दो पहियों की प्रेमिका
दो पहियों की प्रेमिका
10वीं पास करने के बाद बड़े होने का सरकारी सबूत भी मिल जाता है। 10वी पास कर गाँव के पास वाले शहर की सबसे बड़ी सरकारी स्कूल में दाख़िला मिला, बड़ी स्कूल से मतलब सिर्फ़ वहाँ पढ़ने वाले छात्रों की संख्या से हैं। घर से स्कूल जाने के लिए मेरे परिवार की पुश्तेनी साइकिल का मालिकाना हक़ भी मिल गया ओर स्कूल जाने से पहले की शाम को परिवार की चिंता ओर बातो का केन्द्र मैं था।
परिवार से मेरा मतलब आज के दौर का माता पिता ओर भाई वाला परिवार नहीं बल्कि कम स कम पन्द्रह जनो का भरा पूरा संयुक्त परिवार था जिसमें दादा दादी, चाचा चाची, भाई बहन सब थे ओर आज की शाम सबकी चिंता का विषय मैं ही था, कल पहली बार साइकिल से हाईवे होते हुए शहरी स्कूल जो जाना था, तो आज शाम सबने ख़ूब अच्छे से समझाया ओर सुबह छोटे चाचा ओर बड़े भाइयों ने साइकिल पर स्कूल के लिए रवाना किया। अब ये हल्के लाल रंग की बड़े बड़े पहियों ओर काली सीट वाली, मेरी ऊँचाई से थोड़ी ही कम ऊँची साइकिल अगले कुछ सालों तक मेरा बोझा ढोने वाली थी। आज पहली बार साइकिल से स्कूल जाते ख़ुद को बड़ा समझते हुए रोड पर मारे डर के धीरे ही चल रहा था ओर पुलिया पार करने का दबाव तो शतक के पास आए खिलाड़ी से भी ज़्यादा था, स्कूल के साइकिल स्टेण्ड में नयी रेंजर यानी मुड़े हेंडलो वाली आकर्षक साइकिलों के बीच सबसे ऊँची मेरी साइकिल दूर से ही नज़र आ जाती। उन नयी नवेली साइकिलों को देख मुझे अपनी से लगाव कम ओर शर्मिंदगी होने लगती पर ऊपर बैठ पेंडल मार ते ही उसकी सरपट दौड़ मुझे सब कुछ भुला उसके प्यार ओर आनंद में रमा देती।
उम्र के उस दौर में लगभग चार साल तक ये दो पहियों वाली मेरी प्रेमिका हर वक़्त मेरे साथ ओर मेरी मदद थी, हाँ ये साइकिल ही थी जो सुबह 6 बजे से मेरा बोझ उठा ट्यूशन पहुँचाती तो स्कूल ले जाना भी वो अपना फ़र्ज़ मानती, पानी से भरे ज़रिकेन ओर चारे की बोरियाँ उठा भी बड़ा इठला के चलती तो कभी कभी अपनी चैन उतार मुझ पर ग़ुस्सा भी होती तो पंक्चर ही चल मुझ पर प्यार भी बरसाती कुल मिला कर वो हल्के लाल रंग की बड़ी सी साइकिल मेरे सबसे अच्छे दोस्तों से भी अच्छी थी।
सड़कों की दौड़, शहरी गलियों की आवारापंती या फिर खेतों की पगडंडिया साइकिल मेरे साथ ज़रूरी थी वो दौर ही कुछ ऐसा था जब गाँवों की गलियों में उनकी ही चलती थी मेरी साइकिल की सरपट दौड़ के साथ समय भी दौड़े जा रहा था।
अब धीरे धीरे हमारे बीच कुछ दूरियाँ आ रही थी, साइकिल तो मेरे लिए तैयार थी पर मेंने ही कुछ नए दोस्तों के प्यार में दूरी बना ली, अब उसकी सीट सुहाती नहीं ओर पेंडल भी कुछ भारी लगते, अब वो साइकिल शर्म सी लगती मुझ को ओर मन पापा की बाईक में खिंचता, धीरे धीरे अब मैंने उस को छोड़ ही दिया, अब सबने उस को छोड़ ही दिया था। दीवार के सहारे खटियाँ में पड़ी बुढ़िया की तरह लेटी रहती ओर हर आने जाने वाले को देख शायद अपनी जवानी के दिन याद करती। गर्मी, सर्दी ओर बरसात को झेलती लाल रंग की साइकिल अब काली पड़ चुकी हे ओर दोनो पहिए भी मुड़ गए।
दीपावली की सफ़ाई के दिनो अपनी बाईक को खड़ी कर देखा मम्मी कबाड़ी वाले को घर का कबाड़ दे रही थी। कबाड़ी के ठेले पर नज़र पड़ी तो काली पड़ चुकी मेरी लाल साइकिल अर्थी पर लाश की तरह पड़ी थी। मुझे मेरे छोटे अंकल की बताई वो बात याद आई जब पहली बार घर आई साइकिल का नयी नवेली दुल्हल की तरह स्वागत हुआ था।
ठेले पर पड़ी साइकिल की तरफ़ पुनः देख कर बस भारतीय दुल्हनो की प्रमुख उक्ति याद आई “डोली में आई थी ओर अर्थी पर ही जाऊँगी” उधर कबाड़ी ठेले को धक्का दे लिए जा रहा था....