धरती माँ की बेटी (कहानी)
धरती माँ की बेटी (कहानी)
ईश्वर ने शर्मा जी के परिवार को एक नहीं दो, दो खूबसूरत बेटे दिए थे। दोनो भाई कर्ण-अर्जुन की तरह थे। एक खुशहाल परिवार में वह सारी ख़ुशियाँ थीं। जिनकी सब को आरज़ूएँ और तमन्नाएं होतीं हैं। शर्मा जी एयर फोर्स में थे। डिफेंस की अपनी ही गरिमा होती है। जो भी देखता है रश्क करता है। लेकिन इधर कुछ दिनों से सरिता ने मातारानी की के दरबार में चुपचाप एक अलग ही अरदास लगा रखी थी। जिसकी किसी को खबर न थी। लेकिन शर्मा जी मर्ज़ी के बिना इसे पूरा भी नहीं होना था।
- सरिता, तुम्हारा दिमाग़ खराब हो गया। लोग तो लड़कों की मिन्नतें करते हैं। दर-दर अपना मत्था टेकते हैं। अब ईश्वर ने तुम्हें दो, दो बेटे दे दिए, तो तुम्हें बेटी चाहिए।
- हाँ, मुझे एक बेटी चाहिए। बिल्कुल मेरे जैसी काया, मेरी छवि। मेरे मरने के बाद जिसे देख कर सबको मेरी याद ताजा हो जाए।
- अब ये भी कैसी ज़िद है और कोई ज़रूरी भी तो नहीं कि बेटी ही हो। अगर बेटा हो गया तो?
- नहीं जिस तरह ईश्वर ने हमें बिन मांगे दो बेटे दिए। तो फिर वही मांगने पर बेटी क्यों नहीं देगा। मुझे तो पूरा विश्वास है बेटी ही होगी। देखना मैं उसे बिल्कुल अपने जैसा, बल्कि मुझ से भी अधिक निपुण बनाऊंगी। घर गृहस्थी में। आखिर, जो मैं ने अपनी माँ से सीखा है, उसे भी तो किसी को विरसे में देना है। शर्मा जी को भी बेटी की कल्पना ने रोमांचित कर दिया। उनके कानों में बाहर बगिया में रखे पानी के कटोरे पर बैठी गोरैय्या की चिहु-चिहु की आवाज़ बड़ी मधुर सी लगी।
इधर सरिता को एक नन्हे मेहमान की आमद का अहसास हो गया था। लेकिन देखते ही देखते देश पर युद्ध के बादल मंडराने लगे। युद्ध की शुरुआत हो गईं। जब शर्मा जी फ्लाइट पर होते तो उसका दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगता। रोज़ रात को तोपों और फाइटर प्लेन की आवाज़ों से नींद खुल जाती। पूरा देश एक अजीब से संकट से जूझ रहा था। शर्मा जी के घर आते ही आपने साथी फौजियों की वीरता और बलिदान के किस्से उनकी ज़बान पर होते। सरिता भी उन किस्सों को बहुत ध्यान से सुनती लेकिन उसके दिल की धड़कन एक अनजाने डर से कभी-कभी तेज़ हो जाती। सरिता का खूबसूरत सा अहसास तब विश्वास में बदल गया, जब डॉक्टर ने उसे होश आने पर बताया कि "तुम एक बहुत ही सुन्दर सी बेटी की माँ बन गई हो।" एक बार फिर घर में ख़ुशियाँ अब निशा के रूप में थीं। दोनों भाई और मम्मी-पापा की लाड़ली निशा, बहुत बातूनी और हाज़िर जवाब थी। बचपन से ही भाइयों की बराबरी करना उनसे लड़ना-झगड़ना। लड़कियों की सोच के बिल्कुल विपरीत, उसे गुड्डे- गुड़ियों के खेल में कोई दिलचस्पी नहीं थी। समय का आभास ही नहीं हुआ। अब निशा हायर सेकेंड्री में थी। इस बार सेना दिवस पर करतब दिखाते हवाई जहाजों ने उसे रोमांचित कर दिया था। घर आकर पापा से ज़िद कर बैठी।
- पापा, मैं भी फाॅर्स में ज्वाइन करुँगी, पायलट बनूँगी।
इस से पहले शर्मा जी कुछ कहते, सरिता बीच में ही बोल पड़ी।
नहीं, बेटी। हम औरतें हैं। औरत ही हमारा धर्म है। देखो घर गृहस्थी के कितने काम पड़े हैं। मैं तुम्हें सब सिखा दूँगी। तुम अपनी पढ़ाई भी जारी रखना। बीई कर लो या जो तुम्हें अच्छा लगे वो कर लो। लेकिन बेटी फ़ौज में जाना हमारे लिए ठीक नहीं।
- अरे मम्मी, आप किस ज़माने की बातें कर रही हो। अब लड़का-लड़की में केवल लिंग भेद है। बाकी कोई फर्क नहीं। लड़कियाँ भी वे सारे काम कर सकतीं हैं जो लड़के करते हैं। केवल जेंडर के आधार पर उनमें भेद नहीं किया जा सकता। आप तो जानती हो हर लड़की की तरह पापा, मेरे भी आदर्श हैं। फिर मैं उनके जैसा काम क्यों नहीं कर सकती।
शर्मा जी ने भी माँ-बेटी की तकरार के बीच में कुछ बोलना उचित नहीं समझा। माँ-बेटी की तक़रार आखिर एक समझौता पर आकर रुक गई।
माँ की भावनाओं का आदर करते हुए एयर फाॅर्स में जाने की ज़िद उसने छोड़ दी थी। लेकिन सरिता ने उसे एयर लाइन्स में जाने की इजाज़त दे दी थी।
यहाँ पायलट तो नहीं बन सकी लेकिन सीनियर असिस्टेंट फ्लाइंग ऑफीसर के रूप में एक एयर लाइन्स में उसे नौकरी मिल गई। ज़िन्दगी रोज़ की तरह जारी थी। लेकिन आज उसका प्लेन जैसे एयर पोर्ट पर लैंड किया। पैसंजर उतरने चढ़ने लगे। इसी बीच उसे आस-पास कुछ असंदिग्ध गतिविधियां महसूस हुई। उसे समझते देर न लगी कि कहीं आतंकी तो विमान को बंधक बनाने की फ़िराक में तो नहीं हैं। ये जो चार लोग विमान के चारों तरफ खड़े हैं ये पैसंजर तो नहीं। ज़रूर कुछ गड़-बड़ है। उसे पिता जी की बात याद गई। दुश्मन जब सीधी तरह से नहीं जीत पाता तो देश को कमजोर करने के लिए आतंकवादी जैसी घटनाओं को अंजाम देता है। उसने अपने मन में प्रण किया। मैं इनके इरादों को कभी कामयाब नहीं होने दूँगी। मुझे किसी न किसी रूप में विमान में सवार इन निर्दोष लोगों की जान बचानी है।
निशा अभी सोच ही रही थी कि धड़ाधड़ चारों विमान में ऊपर चढ़ गए।
- हैंड्स अप, कोई हिलेगा नहीं। हमारी तुमसे कोई दुश्मनी नहीं है। अगर तुम लोग सहयोग करोगे तो हम किसी का कोई नुक्सान नहीं करेंगे। हमें तो अपने साथियों की रिहाई चाहिए।
निशा ने इस से पहले की हाईजेक की कोशिश अंजाम को पहुंचे। चालक दल को इमरजेंसी विंडो से भाग जाने का मैसेज दिया। चालाक दल विमान को स्टार्ट कर भाग गए। जिस से ईंधन ख़त्म हो जाए। अब निशा का काम किसी तरह उनको उलझा कर रखना था। जब तक की प्लेन का ईंधन या तो ख़त्म हो जाए या फिर कमांडोज़ वहाँ नहीं पहुँच जाएं।
हुआ भी यही इस जांबाज़ बेटी ने वीरता और बलिदान के तमाम किस्से माँ के पेट में ही पिता जी से सुन रखे थे। आज वक़्त आया था उनका अनुसरण करने का। यहाँ वीरता का मतलब सीधे तौर पर लड़ना नहीं। बल्कि बिना होश गंवाए धैर्य से अंतिम सांस तक हौसला रखना था। उसका एक मात्र उद्देश्य सारे यात्रियों की जान बचाना था।
प्रसाशन से बात कर खूंखार आतंकवादियों को छुड़ाना चाहते थे। जो किसी भी कीमत पर संभव नहीं था। अतः उन्होंने यात्रियों को मारना शुरू कर दिया। जब निशा की सारी उम्मीदें समाप्त हो गईं तो एमर्जेन्सी गेट खोलकर यात्रियों को भागने का आदेश दिया। भागते यात्रियों पर आतंकवादियों ने गोलियां चलाना शुरू कर दी। कुछ यात्री मारे गए। लेकिन अधिकांश भागने में कामयाब हो गए।
अंत में आतंकवादियों ने निशा और इसके साथियों को भी मौत के घाट उतार दिया। लेकिन जिस वीरता से उसने उनका मुकाबला किया, उसकी न केवल सारे देश ने भूरी-भूरी प्रसंशा की बल्कि देश ने वीरता पुरुस्कार से सम्मानित भी किया।
सरिता को भी अब विश्वास हो गया था। कुछ लोगों को यह धरती माँ, अपनी रक्षा के लिए पहले से चुन कर रखती है। भले ही उसे किसी भी माँ ने जन्म दिया हो।