रंगों के प्रति प्रीति
रंगों के प्रति प्रीति
होली के दिन तरह तरह के रंग अलग अलग पात्रों में घोलकर उनकी तीव्रता की परख करना कभी उसका अपना प्यारा शगल था। कई छोटे बड़े गिलासों और कटोरियों को एक मेज पर जमा कर घंटों अपने प्रयोग में लगी रहती थी राधू यानी राधिका। होली पर उसका ऐसा हर प्रयोग पापा डा चंद्र प्रसाद पर होता था। वह भी खिल उठते उसकी बाल सुलभ करतबों से। कभी कभी रंग पक्का होने के बाद भी वे चुहल में कह देते। अरे ये तो कच्चा निकल गया। इतना सुनते ही राधू फिर जुट जाती उस रंग को गाढ़ा करने की कोशिशों में। फिर कुछ और रंग पानी में घोलती। उसे हाथ में लेकर अपने पापा के पास पहुंचती। उनकी झक सफेद शर्ट पर कुछ बूंदें डाल पूछती कितना खिला है यह रंग। पापा के श्रीमुख से बहुत अच्छा शब्द सुनकर ही उसे संतोष होता। साथ ही अपने प्रयोग पर भरोसा बढ़ता। होली के दिन जो भी पापा डा चंद्र प्रसाद से मिलने आता राधू उसका अपने खास अंदाज में स्वागत करती। वह हर आगंतुक को पहले प्रणाम करती। फिर किसी एक पात्र का रंग आगंतुक पर उड़ेलकर खुश होती। इसी में उसे अपार खुशी मिलती। इतनी कि आगंतुक का मन भी उसकी चहक से खुश हो उठता।
कोरोना का दूसरा चरण राधू की सारी खुशियों को निगल गया। हलके से बुखार के बाद उसके पापा डा चंद्र प्रसाद कुछ ही घंटों में काल कवलित हो गए। उसने सपनों में भी जो सोचा न था वो उसे देखना पड़ा। राधू की सारी चहक और ललक को जैसे पाला मार गया हो। खामोशी ने उसके समूचे व्यक्तित्व को जकड़ सा लिया है। उसमें आए बदलाव को हर कोई महसूस करता है। आसपास के लोग अक्सर आपस में यह चर्चा करते हैं। आपस में उसकी पीड़ा को महसूस कर काल गति पर मीन मेख निकालते हैं। राधू की खामोशी उसकी मां को बहुत पीड़ा भी देती है। वह इस बात को लेकर खासी चिंतित भी रहती हैं। बिटिया पढ़ लिखकर अच्छी बने बाप की तरह यही सोच उन्हें घेरे रहती है। ईश्वर ने उन्हें दर्द ज्यादा दे दिया,यह शिकायत भी उनके लबों से फूट पड़ता है जब तब। बकौल मैडम चंद्र प्रसाद, राधू हर दिन अपने पिता की यादों से घिरी रहती है। सोते समय अक्सर वो बड़बड़ाती भी है। ठीक वैसे जैसे वह पिता के साथ प्रत्यक्ष वार्तालाप कर रही हो। अचानक यकायक उठ बैठती है। नींद खुलते ही फिर खामोशी की गर्त में डूब जाती है। कहती भी हैं कि समय बड़े से बड़े जख्म को भर देता है। ऐसा अपने बुजुर्गों के मुंह से खूब सुना है। प्रभु मेरे राधू के मन को भी सांत्वना देंगे यह भरोसा है। तभी तो रोज मंदिर दर मंदिर देवों को मनाती हूं। सब सब्र और शक्ति देवें राधू को। अब तो रंगों को देखती भी नहीं राधू। जैसे सब कुछ भूल गई हो। हां, सोते में कभी कभी सिसक उठती है कुछ यादकर। पूछने पर बस पापा के साथ होने की बात बयां कर पाती है। सपने में क्या हुआ यह भी उसे क्रमानुसार याद नहीं रहता है।
होली पर तमाम लोगों का घर पर जुटना और पापा का हर किसी का दिल खोलकर स्वागत करने का अंदाज उसके बाल मन पर गहराई तक अंकित है। उसका बाल मन दुनिया की स्वार्थपरकता से अब भी अनजान हैं। मां से पूछ बैठती है कि अब होली के दिन वो लोग नहीं दिखते जो धड़धड़ाते और शोर मचाते घर तक आ जाते थे। पापा के न होने का उसे गम है पर इस दुनियावी सच्चाई का नहीं कि सब यार मतलब के होते हैं। मैडम चंद्र प्रसाद के पास उस बाल मन से उपजे सवालों का प्रायः कोई जवाब नहीं होता है। उनकी आंखें डबडबा जाती हैं। फिर वहीं रुक जाता है राधू के प्रश्नों का सिलसिला।
अब हर दिन मैडम चंद्र प्रसाद अपने दिल को मजबूत करती हैं यही सोचकर कि शायद अगले कुछ सालों में राधू को अपने सवालों का जवाब उसकी खुद की समझ से मिल सके। ईश्वर उसे सवालों के जवाब खोजने में हर तरह से समर्थ बनाएंगे यह भरोसा भी है। यह उम्मीद भी वो रंगों से फिर उसी तरह चहक उठेगी जैसे पहले। चाहने वाले भी यही दुआ करते हैं कि प्रभु राधू के कलरव को पूर्ववत कर दें। सबको विधि के विधान का प्रबल आसरा है। प्रभु राधू के मन में रंगों के प्रति प्रीति भरेगा यह उम्मीद भी सबके मन में काफी गहरी है।