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Arti jha

Abstract Tragedy

3  

Arti jha

Abstract Tragedy

देवदूत

देवदूत

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227

 रात के ढाई बजे सीने में बहुत तेज दर्द होने लगा हल्की-हल्की सर्दी होने के बावजूद भी मैं पसीने से तर हो गई मैंने आवाज लगाई अंशुमन जरा पानी देना.... अगले ही पल याद आया वो तो ऑफिस के काम से बाहर गए हैं मैं कराहते हुए किसी तरह हॉल तक आ पाई,तभी किसी ने डोरबेल बजाई। रात के डेढ़ बज रहे थे अभी कौन होगा मैं अभी सोच ही रही थी की आवाज आई , *दरवाजा खोलो मानवी"। मैंने डरते हुए दरवाजा खोला सामने देखते ही मेरी चीख निकल गई मैंने अपनी आंखें बंद कर ली। "आँखें खोलो मानवी और मेरे साथ चलो" वह बुदबुदाया। "कहां"? मैं तुम्हे नहीं पहचानती शब्द आधे अधूरे रह गए। "असत्य में जीनेवाले सत्य को नहीं पहचानते मानवी"वह मेरा हाथ खींचकर बाहर जाने लगा। "ओह कहां जाऊं" मैं चिल्ला पड़ी। अब उसने एक थैले से एक किताब निकाली और कुछ ढूंढकर मुझे बताने लगा,दिखाने लगा *देखो,...अब तुम ऋणमुक्त हो.... कुछ शेष नहीं बचा ।तुम्हे मेरे साथ चलना होगा"। आशय समझते ही मैं सन्न रह गई ध्यान आया अंशुमन सुबह आनेवाले हैं घर में बेटा भी नहीं वो भी दोस्तों के साथ गया है परसो ही आएगा।मैं फूट फूट कर रो पड़ी ।मैं चली गई तो मेरा घर बिखर जाएगा मेरे पति मेरे बिना अधूरे हैं...मेरा बेटा वो तो अभी बच्चा है नहीं रह पाएगा मुझ बिन। वह मुस्कुराया" एक और असत्य....कोई किसी के बिना अधूरा नहीं होता सब स्वार्थ के रिश्ते हैं"। "चुप्प, मेरे पति मुझसे बहुत प्रेम करते हैं"। मेरा बेटा उसकी तो जान बसती है मुझमें। मैं अभी नहीं जाऊंगी न......मैं उस देवदूत को पीछे धकेल उसे भगाने की असफल प्रयास करने लगी। उसके ठहाके से पूरा रूम सिहर उठा फिर उसने कहना शुरू किया,चलो मैं तुम्हारे लिए विधि के विधान में थोड़ी हस्तक्षेप किए देता हूं....पर एक शर्त है। "शर्त"? "हां शर्त....तुम्हे प्रमाणित करना होगा की मैं जिसे स्वार्थ कहता हूं वो स्वार्थ नहीं है पर तुम जिसे प्रेम कहती हो वह प्रेम है..चलो थोड़ा आसान किए देता हूं....तुम्हे कल पूरा दिन उसके साथ खर्च करना है जिसे तुम हृदय से अपना मानती हो ..बस इतना ही। मैं वचन देता हूं तुम्हे मुक्त कर दूंगा तुम्हारे पास चौबीस घंटे का समय है पर स्मरण रहे मैं चौबीस घंटे तुम्हारे घर के कोने में ही रहूंगा"। मैं खुशी से खिल उठी बहुत आसान था यह तो......मैं हॅंस पड़ी। "जो चीजें सुनने में बहुत सरल लगे वही चीजें मुश्किल हो जाती है मुझपर हॅंसने के बजाय अपने लक्ष्य पर ध्यान दो। और सुनो.....यह बात बस मेरे और तुम्हारे बीच रहे,तुम चौबीस घंटे बंदिनी हो मेरी"।वह देवदूत कोने में खड़ा हो गया। सुबह 6बजे डोरबेल बजते ही मैं समझ गई थी अंशुमन ही होंगे मैं दरवाजा खोलते ही उनसे लिपट कर रोने लगी अंशुमन पता है कल क्या हुआ? "हटो यार ऐसे लिपटके रोने लगी जैसे कोई युद्ध लड़ने गया था" उनका उदासीन सा स्वर। वो आकर सोफे पे पसर गए, चाय बनाओ ज़रा। मैं जल्दी से चाय बनाकर लाई,मेरा काउंटडाउन शुरू हो चुका था। "तुम्हे पता है कल क्या हुआ"? "यार थोड़ा चैन तो लेने दो.....आते ही शुरू हो गई,मैं पहले ही बहुत थका हूं" उनकी आवाज अभी भी उतनी ही उदासीन थी। "कल रात मेरी तबियत खराब हो गई थी,ऐसा लगा जैसे अब मर जाऊंगी"। अच्छा,पर अब तो ठीक हो न?उन्होंने मुझपर एक सरसरी निगाह डाली। "ठीक हूं, पर मैं चाहती हूं आज तुम ऑफिस से छुट्टी ले लो आज पूरा दिन मेरे साथ रहो। "मज़ाक है क्या,आज तो बहुत इंपोर्टेंट प्रेजेंटेशन है सब सही रहा तो मेरा प्रमोशन हो जाएगा"। "पर मेरी तबीयत ठीक नहीं"। "इतनी भी ख़राब नहीं"। "प्लीज ले लो न छुट्टी"। यार कैसी ज़िद है,छुट्टी ले लो छुट्टी ले लो, नहीं ले सकता मतलब नही ले सकता। "पैसा,प्रेजेंटेशन,प्रमोशन बस इतना ही....मैं कहीं नहीं"? "हां तो तुम सब के लिए ही कर रहा" "नहीं चाहिए मुझे कुछ भी, सिर्फ तुम्हारा साथ चाहिए अंशुमन बस आज मत जाओ....प्लीज" बाहर निकलकर चार पैसे कमाती तब पैसे की वैल्यू पता चलती है कैसे और कितनी मेहनत से आते हैं..उनका रटा रटाया एक ही डायलॉग। "मैं भी नहीं रहूंगी तब मेरी वैल्यू पता चलेगी" हमदोनो की बहस बढ़ गई। "अच्छा था मैं उधर से ही ऑफिस चला जाता....बेवकूफ औरत"। वो नाराज़ होकर बाहर निकल गए।मैने मुड़कर देखा देवदूत मुस्कुरा रहा था मानो पूछ रहा हो यह कैसा प्रेम मानवी? "हां तो ऑफिस भी तो ज़रूरी है काम भी तो ज़रूरी है बैठे बैठे प्यार से पेट तो नहीं भरता न" मैंने बर्तन मांजते हुए एक गिलास उस देवदूत की तरफ फेंका। "अपनी ऊर्जा बर्बाद न करो,कोशिश करती रहो वह निश्चिंत मुस्कुरा रहा था मानो उसकी जीत सुनिश्चित हो। मैंने झटपट मोबाइल उठाकर अब पार्थ को कॉल लगाया तीन बार पूरी बेल गई। मैं पूरी तरह से झेंप गई थी ये आजकल के बच्चे न.वो क्या है न मोबाइल बैग में होगा उसने सुना नहीं होगा। मैं चेहरे पर बनावटी हंसी लाकर लगातार कॉल लगाती रही। अबकी बार उसने पिक किया "बोलो मम्मा" "पार्थ बेटा तू कहां है,जहां भी है फौरन आ मेरे पास"। "क्या मम्मा अब मूड ख़राब मत करो ....परमिशन लेकर तो आया हूं न मैं अभी नहीं आ सकता हमारी पूरी प्लानिंग हो चुकी है घूमने की"। "अरे नहीं आ सकता का क्या मतलब कल रात से मैं बीमार हूं तू फ़ौरन आ जा मुझे डॉक्टर के पास जाना है"। "आप तो होते ही रहते हो बीमार तो मैं कहीं बाहर नहीं जाऊं क्या...क्या मुसीबत है"। "अरे ये क्या तरीका है अपनी मां से बात करने का और मैं तेरे लिए मुसीबत हूं"? "अच्छा ममी मैं न शर्मा अंकल को कॉल करता हूं वो आपको डॉक्टर के पास ले जाएंगे" "मैं क्यों किसी और के साथ जाऊं मुझे तेरी जरूरत है पार्थ तू समझता क्यों नहीं".....मेरी आवाज़ रूआसी हो गई। "क्या यार मम्मा....अब मेलोड्रामा शुरू मत करिओ। मैं कल आ जाऊंगा उसने कॉल कट कर दिया"। देवदूत मेरी तरफ देख कर बोला" मैं समझ नहीं पाया प्रेम की परिभाषा मानवी, खैर... कोशिश करो..... कोई और अपना हो तो...... मैं बेचैन हो उठी,जिसपर सबसे ज्यादा अधिकार समझा उनसे हार बैठी अब और कौन........ मैने तीसरी कोशिश की......पूरी कॉन्टैक्ट लिस्ट पर नजर फिरा गई और फिर अपने दोस्तों को कॉल करने लगी।बस आज पूरा दिन किसी के साथ बिताना था बस इतना सा...... कुछ नॉट रीचेबल....कुछ की बेल जाती रही....और किसी ने मैसेज ड्रॉप किया I'll call you later....... मैं हताश और निराश होकर रोने लगी इसलिए नहीं की मैं अपनी हार के बिलकुल करीब थी बल्कि इसलिए की जीतना कितना आसान था मैं फिर भी हार गई? मैंने क्रोध और हताशा में पास पड़ा फूलदान उठाकर उस देवदूत के सर पर दे मारा। "मैं इन चीजों से परे हूं मानवी,चोट तुम्हें ही लगेगी" अबकी बार वह सख़्त आवाज में बोला। सच फूलदान मेरे सर से टकराई और खून की धारा बह निकली और उसी में बह निकले मेरी इच्छाएँ, मेरे सपने मेरा अभिमान सब कुछ और खुल गई मेरी आंखों की पट्टी ....... हां मेरा किरदार यहीं खत्म हुआ...अब कहीं और पड़ाव ...कोई और किरदार मेरी प्रतीक्षा में था...चलो देवदूत...अभी चलो....सीने का दर्द अचानक बढ़ने लगा... मेरी आंखों में चमक आ गई ....मैं उस देवदूत के साथ एक दूसरी यात्रा पर निकल गई। आरती


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