दीपक तले अंधेरा...
दीपक तले अंधेरा...
पत्रकार होने का मतलब है साहसी और निर्भीक होना। सच को उजागर करना। जनता के दुख दर्द को सरकार और प्रशासन के समक्ष उठाना। और न जाने कितने सकारात्मक गुण जो मनुष्य में होने चाहिए। हां, यही सब कुछ कर पत्रकार बनने के लिए लालायित था रमेश। पढ़ते समय जब उसके लेख समाचार पत्रों में छपते थे तो वह रोमांच से भर उठता। उसके सहपाठी उसके लेखों की तारीफ करते तो उसका सीना गर्व से चौड़ा हो जाता। बहुत पढ़ लिखकर उसने पत्रकारिता को ही जीवन का ध्येय बनाया। उसने बहुत नाम वाले एक दैनिक समाचार पत्र में नौकरी ज्वाइन कर ली। रोज दोपहर बाद दो बजे से रात दो बजे तक अखबार में काम करता। शुरुआत में उसे काम में बहुत मज़ा आता। वह खबरों के संपादन और लेखन में बड़ी निपुणता से पूरे मनोयोग से काम करता। धीरे धीरे काम के दौरान ही उसे अनेक अनुभव हुए।
पहला अनुभव उसके लिए बड़ा झटका था। संपादकीय पेज पर उसके प्रभारी श्रीमान गुप्ताजी काफी बुजुर्ग थे। बकौल गुप्ता जी अखबार के स्थानीय संपादक से उनके बहुत अच्छे रिश्ते थे। गुप्ताजी पत्रकारिता जगत में काफी लंबा अनुभव भी रखते थे। ग्रामीण डेस्क की खबरों में गुणवत्ता बनाई जाए इसके लिए संपादक जी ने उन्हें खास जिम्मेदारी दे रखी थी। यूं तो गुप्ता जी थे बहुत वाचाल लेकिन निर्णयों को लेकर हमेशा संशय में रहते थे। यह बात धीरे धीरे रमेश को समझ में आने लगी थी। इसलिए वह गुप्ता जी की कार्यशैली को लेकर काफी सतर्क रहता था। गुप्ता जी पूरी खबर ध्यान से नहीं पढ़ते थे लेकिन हर उप संपादक के शीर्षक में जरूर रद्दोबदल कर देते। ऐसा वो 90 फीसदी मामलों में करते। कई दफा उन्होंने अनर्गल शीर्षक देने की भी ग़लती कर दी लेकिन चालाक और वाचाल इतने कि उस ग़लती के लिए उप संपादक को दोषी ठहरा देते थे और खुद बच निकलते। रमेश करीब चार माह में उनकी हर अदा से धीरे धीरे वाकिफ हो चुका था। लिहाजा जब वो उसके शीर्षक में बदलाव करते तो उसे वह एक बार फिर देख लेता। एक दिन एक फोटो के कैप्शन में रमेश ने भव्य यात्रा लिख दिया। गुप्ता जी को पता नहीं क्या सूझी उन्होंने भव्ययात्रा को काटकर शवयात्रा लिख दिया। यह कैप्शन जब कंपोजिंग रूम में गया तो हंगामा मच गया। गुप्ता जी तो वरिष्ठ थे साथ में वाचाल भी झट उन्होंने इसका ठीकरा साथी उप संपादक पर फोड़ना चाहा। हालांकि पर्चे पर उनकी ही हस्तलिपि थी लेकिन उन्होंने उसे अपना मानने से इंकार कर दिया। चूंकि कोई और उस ग़लती की जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं था सो उनके हाथ पांव फूल गए। उनकी बातों से सभी साथियों को पता चला कि उक्त ग़लती पर संपादक और यूनिट के महाप्रबंधक दोनों बहुत नाराज़ हैं। पिछले करीब एक हफ्ते से ऐसी गलतियों की भरमार होने की शिकायत मिलने पर उन दोनों ने कड़ी नाराजगी जताई। साथ ही यह फरमान जारी कर दिया कि ज्यादा ग़लती करने वाले साथी को संस्थान से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाए।
ग्रामीण डेस्क के चार में से दो अत्यधिक ग़लत
ी को लेकर पहले से ही निशाने पर थे। ऐसी दशा में वे इस ताजी ग़लती को अपनी मानने को तैयार न थे। अब शेष दो थे एक रमेश और दूसरे गुप्ता जी। ऐसे में गुप्ता जी अंदर तक हिल गए थे। उनमें इतना साहस शेष न रहा कि वह सच को स्वीकार कर मामले का अंजाम सुन और देख लें। उन्हें नौकरी भी कुछ ज्यादा प्यारी लग रही थी।
शब्दों में शहद घोलकर वे रमेश को कुछ खास बातें शेयर करने के लिए कार्यालय में ही एक तरफ बुलाकर ले गए। उसे अपनी वरिष्ठता और उम्र का हवाला देकर बोले कि इस ग़लती को वह अपनी मान लें ताकि बात रफा दफा हो जाए। अब तक रमेश अकेला शख्स था जिसने कोई ग़लती नहीं की थी। ऐसे में उसे नौकरी से निकाले जाने की संभावना न्यूनतम थी। गुप्ता जी की दशा देखकर एकबारगी रमेश को बहुत आश्चर्य हुआ। उनके हाव भाव से रमेश को तगड़ा झटका भी लगा। उसे सामने दिख रहा था कि कैसे कैसे डरे और सहमे लोग पत्रकार के रूप में काम कर रहे हैं। वो सच को कहने से भी घबराते हैं। कुछ देर के सोच विचार के बाद रमेश ने उस ग़लती को अपनी मानकर संपादक जी के समक्ष पेश होने का निर्णय लिया। वह खुले और निश्छल मन से संपादक जी के केबिन के पास पहुंचा। संपादकजी की निगाह उस पर पड़ी। रमेश ने अनुमति लेकर उनकी केबिन में प्रवेश किया। संपादक जी बोले, कहो क्या हालचाल है। कैसे चल रहा काम। वे कुछ और बोलते इससे पहले ही रमेश ने अपनी बात कहने की अनुमति चाही। उसने बताया कि सर कंपोजिंग रूम में गलत पहुंचे कैप्शन के बारे में कुछ बताना। सर, यह मेरी ग़लती थी। भूलवश मैंने ही ग़लत लिखा दिया। इतना सुनते ही संपादक जी प्रश्नवाचक मुद्रा में बोले जानते हो उसका परिणाम क्या होना है। हां,सर हमें पता है। ग़लती हमारी है। इसलिए इसे स्वीकार कर रहा हूं। इतना कहकर रमेश चुप हो गया।
उधर संपादक जी ने कंपोजिंग रूम से वह पर्चा मंगाया जिस पर कैप्शन लिखा था। उसमें पूर्व में लिखे शब्द में कटिंग की गई थी। पूर्व और बाद के शब्दों की राइटिंग अलग अलग थी। कटिंग के बाद लिखे शब्दों की ओर इंगित कर संपादकजी ने पूछा कि क्या यह भी तुमने लिखा है? रमेश चुप रहा। संपादक जी बोले, हमें उस व्यक्ति की तलाश है जिसने सही को ग़लत किया। आपकी बात हमने सुन ली। अब आप जा सकते हैं। जाइए, अपना काम करिए। रमेश अपनी सीट पर लौट आया। अपने काम में जुट गया। उसके साथियों की नजरों में प्रश्न तैर रहे थे कि आगे क्या होगा। लेकिन रमेश निश्चित था। डर और अनिश्चितता उससे कोसों दूर थे। अलबत्ता वह अपनी धुन में अपना काम निपटाता रहा। इस बीच देर तक उसके दिमाग में दीपक तले अंधेरा मुहावरे की पंक्तियां घूमती रहीं जिसे वह बुदबुदाता भी रहा। उधर, सच संपादक जी के सामने आ चुका था। हालांकि गुप्ता जी की नौकरी तो बच गई लेकिन संपादक जी ने उन्हें जमकर खरी खोटी सुनाई। घटना ने रमेश को समझा दिया कि पत्रकारिता जगत में सब निर्भीक लोग ही काम करते हों यह कतई जरूरी नहीं।