लखीमपुर खीरी वाले पंडित जी...
लखीमपुर खीरी वाले पंडित जी...
यूं तो हर मनुष्य तन को पोषण देने के लिए आहार ग्रहण करता है। आम तौर पर यह देखा गया है कि मन के अनुसार सुस्वादु भोजन मिल जाए तो भी हर व्यक्ति थोड़ी बहुत मात्रा आहार की बढ़ा देता है लेकिन कुछ लोग या पात्र ऐसे भी आपको अपने आस पास दिख जाएंगे जिनकी खुराक हर किसी को विस्मय में डाल देती है। उनके साथ एक भी दिन भोजन करने वाला कोई भी व्यक्ति उन्हें लंबे समय याद रखता है। भूले भी तो कैसे। ईश्वर प्रदत्त शरीर का पोषण करने की उनकी चाहत या यूं कहें जुनून दुनिया में जो निराली होती है। मेरी इस कहानी के पात्र भी अपनी आहार क्षमता के नाते खासे मशहूर थे। हालांकि ईश्वर ने उन्हें इकहरी काया ही सौगात में दी थी लेकिन उसके पोषण का उनका जुनून अच्छे अच्छे धैर्यवान और गंभीर व्यक्ति को भी विस्मय में डाल देता था। कहानी के पात्र लखीमपुर खीरी वाले पंडित जी के नाम से मशहूर थे। लखनऊ विश्वविद्यालय के लाल बहादुर शास्त्री छात्रावास के इस खास किरदार को हर कोई उसकी एक खास विशिष्टता अधिकतम आहार ग्रहण करने की क्षमता के आधार पर पहचानता था। सन १९८४ से १९९१की सात साल की अवधि में लाल बहादुर शास्त्री छात्रावास में रहने वाला हर कक्षा और संकाय का विद्यार्थी उनकी विशेषता से परिचित था। भोजन ग्रहण करने की अजब क्षमता जो उन्होंने विकसित कर ली थी। इस छात्रावास में रहने वाले विद्यार्थियों की आपसी समझ और सहकारिता के आधार पर उस अवधि में छात्रावास में कुल तीन मेस संचालित होते थे। पूरी महीने का एक आदमी का औसत खर्च दो सौ रुपये के करीब बैठता था। इस राशि में सप्ताह में दो दिन विशेष भोजन की व्यवस्था थी। छात्रावास की भाषा में हफ्ते में दो दिन स्पेशल भोजन मिलता था। बृहस्पतिवार और रविवार को। स्पेशल खाने में पूड़ी, कचौड़ी, पापड़,रायता, पनीर की सब्जी, मिठाई या खीर। बृहस्पतिवार को छोले,भटूरे या पूड़ी और मिठाई। छात्रावास के आम विद्यार्थियों के लिए स्पेशल खाने वाले दिन अन्य दिनों की अपेक्षा कुछ उत्साह दिखता। लेकिन अकेले लखीमपुर खीरी वाले पंडित जी थे जिनमें हर दिन अजब उत्साह दिखता था। रविवार की शाम को हर मेस बंद रहती थी। उस शाम दूसरे विद्यार्थी बाहर जाकर खाना खाते लेकिन लखीमपुर खीरी वाले पंडित जी एक ही वक्त में दोनों पारी की व्यवस्था कर लेते थे। उनकी विशेषताएं कुछ ही दिन में हर मेस वाले के सामने उजागर हो जातीं। हो भी क्यों न वे सबसे पहली कतार में भोजन करने पहुंचते थे। उनका कोटा जब तक पूरा होता तब तक चार पांच कतारें निपट चुकी होतीं। उन्हें जब तक तक संतुष्टि न मिल जाती तब तक भोजन की टेबिल पर जमे रहते। यूं तो तीन मेस थे लेकिन हर मेस वाला उनसे निजात की चाहत रखता था। वे तुनक मिजाज भी थे। भोजन के क्रम में तनिक भी बाधा पहुंचती तो मेस कर्मचारियों से गाली गलौज तक कर देते। इसी का आधार लेकर मेस संचालक हर तीन चार माह बाद उनसे किनारा कस लेता था। एक नाराज होता तो वे दूसरे की सदस्यता लें लेते। लेकिन असलियत यह थी कि हर कोई उनकी आहार प्रियता से घबराता था। जब तक वे खाने की टेबिल पर होते मेस कर्मचारी उन्हें रोटी,पूड़ी या भटूरे की आपूर्ति करते करते धत बोल जाते। वे बिना किसी की प्रतिक्रिया को ध्यान दिए पिच पर तब तक जमे रहते जब तक मन न भर जाए।
हर हफ्ते में एक न एक दिन ऐसा आता जब मेस का कोई न कोई कर्मचारी झल्लाकर बोल उठता साहब और भी लोग हैं खाने वाले या थोड़ी देर रुकिए आटा खत्म हो गया है। फिर से साना जा रहा है। रोटी बनने में कुछ देर लगेगी। पर इन सब बातों को जैसे लखीमपुर खीरी वाले पंडित जी ने न सुनने का दृढ़ निश्चय सा कर रखा हो। वे कहते,कोई बात नहीं। हम इंतजार कर लेंगे। अब हम खाना अधूरा छोड़कर तो उठेंगे नहीं। भाई खाना तो ठीक से खिलाया करो। खाने के समय इधर उधर की बातें मत किया करो। जाओ,जल्दी जल्दी आटा सानो। रोटी तैयार करके लाओ। मेस कर्मचारी आपस में अक्सर ये शिकायत करते सुने जाते कि पंडित जी ने स्टाक फिनिश कर दिया। पर पंडितजी की खाल इतनी मोटी कि वो खाने में तनिक संकोच नहीं करते। मेस कर्मचारियों के पास उनके खाने को लेकर तमाम कहानियां प्रचलित रहतीं। वे दूसरे विद्यार्थियों से उसे साझा करते। बात फैलते फैलते पंडित जी तक भी वो पहुंच जाती लेकिन उन पर कोई असर न होता। वे दिन पर दिन बड़े रिकार्ड की ओर अग्रसर हो जाते। सन १९९० के दीपावली के अवकाश के पूर्व एक बृहस्पतिवार को छोले भटूरे का दिन था। मेस कर्मचारियों ने उन्हें भोजन परोसने का सिलसिला शुरू किया तो पंडितजी की धुंआधार बैटिंग इतनी देर तक चली कि तीस विद्यार्थियों के लिए तैयार भोजन सामग्री भी कम पड़ गई। पंडितजी के अलावा केवल सात विद्यार्थियों को ही भोजन मिल पाया। मेस का संचालक तमतमा उठा। वो अपने आसन से उठकर पंडितजी के पास जा पहुंचा। हाथ जोड़कर बोला,महाराज बस करो। आज तीस आदमियों का ही भोजन बनाया था लेकिन वो कुल आठ आदमियों में ही निपट गया। बस चावल बचा है। और सब कुछ खत्म हो चुका है। विचित्र मनोभाव वाले पंडित जी तनिक भी विचलित नहीं हुए, बोले। चलो,फिर चावल ही भेजो। हां,थोड़ा कड़वा तेल, नमक और प्याज के टुकड़े भी भेज दो। तीन व्यक्तियों के खाने भर का चावल था उसे भी उन्होंने सहजता से निपटा दिया। उसी दिन मेस में सभी सदस्यों की विशेष बैठक आहूत की गई क्योंकि अन्य सदस्यों के भोजन में देरी के हालात पैदा हो गए। सभी सदस्यों ने लिखित में एक प्रस्ताव पास किया कि एक डाइट में अधिकतम आठ रोटी और एक कटोरी चावल ही खाने को मिलेगा। इससे ज्यादा खाने वाले को अतिरिक्त राशि जमा करनी होगी। दूसरों की ओर से बढ़ते नैतिक दबाव के आगे सिर झुकाकर पंडित जी ने आम सूचना और विशेष बैठक में पारित प्रस्ताव के मसौदे पर हस्ताक्षर तो कर दिए लेकिन असल व्यवहार में उस पर कभी अमल नहीं किया।
भोजन के लिए जब टेबिल पर जमते तो सब बातें भूल जाते। कोई कुछ कहे ऐसा लगता उन्होंने सुना ही नहीं। उनकी ख्याति दूर दूर तक हो गई थी। हर कोई उन्हें देख सहसा मुस्कुरा उठता लेकिन वे अपने जुनून में तनिक भी कमी न आने देते। उनकी अनाज भंडारण क्षमता के अनेक किस्से मशहूर हो गए थे। उनकी पीठ के पीछे दूसरे विद्यार्थी उन्हें लखीमपुर खीरी वाली एफसीआई यानी फूड कारपोरेशन आफ इंडिया का गोदाम भी कहते। उन तक यह जुमला पहुंचा भी पर उसे हंसकर टाल दिया। सहनशीलता भी उनकी गजब की थी। बिल्कुल चिकने घड़े जैसी। उनका एक जुमला भी बड़ा मशहूर था जो भोजन में किसी प्रकार की बाधा पहुंचने पर उनके श्रीमुख से फूटता । तमतमा कर बोल उठते। हर जगह मुझे मजाक सहन हो सकता है लेकिन भोजन के समय कोई मजाक बर्दाश्त नहीं होगा। अच्छा हो कि कोई इस कार्य में बांधा न डाले नहीं तो वह हमारा शत्रु ही साबित होगा।
