Umesh Shukla

Children Stories

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Umesh Shukla

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जब जागो तभी सवेरा...

जब जागो तभी सवेरा...

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लखनऊ की चकाचौंध और बाजार की रंगीनियों में ही कहीं डूब गया। एक एक कर दिन मुट्ठी में भरे रेत की मानिंद कैसे फिसले पता ही नहीं चला। परीक्षा की तिथियां जब अखबारों में मोटे शीर्षक के साथ प्रकाशित हुईं तो बड़ा झटका लगा। बीते समय की गतिविधियों की सोच कर अनिश्चितता के भंवर में फंसा महसूस कर रहा था तेजेंद्र। दो दिन बाद ही प्रयोगात्मक परीक्षाएं शुरू होने वाली थी। ठीक दस दिन बाद से लिखित परीक्षाएं शुरू होने वाली थीं। इसका ब्यौरा भी अखबारों से ही उसे मिला। घबराहट बढ़ी तो उसने छात्रावास में रहने वाले कुछ सहपाठियों के समक्ष मदद की आस में दिल की चिंताएं जाहिर की। उम्मीद थी कि कुछ सहायता कहीं से मिल जाएगी लेकिन कोई सहयोग का हाथ बढ़ाने को तैयार न था। हर कोई यही कहकर बच निकला यार मुझे भी अपनी तैयारी करनी है। अब सीरियस होने का वक्त है। सीरियस शब्द सुनते ही तेजेंद्र को लगा जैसे किसी ने उसे आसमान से जमीन पर पटक दिया हो। मन ही मन सोचने लगा बीते दिनों की गुजरी बातें। कैसे दूसरे लोग उसे अपने साथ हर जगह ले जाने को तैयार रहते। तब हरेक शय एक साथी का तलबगार रहता जब वह अकेला हो। दूसरों को कंपनी देने की अपनी सहजता पर उसे बड़ी कोफ्त होने लगी। खुद हताशा के गर्त में घिरने लगा। करता तो भी क्या करता। भारी मन और बोझिल कदमों से अपने कमरे पर लौट आया। मन को स्थिर करने के अनेक जतन किए लेकिन बात संभलती नजर नहीं आई। पढ़ने बैठता तो जो भी किताब उठाता उसके विषय और शब्द उसे चिढ़ाते से प्रतीत होते। लगता सब कुछ नया नया सा है। जो पढ़ता वो भी कुछ ही घंटों बाद विस्मृत सा हो जाता। तमाम कोशिशों के बाद भी पढ़ाई का कोई मजबूत सिरा उसके हाथ नहीं लगता। हर बार उसे निराशा की लहरें डुबो देती। हालांकि अध्ययन की समयावधि बढ़ाकर उसने हालात पर नियंत्रण की कोशिशें की लेकिन वह दबाव से उभर नहीं पाया। प्रयोगात्मक परीक्षा के दिन ही उसे अपनी वैचारिक हैसियत का अंदाजा तब लग गया जब ड्रा में उसके हाथ वो पर्ची आ गई जिसमें उल्लिखित प्रैक्टिकल एक्सरसाइज को किया ही नहीं था। कुछ देर तक वह शिक्षकों से पर्ची बदलने की मिन्नत करता रहा लेकिन वहां भी उसे झिड़की मिली। एक शिक्षक ने उलाहना भी दे दिया कि अब तक कहां किस ख्याल में गुम थे। क्यों नहीं सभी प्रयोग किए। किसी भी सूरत में पर्ची बदली नहीं जाएगी। परीक्षा देनी हो तो दो वर्ना घर जाओ। एक कहावत है सिर मुंडाते ही ओले पड़े‌ तेजेंद्र के ऊपर सटीक बैठ रही थी। कमजोर तैयारियों से सहमे दिल पर प्रयोग परीक्षा ही भारी पड़ गई। कुछ देर तक वह बार बार प्रयोग के तौर तरीकों को याद करने की कोशिश करता रहा लेकिन उसे कुछ याद न आया। बड़ी वजह अध्ययन की अनियमितता ही रहा। कुछ मदद की आस में उसने सहपाठियों को भी टटोला पर कोई उसे समय देने को तैयार न हुआ। इस दौरान उसे यह बात समझ में आ चुकी थी कि अध्ययन से दूर हटकर उसने कितनी बड़ी गलती की। कुछ सोच विचार के बाद भी शून्य नतीजा देख उसे आगे का परिणाम साफ नजर आने लगा। फेल हो चुका है वो इस साल जिसका कारण वो खुद है। इतना सोचने के बाद उसने तुरंत परीक्षा से हटने का फैसला लिया। ब्लैक कापी जमाकर वह कमरे पर लौट आया।

रास्ते भर सोचता रहा कि चूक कहां कहां हुई। मन में एक नया संकल्प भी कि उन सभी सहपाठियों से अब दूरी ही रहेगी जो मदद के लिए बढ़े हाथ को थामने को तैयार न थे। मन को पक्का कर लिया।

तेजेंद्र ने मन ही मन तय कर लिया कि आगे बदल लेगा रहने का ठिकाना। यही नहीं अब साथी भी नए ही होंगे, वो भी गिने चुने। अगले सत्र में उसने नए सिरे से नए विषयों के साथ पढ़ाई शुरू की। नए ठिकाने, नए जज्बे और नए माहौल ने संजीवनी का काम किया। भीड़ से अलग और सतर्क हो उसने लगातार अध्ययन का सिलसिला जारी रखा। परीक्षा तिथि आने पर उसे बीते साल की तुलना में कहीं तनिक भी दबाव न महसूस हुआ। सब कुछ उसके नियंत्रण में रहा। प्रथम श्रेणी में परीक्षा पास होने के बाद उसने जाना कि व्यक्तित्व में सुधार की नई शुरुआत चाहे जब या जहां से कर दी जाए वह रंग लाती है। बस संकल्प पक्का होना चाहिए। उसे यह बात भी समझ में आ चुकी थी कि दोस्ती भीड़ का पर्याय नहीं। वह भावनात्मक होती है जो हर किसी से नहीं तालमेल बैठा सकती है। उसे इस मुहावरे का अर्थ भी अब भली भांति पता हो चुका था कि जब जागो तभी सवेरा।



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