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V. Aaradhyaa

Tragedy Inspirational

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V. Aaradhyaa

Tragedy Inspirational

द्रौपदी बनना ही क्यूँ

द्रौपदी बनना ही क्यूँ

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"उठो, द्रौपदी! वस्त्र संभालो

या...

(शस्त्र उठा लो)

अब गोविन्द ना आवेंगे!"


पिछले काफ़ी समय से इन पंक्तियों पर काफ़ी कुछ बोला और लिखा जा रहा है,

तो मेरे जेहन में भी एक बात आ रही है कि...

आज के सन्दर्भ में "द्रौपदी बनना ही क्यूँ है?"


बस अपने विचार रख रही हूँ। यहाँ किसी व्यक्ति विशेष या किसी के लेखन पर मेरा कोई आक्षेप नहीं है। सिर्फ अपनी बात रख रही हूँ।


आज के दौर में स्त्री को अपनी रक्षा करने का

संकल्प लेना होगा।

देखा जाए तो आज गोविन्द सबके पास हैं ।

कभी मोबाइल के ऐप में जिसमें पुलिस हेल्पलाइन से लेकर पुलिस कण्ट्रोल रूम तक के नंबर होते हैं। साथ ही कई सारे ऐप कई महिला सुरक्षा संबंधित संस्थानों से संबंधित होते हैँ और सिर्फ एक डायल पर होते हैं।

और शिक्षा... शिक्षा भी तो एक हथियार से कम नहीं।

इसके अलावा समय और अनुशासन देखकर चलना भी अपने आप में सुरक्षा की ओर उठाया हुआ एक सकारात्मक प्रयास है।


अगर स्त्री की तुलना पुरुष से ना होकर खुद को एक समर्थ और बेहतर इंसान बनाने की कोशिश हो तो वो एक इंसान को सम्पूर्ण बनाने में बहुत सहायक हो सकता है। फिर चाहे वह स्त्री हो या पुरुष।


इतिहास पलटकर देखें तो कोई दुशासन या दुर्योधन तभी बनते है जब स्त्रियाँ उनके समक्ष निरीह और मूक बन जाती है।

कभी गांधारी की तरह पति भक्ति में अपने आसपास की ज़िम्मेदारी के प्रति भी नेतृहीन हो जाना तो कभी कुंती की तरह अपने वचन को अधिक महत्ता देते हुए कदाचित दूसरी स्त्री को एक वस्तु मात्र समझा जाना...

ये सब एक विसंगतियां क्यूँ हो?

कहने का मतलब आज अपने सतीत्व की रक्षा का बीड़ा खुद उठा सकती हैं स्त्रियां।

एक सवाल छोड़ रही हूँ, जो मेरे भी जेहन में है।

आज की स्त्री द्रौपदी बनना स्वीकार ही क्यूँ करे? "


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