दो-पंछी (कहानी)
दो-पंछी (कहानी)


आज भी आसमान वैसा ही नीला था। ठंडी हवा के झोंके भी वैसे ही थे। पेड़ों के लम्बे होते साये बता रहे थे कि सूरज अपनी मंज़िल की ओर जा रहा है। कुलदीप भी वर्धमान पार्क में यूँ ही रोज़ इसी वक़्त चहल क़दमी करने आता था। लेकिन आज उसके कदम रोज़ की तरह आहिस्ता से न उठ कर, उनमें कुछ तेज़ी थी। इसका अहसास उसे तब हुआ जब वह पार्क के गेट से सनसेट पॉइंट तक की दूरी कुछ जल्दी ही तय कर गया। अभी सूर्य अस्त होने में कुछ ही क्षण शेष थे। क्षितिज की लालिमा सुनहरी हो गई थी। सूर्य भी तो सोने के लाल गोले की तरह चमक रहा था। बड़ी सी झील के उस पार सोने के उस गोले के किनारे पानी की लहरों को ऐसे छू रहे थे। मानो बस इस झील में समाने को बेताब हों। थोड़ी ही देर में सूर्यअस्त हो गया। कुलदीप को सनसेट पॉइंट से यूँ लगा जैसे रोज़ सूरज शाम ढलते ही उस झील के आगोश में जाकर सुकून पाता है।
कुलदीप इसके बाद पार्क में देर तक टहलता रहा। उसके दिमाग़ में तो कॉलेज से आने बाद से ही उथल-पुथल मची हुई थी। कॉलेज में बढ़ी हुई फीस के विरोध में आंदोलन चल रहा था।
यही आंदोलन अब दिमाग़ की नसों में भी उतर चुका था।
क्या बापू ने इसीलिए अंगेज सरकार के खिलाफ आंदोलन किये थे, कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भी छात्रों को अपनी ही चुनी हुई सरकारों के खिलाफ आंदोलन करना पड़ेगा। नहीं ऐसा नहीं हो सकता। देश में शिक्षा प्रणाली तो कम से कम ऐसी हो कि गरीब छात्रों को फीस या तो माफ़ हो। या फिर उन्हें बोझ भी न लगे। कुलदीप की कुछ तासीर गर्म थी। कहीं भी कुछ भी, न वह गलत देख सकता था, न सुन सकता था, न उसे कहना गवारा था। जब भी कुछ ऐसा होते देखता, उत्तेजित हो जाता था।
श्रेया आज तो, गुलाबी सूट में बहुत प्यारी लग रहा थी। गिरते हुए दुपट्टे को जब वह हाथ फैला कर समेटती तो ये अदा कुलदीप को घायल कर देती। उसकी उठी हुई पर्सनालिटी , किसी रैंप पर जैसे वॉक करते हुए इठलाते कदम और खनकती हुई आवाज़ किसी का भी धयान आकर्षित करने के लिए काफी थी।
कॉलेज की कैंटीन में ब्रेक में कॉफी पीना तो जैसे रोज़ का दस्तूर बन गया था। सारे दोस्तों के साथ कुलदीप और श्रेया भी ग्रुप में शामिल थे।
- कुलदीप, फीस ही तो बढ़ी है। कल हमारे यूनियन सेक्रटरी को प्रिंसिपल ने आश्वासन भी दिया है। हायर अथॉरिटी से बात करने का। इसमें इतने चिंतित होने की क्या बात है?
- बात कुछ नहीं है श्रेया, गरीब विद्यार्थी इस से प्रभावित होंगे? उनके और दूसरे भी खर्चे हैं। इतनी मंहगाई के दौर में गरीबों को दो वक़्त की रोटी मिल जाए वही बहुत है।
- तुम तो नहीं होंगे न ! श्रेया की बात सुनकर। राहुल, प्रताप, सुनिधि सब ज़ोरदार ठहाका लगा कर हंस दिए।
- और बात अगर, आगे नहीं बढ़ी तो फिर आंदोलन का रास्ता तो खुला है। गाँधी जी, हमें ये एक अचूक मन्त्र दे कर गए हैं। अपनी बात मनवाने के लिए। और फिर भी बात बनी तो आमरण अनशन करने से हम पीछे नहीं हटेंगे। प्रताप ने गंभीरता से कह
ा।
- बिल्कुल। जैसे सब ने एक सुर में सुर मिलाया।
इसके बाद सब लोग गपशप में व्यस्त हो गए। और अंत में अपनी अपनी क्लास ओर चले गए।
श्रेया की एक-एक अदा तो कॉलेज में जैसी कुलदीप के दिल में रिकॉर्ड हो जाती और जब वह तन्हाई में लेटता तो वही रिकॉर्ड रीप्ले हो जाता। इसीलिए किसी न किसी बहाने वह रोज़ श्रेया को कॉल कर लेता।
आज भी ऐसा ही हुआ।
- हेलो, कैसी हो श्रेया?
- ठीक हूँ।
- आज जो तुम जो आसमानी सूट पहन कर आईं थीं उसमें न बिल्कुल आसमानी परी जैसी लग रहीं थीं।
- तुम्हारी तबियत तो ठीक है न, कुलदीप ?
- क्यों?
- इतना ही कहने के लिए फ़ोन लगाया था क्या? कॉलेज में ही कह दिया होता।
- अरे, सब लोग थे न साथ में। अकेले में कहने का मौका ही नहीं मिला।
- तुम भी न कुलदीप, एक नंबर के डरपोक इंसान हो। सब लोगों के साथ तो गला फाड़-फाड़ कर नारे लगाते हो और अकेले में दिल की बात भी कहने से डरते हो। श्रेया ने जैसे अधिकार से कहा।
- तो, अब तो कह रहा हूँ। अभी भी ठसक थी कुलदीप के लहजे में।
- अगर ऐसा ही करते रहे तो देखना>>> "कहीं देर न हो जाए।" अच्छा रखोगे कि और भी कुछ कहना है। मम्मी आवाज़ लगा रहीं हैं। शायद मुझे किचन में बुला रहीं हैं।
- अरे थोड़ा रुको न, यार।
- अच्छा सुनो, तुम भी नीली जीन्स और सफ़ेद कुर्ते पर बहुत जमते हो। अच्छा ठीक है अब कल मिलते हैं कॉलेज में। सीयू।
- अपनी तारीफ पहली बार सुनकर उसने दिल के दरवाज़े पर श्रेया की दस्तक की आहट तो महसूस कर ली थी।
थोड़ी देर मोबाइल यूँ है कान के पास लगाए रहा। शायद कुछ और भी कहे। उसके कानों में मिश्री सी घोल गए थे, श्रेया के ये शब्द। बॉय, कहता इसके पहले ही फ़ोन कट चुका था।
श्रेया भी मुस्कराती हुई फ़ोन कट करके मम्मी के पास किचन में हाथ बटाने चली गई।
इधर कुछ दिन से श्रेया महसूस कर रही थी। कुलदीप के दिल में कहीं तो भी एक नरम से कोने ने, न केवल जन्म ले लिया है बल्कि उसमें प्यार सा, नन्हा सा पौधा अंकुरित हो रहा है।
श्रेया बहुत देर से गिफ्ट हाउस में कुलदीप लिए गिफ्ट देख रही थी। कल उसका जन्मदिन था। सुनिधि उसकी फ्रेंड भी उसके साथ थी।
- यार श्रेया, उसके लिए गिफ्ट खरीदना बहुत मुश्किल है। मुझे तो समझ नहीं आता, वह कैसा इंसान है। गुस्सा तो जैसे उसकी नाक पर रखा रहता है। पक्का गाँधी जी के तीन बंदरों में से एक लगता है। अब ऐसे थोड़े न दुनिया चलती है। हमें सब कुछ देख-भाल कर भी तो चलना रहता है।
- अरे, तुझे नहीं पता। अब वह बहुत बदल गया है। वो देखो गुटुर्गू करते हुए कांच के दो पंछी कितने प्यारे लग रहे हैं। इन्हें ही फाइनल करते हैं।
- हाँ, सुन्दर तो हैं।
"लेकिन श्रेया, तो क्या तुम दोनों ...??? "