दुर्गेश्वरी
दुर्गेश्वरी
काठमांडू का एक छोटा सा टाउन, जिसे रायल टाउन के नाम से ही जाना जाता है। यहाँ की आबादी बहुत ही कम है। उसी टाउन में मिस्टर रे कुछ ही महीने पहले आकर बसे हैं।
सड़क पर सन्नाटा पसरा हुआ है। ग्रीष्म ऋतु का समय है। हवा का नामोनिशान नहीं पेड़ भी जैसे स्तब्ध खड़े हुए थे मानो हिले तो कुछ हो जाएगा। सड़क के किनारे एक दुबला पतला कुत्ता खाना ढूँढ ने के लिए कूं कूं करता इधर उधर भटक रहा था।
ऐसी दोपहर में मिस्टर रे अपनी छड़ी के सहारे चलते हुए एक पुरानी टूटी-फूटी दुकान के पास आकर रुक जाते हैं। यह दुकान लावारिस सी कोई साठ साल से बंद पड़ी थी।कोई नही जानता यह दुकान किस की थी। बस हर समय सब ने इस पुरानी जर्जर दुकान पर एक बड़ा सा ताला लगा ही देखा।
मिस्टर रे अपने कुर्ते की जेब से चाबी निकालते हैं और ताले की तरफ बढ़ते हैं। उनके हाथ हिल रहे थे, वह ताला खोल दुकान के अंदर जाते हैं। सब तरफ मकड़ी के जाले लगे हुए थे। इधर उधर कुछ किताबें बिखरी हुई थीं जिन पर इतनी धूल जमी हुई थी कि किताब की रूपरेखा ही पहचानना मुश्किल था।यह दुकान किसी समय में एक लाइब्रेरी हुआ करती थी।
मिस्टर रे पूरी दुकान का मुआयना करने लगे, तभी उन्हें चुड़ियों की खनक के साथ हँसी की आवाज सुनाई दी। वह चौंक कर इधर-उधर देखने लगे।
" बहुत देर कर दी निलोय तुमने आने में ".... मिस्टर रे...अब बुरी तरह से चौंक गए यह मेरा नाम लेकर कौन बोल रहा है। मिस्टर रे को यह आवाज कुछ जानी-पहचानी लगती है। "हाँ"....यह आवाज तो मेरी दुर्गेश्वरी की है….!!"
इसी लाइब्रेरी में ही मिस्टर रे की दुर्गेश्वरी से पहली मुलाकात हुई थी। चौड़े पट्टे की साड़ी, माथे के बीचों बीच बड़ी सी लाल बिंदी, आँखों को मनमोहक बनाता काजल और हाथों में काँच की चुड़ियाँ।
'आहहहहह'....दुर्गेश्वरी का अनुपम सौन्दर्य देख निलोय ने एक लम्बी सी साँस ली। निलोय जैसे वहीं उस सुन्दर बाला को अपना दिल दे बैठा।
दुर्गेश्वरी भी कनखियों से निलोय को देखने लगी काठमांडू के इस छोटे से टाउन में यह धोती कुर्ता पहने राजकुमार सा दिखने वाला युवक कौन है? निलोय ने जैसे ही उस की तरफ देखा वह सकपकाती हुई किताबों की तरफ देखने लगी।
"आप कोई विशेष किताब ढूँढ रही हैं…..मैं कुछ मदद करूँ?" दुर्गेश्वरी ने नीचें नजरें करते हुए ना में सिर हिला दिया। निलोय उससे पूछता हुआ इतना नजदीक आ गया था कि दुर्गेश्वरी को अपने कानों के पास उसकी गरम साँसें महसूस होने लगीं और उसके शरीर में एक सिहरन दौड़ गई।
"तुम्हारा क्या नाम है?" निलोय ने बंगाली में पूछा। दुर्गेश्वरी ने एक किताब निकाल निलोय को थमा दी और वहाँ से तेजी से जाने लगी। निलोय ने देखा उस किताब पर दुर्गा की तस्वीर बनी हुई थी यानी कि "दुर्गेश्वरी" नाम हैं (बंगाली में इस तरह के नाम होते हैं)...."मेरा नाम निलोय है" निलोय जाती हुई दुर्गेश्वरी को पीछे से लगभग चिल्लाते हुए बोला….लाइब्रेरी में सब चौंक कर निलोय को देखने लगे।
लाइब्रेरी में दोनों की मुलाकातें होने लगी। अपने बालों को ठीक करते हुए दुर्गेश्वरी की चूड़ियों की खनक निलोय को दीवाना बनाए देती थी।
निलोय को आगे की पढ़ाई के लिए लंदन जाना था। उसने दुर्गेश्वरी को बताया तो वह उदास हो गई। निलोय उसे समझाने लगा "बस दो साल की तो बात है फिर हम विवाह कर कलकत्ता बस जाएगें। तुम अपना एक चित्र दोगी? वह तुम्हारी निशानी के तौर पर मेरे साथ रहेगा। और यह लो मेरा चित्र"....कहते हुए निलोय ने अपने बटुए से एक अपना पासपोर्ट साइज फोटो निकाल दुर्गेश्वरी को थमा दिया।
"वह कल अपना चित्र लेकर आएगी"... कहते हुए वह उदास मन से चली जाती है। निलोय ने सोचा वह कल जब चित्र लेकर आएगी तो वह उसे कॉफी हाउस ले जाएगा। कल का पूरा समय वह दुर्गेश्वरी के साथ ही बिताएगा क्यूँकि चार दिन बाद उसे लंदन के लिए निकलना था।
निलोय दूसरे दिन लाइब्रेरी में आकर दुर्गेश्वरी का इंतजार करने लगा पर वह नहीं आई। दूसरे दिन वह फिर आया घंटों दुर्गेश्वरी का इंतजार करता रहा पर वह नहीं आई। निलोय का दिल उछाले मार रहा था…. 'क्या हुआ होगा'?....निलोय दुर्गेश्वरी के घर जाने का मन बनाता है।
उसके घर जब पहुँचता है तो वहाँ ताला लगा मिलता है। उसे कुछ समझ नहीं आता दुर्गेश्वरी उसे बगैर बताए कहाँ चली गई।
निलोय लदंन चला जाता है। वहाँ से उसने कई बार दुर्गेश्वरी से सम्पर्क साधने की कोशिश करी पर पता चला उनका परिवार यहाँ से कहीं चला गया है। निलोय उदास हो जाता है। उसका फिर वापिस भारत आने का मन ही नहीं किया। वहाँ रहते रहते वह 'निलोय रे' से 'मिस्टर रे' बन गया था। वहाँ के सभी लोग नाम से ही संबोधित करते।
आज साठ साल बाद मिस्टर रे को वही पुरानी यादें खींच लाती हैं। वह उन यादों को एक बार अपने मरने से पहले महसूस करना चाहता थे। वह उस लाइब्रेरी के मालिक का पता करके उस से वह लाइब्रेरी खरीद लेते हैं।
मिस्टर रे उस लाइब्रेरी की किताबों से धूल हटा उन्हें टटोलने लगे तभी एक किताब नीचे गिरती है। तभी उन्हें वही चुड़ियों की खनक फिर सुनाई देती है। वह किताब उठाते हैं तो उस में से दुर्गेश्वरी का फोटो सरक के नीचे गिर पढ़ता है। मिस्टर रे फोटो देख उसे उठा कर अपने सीने से लगा लेते हैं। आज उन्हें जैसे अपनी सबसे कीमती चीज मिल गई हो। वह सोचने लगे….. उसकी दुर्गेश्वरी मतलब यहाँ आई थी...!! तभी एक पत्र उसी किताब में से झांकता नजर आता है।
मिस्टर रे उस पत्र को खोल कर पढ़ते हैं। वह दुर्गेश्वरी का लिखा पत्र था जिसमें उसने लिखा था कि "मेरे पिता पर बहुत कर्ज था। जिससे कर्ज लिया मेरे पिता उसी बूढ़े आदमी से मेरा विवाह कर रहे हैं। मेरे और छोटे भाई बहन है। उनकी खातिर मुझे यह विवाह करना ही होगा। तुमने मेरा चित्र मांगा था। तुम्हारी इस इच्छा को कैसे नकार सकती थी। तुम खुश रहना जब यह चित्र तुम्हें मिलेगा मैं कब की गणडकी नदी में समा चुकी होंगी। तुम्हारे अलावा और किसी के साथ जीवन बिताने का सोच भी नहीं सकती….तुम्हारी सिर्फ तुम्हारी…. दुर्गेश्वरी।"
मिस्टर रे की आँखों से आँसू बहने लगते हैं और वह सबसे कीमती चीज दुर्गेश्वरी का चित्र लिए लाइब्रेरी से बाहर निकल आते हैं….।🍁