानी नीला प्रतीत हो रहा था जहाँ खिड़कियों से आती हुई बसंती सूरज की तिरछी किरणें उसे काट रही थीं। ड्राइंगरूम के बीच में सात-आठ अफ़सर बड़ी ज़िन्दादिली से बातें करते हुए खड़े थे, जिनमें सबसे ज़्यादा ज़ोर से चिल्ला रहा था अपनी बैठी हुई आवाज़ में हर पल खाँसता हुआ लंबा तल्मान। वहाँ थे, कैप्टेन असाद्ची और एक दूसरे से कभी अलग न होने वाले एड़्जुटेंट्स अलिज़ार और बेग-अगामालव, और लेफ्टिनेंट अन्द्रूसेविच, एक छोटा सा आदमी चूहे जैसे तेज़ तर्रार चेहरे वाला और कोई और भी था जिसे रमाशोव ने एकदम नहीं देखा। मुस्कुराती हुई, पाउडर और लिपस्टिक पुती, एक सजी-धजी गुड़िया जैसी सोफ़िया पाव्लव्ना तल्मान दीवान पर सेकंड लेफ्टिनेंट मीखिन की दो बहनों के साथ बैठी थी। ये दोनों महिलाएँ एक जैसी, सीधी सादी, स्वयँ की बनाई हुई, मगर प्यारी पोषाकों में थीं। सफ़ेद-हरी रिबन वाली; दोनों गुलाबी-गुलाबी, काले बालों वाली, काली आँखों वाली और चेहरे पर हल्की भूरी झाइयों वाली; दोनों के ही दाँत चमचमाते सफ़ेद मगर आड़े-टेढ़े थे, जो उनके ताज़ा तरीन चेहरों को एक विशेष आकर्षण प्रदान कर रहे थे। दोनों बड़ी अच्छी और ख़ुशमिजाज़ थीं; एक दूसरे से विलक्षण साम्य था उनमें और साथ ही अपने बदसूरत भाई से भी मिलती जुलती थीं। रेजिमेंट की महिलाओं में से अन्द्रूसेविच की छोटी सी, सफ़ेद चेहरे वाली, मोटी, बेवकूफ़ और हास्यास्पद पत्नी को भी आमंत्रित किया गया था जिसे हर तरह के दुहरे अर्थ वाले और अश्लील चुटकुले पसन्द थे; साथ ही वहाँ थी अच्छी सी, ज़्यादा बोलने वाली, तुतलाने वाली लिकाचोव महिलाएँ।

जैसा कि अफसरों की सोसाइटी में हमेशा होता है, महिलाएँ पुरुषों से दूर, एक अलग झुंड़ में बैठी थीं। उनके निकट बेफ़िक्री और छैलेपन से कुर्सी पर पसर के बैठा था एक स्टाफ़-कैप्टेन, दीत्स। यह अफ़सर जो अपनी कसी हुई शरीरयष्टी और थके हुए मगर आत्मविश्वासपूर्ण चेहरे के कारण जर्मन कार्टून्स में प्रदर्शित किए गए प्रशियन अफ़सरों जैसा लगता था, किसी काले कारनामे की बदौलत गारद से रेजिमेंट में स्थानांतरित किया गया था। आदमियों से बातें करते समय वह हमेशा दृढ़ आत्मविश्वास प्रदर्शित करता था, और औरतों से बात करते समय – बेशर्म साहस। वह ताशों के बड़े बड़े खेल खेलता और हमेशा जीतता, मगर ऑफ़िसर्स मेस में नहीं, बल्कि नागरिकों के क्लब में, शहरी क्लर्कों के घरों में और शहर की सीमा पर बसे पोलिश ज़मींदारों के यहाँ। कम्पनी में उसे कोई नहीं चाहता था, मगर सभी उससे डरते थे और सभी को यह आभास था कि भविष्य में वह कोई गन्दी और बदनाम चाल चलने वाला है। यह भी कहा जाता था कि उसके इसी शहर में रहने वाले जर्जर, बूढ़े ब्रिगेड़-कमांडर की जवान बीबी से संबंध थे। मैडम तल्मान से उसकी निकटता भी सबको विदित थी। उसी के कारण अक्सर इसे भी निमंत्रित किया जाता था – रेजिमेंट की शालीनता और तवज्जह के अपने ही नियमों का यह तक़ाज़ा था।


 “बड़ी ख़ुशी हुई, बड़ी ख़ुशी हुई,” रमाशोव की ओर आते हुए निकोलाएव ने कहा, “अच्छी बात है। आप सुबह केक काटने के वक़्त क्यों नहीं आए?”

वह यह सब प्रसन्नता से कह रहा था। प्यारी सी मुस्कुराहट बिखेरते हुए, मगर आवाज़ में और आँखों में रमाशोव ने स्पष्ट रूप से उसी परायेपन की, अलगाव की, रूखेपन की झलक को पकड़ लिया, जिसका वह पिछले कुछ समय से निकोलायेव से मिलते समय अपने अचेतन मन में अनुभव कर रहा था।

"वह मुझे प्यार नहीं करता,’ - रमाशोव ने फ़ौरन अपने आप से निर्णय ले लिया, ‘ क्या कर रहा है वह? ग़ुस्सा है? ईर्ष्या हो रही है? मैंने उसे बेज़ार कर दिया है?

 “जानते हैं, हमारी रेजिमेंट में हथियारों का इंस्पेक्शन चल रहा है,” भाव खाते हुए रमाशोव ने झूठ बोल दिया। “तैयारी कर रहे हैं इंस्पेक्शन की, त्यौहारों के दिन भी आराम नहीं मिल रहा है, मगर मैं बड़ी प्यारी हैरत में पड़ गया हूँ। मुझे ज़रा भी अन्दाज़ नहीं था कि आप लोग पिकनिक पर जा रहे हैं, और अब ऐसा लग रहा है, जैसे मैं ज़बर्दस्ती इसमें शामिल हो गया हूँ। सचमुच, मुझे सकुचाहट हो रही है”

निकोलाएव ने लंबी चौड़ी मुस्कान बिखेरी और कुछ आहत प्यार से रमाशोव के कंधों को थपथपाया।

 “ओह, नहीं, क्या कह रहे हैं। मेरे प्यारे – ज़्यादा लोग होते हैं तो ज़्यादा आनन्द आता है। ये चीनियों जैसा तकल्लुफ़ क्यों!...बस यह नहीं समझ पा रहा कि फिटन में सबको जगह कैसे मिलेगी। कोई बात नहीं, बैठ जाएँगे किसी तरह।”

 “मेरे पास गाड़ी है,” रमाशोव ने हौले से अपने कंधे को निकोलाएव के कंधे से आज़ाद करते हुए उसे तसल्ली दी। “बल्कि मैं तो उसे आपकी ख़िदमत में ख़ुशी से पेश करता हूँ।”

उसकी आँखें शूरच्का की आँखों से टकराईं।

 “शुक्रिया, प्यारे!” उसकी गर्माहट भरी, पहले जैसी ही अजीब सी तवज्जह देती हुई ‘कितनी ग़ज़ब की लग रही है यह आज!’ रमाशोव ने सोचा।

“ये तो बढ़िया बात है,” निकोलाएव ने घड़ी देखी। “तो महाशय,” उसने सवालिया अंदाज़ में कहा, “चला जाए?”

 ‘चलना है तो चलो, कहा तोते ने, जब वास्का बिल्ले ने उसे पूँछ पकड़ कर पिंजरे से घसीटा!’ चुटकुले वाले अंदाज़ में अलिज़ार चहका।

सभी हँसते-चहकते हुए उठे। महिलाएँ अपनी अपनी टोपियाँ और छतरियाँ ढूँढ़ने लगीं; तल्मान, जो ब्रोन्काइटिस से परेशान था, पूरे कमरे में चिल्ला चिल्लाकर कह रहा था कि कोई अपने गर्म स्कार्फ न भूले; जोशभरी गड़बड़ शुरू हो गई।

छोटा सा मीखिन रमाशोव को एक ओर ले गया।

 “यूरी अलेक्सेइच, मेरी आपसे विनती है,” उसने कहा, “एक बात के बारे में प्रार्थना करता हूँ। कृपया मेरी बहनों के साथ जाईये, वर्ना दीत्स उनके साथ बैठ जाएगा, और यह बात मुझे ज़रा भी पसन्द नहीं है। वह हमेशा बच्चियों के साथ ऐसी कमीनी बातें करता है कि वे रोने रोने को हो जाती हैं। ये सच है कि मैं किसी भी तरह के बल प्रयोग के ख़िलाफ़ हूँ, मगर ख़ुदा की कसम, किसी दिन उसके थोपड़े पर झापड़ ज़रूर जड़ दूँगा!”

रमाशोव का बहुत मन था कि शूरच्का के साथ जाए, मगर चूँकि वह मीखिन को हमेशा पसन्द करता था, और चूँकि इस प्यारे से बच्चे की साफ़-सुथरी आँखें उसकी ओर याचना भरे अंदाज़ से देख रही थीं, और इसलिए भी कि इस क्षण रमाशोव का मन प्रसन्नता से लबालब भरा था, - वह मना नहीं कर सका और राज़ी हो गया।

पोर्च के पास गाड़ियों में बैठने में बड़ी देर लगाई गई। रमाशोव दोनों मीखिन बहनों के पास बैठा। गाड़ियों के बीच में सामान्यत। उदास, निराश – उनींदा स्टाफ़-कैप्टेन लेशेन्का, जिसे रमाशोव पहले नहीं देख पाया था, चक्कर लगा रहा था, उसे कोई भी अपने साथ फिटन में नहीं लेना चाहता था। रमाशोव ने उसे आवाज़ दी और उसे अपनी गाड़ी में आगे की सीट पर बैठने के लिए जगह दी। लेशेन्का ने सेकंड लेफ्टिनेंट की ओर कुत्ते जैसी वफ़ादार, प्यारी आँखों से देखा और गहरी साँस लेकर गाड़ी में चढ़ गया।

आख़िरकार सब बैठ गए। कहीं आगे की ओर अपने बूढ़े, सुस्त स्टेलियन पर जोकर की तरह बैठे-बैठे घूमते हुए अलिज़ार ऑपेरा की पंक्तियाँ गाने लगा ।


बैठेंगे पोस्ट-गाड़ी में जल्दी से, बैठेंगे पोस्ट – गाड़ी में जल्दी-ई-ई-ई-से! 

“दुलकी चाल से मा - -आ – र्च!” अपनी गरजती आवाज़ में असाद्ची ने कमांड दी।

गाड़ियाँ चल पड़ीं।।


नज़रों ने कहा।

’इसका वह पिछले कुछ समय से निकोलाएव से मिलते समय अपने अचेतन मन में अनुभव कर रहा था काली सुनहरी घोड़ी की ‘



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