हार श्रृंगार के फूल
हार श्रृंगार के फूल
ऊँ भूर् भुव: स्व:। तत् सवितुर्वरेण्यं। भर्गोदेवस्य धीमहि। धियो यो न: प्रचोदयात्।
लखनऊ के पास गंगा किनारे बसा छोटा सा गांव 'गोमती', जहाँ पर चारों तरफ परिजात के वृक्ष लगे हुए थे जिन में लगे हार श्रृंगार के फूल पूरे वातावरण को महकाए रखते। इस गांव की हवा में एक पवित्रता का एहसास था।
यह 'गायत्री मंत्र' गोमती गांव के मंदिर परिसर में सुबह के शांत वातावरण में गुंजायमान हो रहा था। यह आवाज विधवा औरत गंगा माई की थी।
गंगा माई रोज सुबह तड़के गंगा में स्नान कर गायत्री मंत्र बोलती हुई मन्दिर के पास लगे परिजात वृक्ष के नीचे से हार श्रृंगार के फूल चुन कर अपनी टोकरी में डालती और विष्णु भगवान के मंदिर की पेढ़ियों पर जा कर बैठ जाती। उसके साथ एक छोटा मेमना भी जिसके गले में छोटी सी घंटी बंधी थी दोड़ कर आकर पेढ़ियों पर बैठ जाता जैसे वह भी भगवान के दर्शन का इच्छुक हो।
दोनो मन्दिर खुलने का इन्तजार करते रहते। सूर्य देवता भी गंगा माई की आवाज सुन कर ही निकलते। पंछी भी जैसे गायत्री मंत्र की गूँज सुन कलरव करते अपने नित्य क्रम में लग जाते। विष्णु भगवान के चरणों में फूल अर्पित करके और मंदिर के पुजारी से प्रसाद ग्रहण कर के ही गंगा माई घर को लौटती। प्रसाद का एक हिस्सा उस छोटे मेमने को भी मिलता।
गंगा माई का घर क्या था गांव के मंदिर के पुजारी ने दया कर धर्मशाला का एक कमरा उसे दे दिया था जिसमें बस जरूरत का सामान था। मंदिर का पुजारी एक दयालु स्वभाव का व्यक्ति है।सबसे बुजुर्ग होने के नाते वह गांव का मुखिया भी है पूरा गांव उसके लिए परिवार की तरह है। गांव भर में किसी को भी दुख तकलिफ हो समाधान के लिए पुजारी के पास ही आता। गंगा माई भी उनकी दया पात्र का ही एक हिस्सा थी।
गंगा माई का यह साधारण सा कमरा जिसकी दिवारें काली हो झर रही थीं। छिपकली,चूहे पंछी सभी के लिए वह कमरा उनका घर था, गंगा माई से उनका एक रिश्ता सा बन गया था और हाँ वह पुरषोत्तम मेमना भी तो है जिसे इस कमरे में आने जाने की कोई मनाई नही थी। गंगा माई ने उसका नाम पुरुषोत्तम ना जाने क्यूँ रखा था ?
गंगा माई ने अपना पूरा जीवन गंगा माँ और बिष्णु भगवान को अर्पित कर दिया था। वह सभी इच्छाओं और भावनाओं से दूर जा चुकी थी। वह किसी से बात नही करती किसी को नही मालूम वह कहाँ से आई है उसका क्या नाम है पर चेहरे से किसी संभ्रांत घर की महिला दिख रही थी, उसकी गंगा माँ के प्रति भक्ति देख सब उसे गंगा माई कह कर ही बुलाने लगे।
संध्या काल को जब गंगा किनारे गंगा आरती होती तब गंगा माई वहीँ घाट की पेढ़ी पर बैठ ना जाने कहाँ लीन हो जाती आरती खत्म होते ही पत्ते के दोने में हार श्रृंगार के कुछ फूल रख और दिया जला कर गंगा में अर्पित कर देती। यह उसका नित्य का क्रम था।
आज सुबह से मौसम बहुत खराब है जोरदार बारिश हो रही। पुजारी और गांव के सभी लोगों द्वारा गंगा आरती गंगा किनारे रखने की बजाए मन्दिर में करने का फैसला लिया गया ।
आज आरती भारी बरसात के चलते गंगा किनारे की बजाय मंदिर में होगी यह बात गंगा माई को पुजारी ने अपने लड़के द्वारा कहलवा भेजी क्योंकि वह जानता था गंगा माई किसी से बात नही करती। गांव में क्या हो रहा है क्या नही इन सब बातों से उसे सारोकार ही नही था। पुजारी ने सोचा इतनी बरसात में कहीँ नदी किनारे चल दी तो रास्ते में कोई भी दुर्घटना हो सकती है वैसे भी गंगा माई अपने में ही लीन रहती है।
गंगा माई के लिए तो शीत ऋतु,ग्रीष्म ऋतु या बरसात कोई मायने नही रखता। उसके लिए सुबह विष्णु भगवान के दर्शन और शाम को आरती के बाद गंगा माँ को हार श्रृंगार के फूल अर्पित करना। यह दैनिक क्रम उसकी तपस्या की भाँती था जिसे कोई भी बाधा नही हिला सकती थी।
पुजारी ने जो कहलवाया गंगा माई को उससे कोई सारोकार ही ना था और ना ही इस बरसात से, उसे तो अपने समय और नियम मुताबिक गंगा माँ के दर्शन करने जाना ही था। वह साड़ी के पल्लू में हार श्रृंगार के फूल बांध जैसे ही चलने को तैयार हुई पुरुषोत्तम (मेमना) जो इतनी भारी बरसात के चलते गंगा माई के कमरे में ही चला आया था, उसकी साड़ी पकड़ खींचने लगा जैसे वह अभी उसे जाने नही देना चाह रहा हो। चूहे, पंछी,छिपकली जो भी उस कमरे में शरण लिए हुए थे एक अलग सी आवाज निकालने लगे जैसे वह सभी गंगा माई को बाहर जाने से रोकना चाह रहे हों। बाहर हो रही तुफानी बारिश भी भयानक शोर मचा रही थी जैसे की बाहर ना निकलने की चेतावनी दे रही हो। हवा जोरों से बहती हुई चिघांड़ रही थी। रास्ता डर कर ना जाने इस तुफान में कहाँ छुप गया था।
गंगा माई ने पुरुषोत्तम के सिर पर हाथ फेरते हुए अपना पल्ला छुड़वाया और बाहर निकल गंगा नदी की तरफ चल दी। अचानक बारिश थोड़ी धीमी पड़ गई मानों उसकी तपस्या में विघ्न नही डालना चाहती हो। रास्ता धुंधला धुंधला नजर आने लगा।
गंगा माई नदी किनारे पहुंच गई,मंदिर में आरती शुरू हो गयी थी। वहीँ पेढ़ी पर बैठ गंगा माई ध्यान में जैसे लीन हो गई।
इधर पुरुषोत्तम( मेमना) कैसे गंगा माई को अकेला छोड़ देता,उनके पीछे पीछे चल दिया और गंगा माई जब ध्यान में लीन थी वहीँ पास में बैठ गया।
आरती होते ही घंटों की आवाज आने लगी। गंगा माई उठकर गंगा माँ को हार श्रृंगार के फूल अर्पित करने के लिए पेढ़ियां उतरने लगी। पेढियां उतरते उतरते अचानक गंगा माई का पैर फिसल गया और गंगा माई अपनी गंगा माँ की गोद में लीन हो गई। गांव वाले रात को कई देर तक पुरुषोत्तम की कातर आवाज में मेंमें सुनते रहे पर कोई कुछ समझ ना पाया।
तड़के सुबह जब लोगों को पता चला तब देखा गंगा पर हार श्रृंगार के फूलों की चादर सी बिछी हुई है मानो गंगा माँ ने उसे अपने आंचल में छुपा लिया हो। सब यही कहने लगे गंगा माई कोई पवित्र आत्मा थी।
पुजारी और गांव वालों की सहमति से गंगा माई के सम्मान में भोर के समय भी आज गंगा किनारे आरती हुई। सब गांव वालों ने गंगा माई को सम्मान देने के लिए वैसे ही बड़े बड़े दीपों के साथ गंगा आरती की जैसे वह संध्या काल में गंगा माँ की करते हैं पर बस आज सबकी आँखें नम थीं और पुरुषोत्तम उसका कुछ पता नही था लेकिन उसके गले की घंटी जरूर हार श्रृंगार के फूलों के ऊपर अटकी दिखी ....।।
संगीता🍁