द्वंद्व युद्ध - 11

द्वंद्व युद्ध - 11

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कम्पनी के स्कूल में ‘भाषा’ की पढ़ाई हो रही थी। एक तंग कमरे में, बेंचों से बने चौकोर पर तीसरी प्लैटून के सिपाही मुँह अन्दर की ओर किए बैठे थे। इस चौकोर के बीच में लांस कार्पोरल सेरोश्तान इधर से उधर घूम रहा था। बगल में ठीक ऐसे ही चौकोर में उसी तरह आगे पीछे एक और, आधी कम्पनी का अंडर-ऑफ़िसर शापोवालेन्का घूम रहा था।

 “बन्दारेन्का सेरोश्तान गरजा।

बन्दरेन्का दोनों पैरों को फर्श पर मारते हुए फ़ौरन सीधा उछला मानो चाबी वाली लकड़ी की गुड़िया हो।

 “बन्दारेन्का, अगर तुम, मिसाल के तौर पर पलटन में राईफल लिए खड़े हो, और तुम्हारे पास कोई अफ़सर आकर पूछता है, ‘बन्दारेन्का , तुम्हारे हाथ में क्या है?’ तो तुम्हें क्या जवाब देना चाहिए?”

 “बन्दूक, चचा?” बन्दारेन्का अन्दाज़ लगाते हुए कहता है।

 “बकवास करते हो। क्या यह बन्दूक है? तुम तो इसे गँवारों जैसे दंबूक भी कहोगे। घर में जिसे बन्दूक कहते हैं, यहाँ, फ़ौज में उसे सीधे सीधे कहेंगे: स्माल कैलिबर, शार्प शूटर, इंफैंट्री राईफल, बेर्दान सिस्टम की, नंबर दो, स्लिप शटर वाली।दोहराओ, सुअर के बच्चे!”

बन्दारेन्का ने तोते की तरह वे शब्द दुहरा दिए, जिन्हें वह, बेशक, पहले से जानता था।

 “बैठो!” सेरोश्तान ने प्यार से कहा। “और वह तुम्हें किसलिए दी गई है? इस सवाल का जवाब देगा।” उसने अपने अधीनस्थ सिपाहियों पर बारी-बारी से कड़ी नज़र डाली, “शेव्चूक!”

शेव्चूक गंभीर मुद्रा में खड़ा हो गया और मोटी आवाज़ में, धीरे धीरे, नकियाते हुए और शब्दों को इस प्रकार तोड़ते हुए मानो वह उनके बीच बीच में पूर्ण विराम लगा रहा हो, जवाब देने लगा।

 “वो मेरे को इसलिए दी गई है कि। जिससे मैं शांति के समय में राईफल चलाने के नियम दुहराता रहूँ। और लड़ाई के समय में सिंहासन की और पितृभूमि की दुश्मनों से रक्षा कर सकूँ।” वह चुप हो गया, उसने नाक सुड़की और मरियल आवाज़ में आगे कहा, “अन्दरूनी और बाहरी।”

 “ठीक है। तुम अच्छी तरह जानते हो, शेव्चूक, बस मुंह ही मुंह में पुटपुटाते हो। सिपाही को ख़ुश और ज़िन्दादिल होना चाहिए, जैसे उकाब। बैठ जाओ। अब तुम बताओ, अवेच्किन: हम बाहरी दुश्मन किसे कहते हैं?”

चुस्त-दुरुस्त ओर्लोववासी अवेच्किन ने, जिसकी आवाज़ में भूतपूर्व छोटे मोटे नौकर की मिठासभरी ख़ुशामद थी, जल्दी जल्दी, छैलेपन से, खुशी खुशी जवाब दिया:

 “बाहरी दुश्मन हम उन राज्यों को कहते हैं जिनसे हमें युद्ध करना पड़ता है।फ्रांसीसी, जर्मन, इटालियन, तुर्की, यूरोपियन, इंद।”

 “रुको,” सेरोश्तान उसे बीच में रोकता है, “यह सब नियमों की किताब में नहीं है।बैठो, अवेच्किन।और अब मुझे बताएगा,अर्खीपव! हम अ-न्द-रू-नी दुश्मन किसे कहते हैं?”

इन शब्दों को वह काफ़ी ऊँची आवाज़ में और विशेष ज़ोर देकर कहता है और एक अर्थपूर्ण दृष्टि डालता है मार्कूसन पर जो अपनी मर्ज़ी से फौज में आया था।

बेढ़ब सा, धब्बेदार चेहरे वाला अर्खीपव कम्पनी-स्कूल की खिड़की से बाहर देखते हुए अड़ियलपन से ख़ामोश रहता है। फौज़ से बाहर बड़े काम का, बुद्धिमान और चपल नौजवान पढ़ाई के समय एकदम बेवकूफ़ों जैसा बन जाता है।ज़ाहिर है, ऐसा इसलिए होता है कि उसकी स्वस्थ्य बुद्धि जो ग्राम्य जीवन की सीधी-सादी घटनाओं का निरीक्षण करने और उनके बारे में सोचने की आदी हो चुकी है, इस ‘भाषा’ की पढ़ाई का वास्तविक जीवन से कोई संबंध नहीं देख पाती।इसलिए (अपने प्लैटून अधिकारी के आश्चर्य और ग़ुस्से के बावजूद), वह अत्यंत आसान चीज़ें भी समझ नहीं पाता और उन्हें याद नहीं कर पाता।

 “त-तो!” क्या मुझे बड़ी देर इंतज़ार करना पड़ेगा, ताकि तुम कुछ जवाब दे सको?” सेरोश्तान को ग़ुस्सा आने लगा था।

 “अन्दरूनी दुश्मन...दुश्मन...”

 “नहीं जानते?” सेरोश्तान गरजते हुए बोला और वह अर्खीपव पर हाथ चलाने ही वाला था कि ऑफ़िसर पर नज़र पड़ते ही उसने सिर्फ़ सिर हिलाया और अर्खीपव की ओर खूँखार नज़रों से देखा। “तो, सुनो। अन्दरूनी दुश्मन उन्हें कहते हैं जो सभी क़ायदे क़ानूनों के ख़िलाफ़ होते हैं।मिसाल के तौर पर किसे?” उसने अवेच्किन की चौकन्नी आँखों को देखा और बोला, “कम से कम तुम्हीं बताओ, अवेच्किन।”

अवेच्किन ख़ुशी से उछल कर चीख़ा:

 “जैसे कि विद्रोही, विद्यार्थी, घोड़ा-चोर, यहूदी और पोलिश!”

बगल में ही शापोवालेन्का अपनी प्लैटून की क्लास ले रहा था। बेंचों के बीच में घूमते हुए वह अपनी पतली, गाती हुई सी आवाज़ में सैनिक-हैंडबुक से, जिसे उसने अपने हाथों में पकड़ रखा था, सवाल पूछ रहा था।

 “सोल्तीस, चौकीदार का क्या मतलब है?”

लीत्वियन सोल्तीस अपनी याददाश्त पर ज़ोर देते हुए, आँखें फाड़े जवाब देता है:

 “चौकीदार एक ऐसा व्यक्ति है, जिसे छुआ नहीं जाता।”

 “ठीक है, और, और क्या?”

 “चौकीदार एक सिपाही होता है, जिसे किसी चौकी पर तैनात किया जाता है, हाथों में हथियार के साथ।”

 “सही है।देख रहा हूँ, सोल्तीस, कि तुम अब कोशिश करने लगे हो।और तुम्हें चौकी पर तैनात किस लिए किया जाता है, पाखोरूकव?”

 “जिससे कि मैं न सोऊँ, न ऊँघूं, सिगरेट न पिऊँ और किसी से भी कोई चीज़, कोई उपहार न लूँ।”

 “और सम्मान?”

 “और आते-जाते अफ़सरों को उचित सम्मान दूँ।”

 “ठीक है, बैठो।”

शापोवालेन्का काफ़ी देर से अपनी मर्ज़ी से फ़ौज में भर्ती हुए फ़ोकिन की आँखों में व्यंग्यात्मक मुस्कुराहट देख रहा था और इसीलिए वह विशेष सख़्ती से चिल्लाया:

 “ऐ, मर्ज़ीवाले सिपाही! इस तरह कोई उठता है? अगर अधिकारी कुछ पूछता है, तो झटके से, स्प्रिंग जैसे उठना चाहिए।‘ध्वज’ का क्या मतलब है?”

मर्ज़ी से फ़ौज में भर्ती हुआ फ़ोकिन, जिसके सीने पर विश्वविद्यालय का मेडल टँका हुआ था, अंडर ऑफ़िसर के सामने आज्ञाकारी मुद्रा में खड़ा होता है।मगर उसकी जवान भूरी आँखें ज़िन्दादिल मुस्कुराहट से चमक रही हैं।

 “ध्वज का मतलब है युद्ध का पवित्र झंडा जिसके नीचे।”

”बकवास कर रहे हो!” शापोवालेन्का ग़ुस्से में उसकी बात काटता है और हैंडबुक से उसकी हथेली पर मारता है।

 “नहीं, मैं सही कह रहा हूँ,” ज़िद्दीपन से, मगर शांति के साथ फ़ोकिन कहता है।

 “क्याSSS? अगर अधिकारी कहता है कि ‘नहीं’ तो इसका मतलब हुआ ‘नहीं’!”

 “आप ख़ुद ही हैंडबुक में देख लीजिए।”

 “आह, मैं अंडर ऑफ़िसर हूँ, तो नियम भी तुमसे बेहतर ही जानूँगा। बोSS लोSS! अपनी मर्ज़ी से हर सिपाही अलग-थलग दिखना चाहता है।और हो सकता है, मैं ख़ुद भी आगे पढ़ने के लिए कैडेट-स्कूल जाना चाहता हूँ? तुम कैसे जानते हो? ये झंडा क्या है? झेंSSडा! अब आगे से हकलाओगे नहीं।पवित्र युद्ध का पवित्र झेंडा, एक मूर्ति की भाँति।”

 “शापोवालेन्का, बहस मत करो,” रमाशोव बीच बचाव करता है, “पढ़ाई जारी रखो।”

 “सुन रहा हूँ, हुज़ूर!” शापोवालेन्का तन जाता है। “सिर्फ़ हुज़ूर को यह बताने की इजाज़त दें कि ये सारे मनमर्ज़ी वाले सिपाही बहुत शेख़ी बघारते हैं।”

 “ठीक है, ठीक है, आगे!”

 “सुन रहा हूँ, हुज़ूर...ख्लेब्निकोव! हमारे कोर्प्स का कमांडर कौन है?”

 ख्लेब्निकोव बदहवास आँखों से अंडर ऑफ़िसर की ओर देखता है।उसके खुले हुए मुँह से, कर्कश कौए जैसी, एक फटी फटी, फुफकारती सी आवाज़ निकली।

 “चलो, बोलो!” दुष्टता से अंडर ऑफ़िसर उस पर चिल्लाता है।

 “उसको”

 “ओह, - उसको और, आगे क्या ?”

रमाशोव जो इस क्षण एक ओर को मुड़ गया था, सुनता है कि किस तरह शापोवालेन्का नीची आवाज़ में, भर्राते हुए कहता है:

 “तुम देखते ही रहो, क्लास के बाद मैं तुम्हारी खोपड़ी की अच्छी तरह से चंपी करता हूँ!

और चूँकि रमाशोव इसी पल उसकी ओर मुड़ता है, वह ज़ोर से, उदासीनतापूर्वक कहता है:

 “हिज़ एक्सेलेन्सी, ओह, तुम भी क्या, ख्लेब्निकोव, आगे!”

 “हिज़, इन्फान्टेरी, लेफ्टिनान्ट,” डर के मारे टूटा फूटा वाक्य बुदबुदाता है ख्लेब्निकोव।

 “आ-आ-आ!” दाँत पीसते हुए भर्रा जाता है शापोवालेन्का! “ओह, मैं तेरा क्या करूँ, ख्लेब्निकोव? सिर खपाता हूँ, खपाता हूँ तेरे साथ, और तू एकदम ऊँट जैसा!!!सिर्फ सींगों की कमी रह गई है।कोई कोशिश नहीं। ‘भाषा’ की क्लास पूरी होने तक ऐसे ही खड़े रहो, खंभे जैसे। और लंच के बाद मेरे पास आना, तेरे साथ अलग से पढ़ाई करनी पड़ेगी।ग्रेचेन्का, हमारी कोर्प्स का कमाण्डर कैन है?"


जैसा आज है, वैसा ही कल भी होगा, और परसों भी ऐसा ही होगा। सिर्फ एक ही बात। मेरी ज़िन्दगी के ख़त्म होने त क,' एक प्लैटून से दूसरी प्लैटून तक जाते हुए रमाशोव सोच रहा था। ‘सब कुछ छोड़ छाड़ कर भाग जाऊँ? कितना पीड़ादायक है!”

‘भाषा’ के बाद लोग आँगन में शूटिंग के लिए तैयार की गई एक्सरसाइज़ कर रहे थे। एक भाग में लोग आईने पर निशाना लगा रहे थे, दूसरे में टार्गेट पर, तीसरे में राईफ़ल से लिव्चाक के सेट पर निशाना साध रहे थे।दूसरी प्लैटून में सेकंड लेफ्टिनेंट ल्बोव की खनखनाती आवाज़ पूरे परेड़ ग्राऊँड पर छा रही थी।

 “सी-धे..कॉलम में..रेजिमेंट फा-यर करेगी..एक, दो! रेजिमें-ट..” वह आख़िरी शब्द को खींच रहा था, रुक रहा था, और फिर एकदम उसने आज्ञा दी,- फायर!”

स्ट्राइकर्स ने खट् की आवाज़ की। और ल्बोव, ख़ुशी से स्टाइल मारता हुआ चहका।

स्लीवा एक प्लैटून से दूसरी प्लैटून की ओर चक्कर लगा रहा था, झुका हुआ, सुस्त, रैंक्स को ठीक करता जा रहा था और छोटी छोटी, कठोर टिप्पणियाँ कर रहा था।

 “पेट अन्दर करो! पेट वाली औरत जैसे खड़े हो! राईफल कैसे पकड़ी है? तुम कोई हाथ में मोमबत्ती पकड़े चर्च के डीकन नहीं हो! मुँह क्यों खुला है, कर्ताशव? क्या खीर खाना है? लान्स कॉर्पोरल, कर्ताशव को क्लास के बाद एक घंटे तक राईफल पकड़कर खड़ा रखो। रा-आ-स्कल! कोट कैसे झूल रहा है, वेदेनेयेव? उसका कोई ओर छोर ही नज़र नहीं आ रहा। अहमक!”

फायरिंग के बाद लोगों ने राईफल्स एक जगह रखीं और उनके निकट नर्म नर्म बसंती घास पर लेट गए, जो सिपाहियों के जूतों से कहीं कहीं कुचल गई थी।दिन गर्माहट भरा और साफ था।राजमार्ग पर दुहरी पंक्तियों में खड़े पॉप्लर वृक्षों के नन्हे नहे पत्तों की ख़ुशबू हवा में फैल रही थी।वेत्किन फिर से रमाशोव के पास आया।

 “थूक दो, यूरी अलेक्सेविच,” उसने रमाशोव के कंधों पर हाथ रखते हुए कहा। “ क्या यह इतना ज़रूरी है? क्लासेस ख़त्म होने के बाद मेस में जाएँगे, एक एक पैग उतारेंगे, और सब कुछ भूल जाएँगे।हाँ?”

 “बहुत उकताहट होती है मुझे, प्यारे पावेल पाव्लीच,” पीड़ा से रमाशोव ने कहा।

 “क्या कहें, नाख़ुशगवार है,” वेत्किन ने कहा। “मगर और हो भी क्या सकता है? लोगों को काम तो सिखाना ही होगा। मान लो, अगर अचानक लड़ाई शुरू हो जाए तो?”

 “लड़ाई भी,” रमाशोव ने अलसाए हुए स्वर में सहमत होते हुए कहा। “और लड़ाई क्यों? हो सकता है यह सब एक आम ग़लती हो, कोई विश्वव्यापी भ्रम, हस्तक्षेप? क्या लोगों को मारना नैसर्गिक है?”

 “ ऐSSS, तुम लगे फलसफ़ा बघारने।क्या बकवास है! और अगर अचानक हम पर जर्मनी हमला कर दे तो? रूस की रक्षा कौन करेगा?”

 “मैं न तो कुछ जानता हूँ और न ही कुछ कह रहा हूँ, पावेल पाव्लीच,” शिकायत के स्वर में रमाशोव ने संक्षिप्त सा प्रतिवाद किया, “मैं कुछ भी, कुछ भी नहीं जानता।मगर, मिसाल के तौर पर उत्तरी अमेरिका की लड़ाई को लीजिए, या इटली का स्वाधीनता संग्राम, और नेपोलियन के समय – गुरिल्ला..और क्रांति के दौरान शुआन, लड़ते ही थे जब ज़रूरत होती थी! सीधे सादे किसान, चरवाहे”

 “वे अमेरिकन, तुम उनसे मुक़ाबला करने चले। यह तो दसवीं लड़ाई थी। मगर मेरी राय में अगर इस तरह से सोचा जाए, तो फिर बेहतर होगा कि फ़ौज में नौकरी ही न की जाए। और वैसे भी हमारी नौकरी में तो सोचने की इजाज़त है ही नहीं।सवाल सिर्फ एक है: हम तुम अगर फ़ौज में नौकरी न करें तो और कहाँ करेंगे? हम हैं किस लायक यदि हम सिर्फ – बाएँ, दाएँ, - ही जानते हैं और दूसरा कुछ भी नहीं? जान देना हमें आता है, यह बात पक्की है।और जान देंगे हम, अगर शैतान हमें दबोच ले, जब इसकी ज़रूरत होगी।कम से कम रोटी तो मुफ़्त की नहीं खाई है हमने।तो, इसलिए, दार्शनिक महोदय, क्लासेज़ के बाद मेस में जाएँगे?”

 “उसमें क्या है, चलेंगे,” उदासीनता से रमाशोव ने सहमति जताई। “ मेरी अपनी राय यह है कि हर रोज़ इस तरह से वक़्त गुज़ारना सुअरपन है। और आप भी सच कहते हैं, कि यदि इस तरह से सोचना है, तो फ़ौज में नौकरी ही नहीं करनी चाहिए।”

बातें करते करते वे ग्राउंड पर आगे पीछे चल रहे थे, और वे चौथी प्लैटून के क़रीब रुके।सिपाही जमा की गई राईफल्स के पास लेटे थे या बैठे थे।कुछेक डबल रोटी खा रहे थे जो सिपाही पूरे दिन, सुबह से शाम तक, और सभी परिस्थितियों में खाते रहते हैं: इंस्पेक्शन के समय, प्रैक्टिस करते समय, विश्राम के दौरान, चर्च में कन्फेशन से पहले और शारीरिक दंड से पहले भी।

रमाशोव ने सुना कि किसी की उदासीनता से खिंचाई करती आवाज़ चहकी:

 “ख्लेब्निकोव, ऐ ख्लेब्निकोव!”

 “हाँ?” ख्लेब्निकोव ने नकियाते हुए संजीदगी से जवाब दिया।

 “तूने घर पर क्या क्या किया?”

  “काम किया,” उनींदी आवाज़ में ख्लेब्निकोव ने कहा।

 “काम क्या किया, ठस दिमाग?”

 “ सभी।ज़मीन जोती, मवेशी चराए।”

 “तुम उससे क्यों उलझ रहे हो?” पुराना सिपाही श्पीनेव चचा बीच में टपक पड़ा। “सबको मालूम है कि क्या काम किया; बच्चों को चुसनी से दूध पिलाया।”

रमाशोव ने चलते चलते ख्लेब्निकोव के भूरे, दयनीय, सफाचट चेहरे की ओर देखा, और एक अटपटी सी, बीमार सी भावना फिर से उसके दिल को कुरेदने लगी।               

  “राईफल उठाओ!” ग्राउंड के बीच में खड़ा स्लीवा चिल्लाया। “अफ़सर महाशय, अपनी अपनी जगह पर!”

राईफलों की खड़खड़ाहट हुई।सिपाही, अपने कपड़े झाड़ते हुए अपनी अपनी जगह खड़े हो गए।

 “अटेंशन!”, स्लीवा ने कमांड दी। “आराम से!”

इसके बाद, रेजिमेंट के नज़दीक जाकर, वह सुर में चिल्लाया:

 “राईफल के मैनुअल, डिटेचमेंट के, गिनती ज़ोर से, रेजिमेंट, शुरू कर!”

 “एक!” सिपाही गरजे और उन्होंने अपनी अपनी राईफलें कुछ ऊपर फेंकी।

स्लीवा ने पंक्तियों का एक चक्कर लगाया, कुछ हिदायतें देते हुए: ‘बट को पूरा घुमाओ’, ‘संगीन ऊपर’, ‘बट अपने ऊपर’।फिर वह रेजिमेंट की ओर मुड़कर कमांड देने लगा:

 “आगे करेगा दो!”

 “दो!” सिपाही चिल्लाए।

और स्लीवा फिर चल पड़ा यह देखने के लिए कि इस स्टेप को कितनी सफ़ाई और सही तरीक़े से किया गया है।

राईफलों की डिटेचमेंट वाली एक्सरसाइज़ के बाद बगैर डिटेचमेंट वाली एक्सरसाइज़, टर्न अबाउट, दुहरी पंक्ति, संगीन फिक्स करने का, उन्हें हटाने का, और अन्य अनेक अभ्यास किए गए। रमाशोव ऑटोमेटिक मशीन की तरह वह सब करता जा रहा था जिसकी नियमानुसार उससे अपेक्षा की जाती थी, मगर उसके दिमाग से वेत्किन द्वारा असावधानीवश कहे गए शब्द नहीं निकल रहे थे : “अगर ऐसा सोचते हो, तो फौज में नौकरी करने की ज़रूरत ही नहीं है।फौज छोड़ देना चाहिए।” और युद्ध-नियमावली की ये चालाकियाँ, ये चपलता, राईफल ट्रेनिंग की आडंबरता, मार्च करते समय क़दमों की मज़बूती, और इनके साथ ही ये युद्ध-कौशल और व्यूह-रचनाएं, जिन पर उसने अपनी ज़िन्दगी के नौ बेहतरीन साल बरबाद कर दिए थे, जो उसकी बची हुई ज़िन्दगी को भी भरने वाले थे और जो अभी हाल ही तक उसे इतने महत्वपूर्ण और बुद्धिमत्तापूर्ण प्रतीत होते थे, - अचानक यह सब बड़ा बोरिंग, कृत्रिम, काल्पनिक, लक्ष्यहीन और आडंबरपूर्ण, समूची दुनिया की अपने आप को धोखा देने की कोशिश, कुछ निरर्थक बड़बड़ाहट जैसा लगने लगा।

जब कक्षाएँ ख़त्म हुईं, तो वह वेत्किन के साथ मेस में गया और दोनों ने खूब वोद्का पी। रमाशोव पूरी तरह अपने होश खो बैठा, उसने वेत्किन का चुंबन लिया, जीवन के ख़ालीपन और दर्द की और इस बात की भी शिकायत करते हुए कि उसे ‘एक महिला’ प्यार नहीं करती, उसके कंधे पर सिर रखकर ज़ोर ज़ोर से हिचकियाँ लेते हुए रोने लगा, और वह महिला कौन है – यह कोई भी, कभी भी नहीं जान पाएगा; वेत्किन जाम पर जाम पिए जा रहा था और बीच बीच में सहानुभूति से कह रहा था:

 “एक बुरी बात है, रमाशोव , तुम्हें पीना नहीं आता।एक जाम पिया और बहक गए।”

फिर उसने अचानक मेज़ पर मुट्ठी मारी और भयानकता से चिल्लाया:

 “ और अगर मरने का हुक्म देंगे – तो हम मर जाएंगे!”

 “मर जाएंगे,” दयनीयता से रमाशोव ने जवाब दिया। “मरना क्या चीज़ है? फालतू चीज़ है - मरना..मेरी रूह दर्द से तड़प रही है..”

रमाशोव को याद नहीं कि वह घर कैसे पहुँचा और उसे किसने बिस्तर में सुलाया। उसे ऐसा लगा कि वह गहरे नीले कोहरे में तैर रहा है जिस पर करोडों-करोडों सूक्ष्म चिंगारियाँ बिछी हैं। यह कोहरा धीरे धीरे ऊपर-नीचे डोल रहा है, अपनी इस हलचल में रमाशोव के शरीर को ऊपर नीचे फेंक रहा है, और इस लयबद्ध गति से सेकंड लेफ्टिनेंट का दिल कमज़ोरी महसूस करने लगा, जमने लगा और उसे मितली जैसा होने लगा। सिर मानो फूल कर बहुत बड़ा हो गया हो, और उसमें सुनाई दे रही थी “करे-गा एक!..करे-गा दो!”

 


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