Kunda Shamkuwar

Abstract Tragedy Others

4.7  

Kunda Shamkuwar

Abstract Tragedy Others

डायरी के पन्ने

डायरी के पन्ने

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आज किताबों की अलमारी साफ़ करते समय कुछ मुड़े तुड़े कागज़ मिले। पेपर की रद्दी में दे देंगे यह सोचते हुए मैंंने वह सारे कागज़ को साइड में यूँहीं फेंक दिए।लेकिन यह क्या ?सारे कागज़ बिखरकर खुल गये।अरे,यह तो मेरी डायरी के पन्ने है।मैंंने झट से उनको उठाकर पढ़ना शुरू किया और न चाहते हुए भी मेरा मन उन यादों की गलियारों में जैसे बेतहाशा दौड़ने लगा। 

उस डायरी में मेरे दिल की न जाने कितनी सारी कैफ़ियतें दर्ज थी जो मैं किसी को कह नहीं पाती थी।यूँ भी कह सकते की मेरे दिल के वे सारे अनकहे और अनसुने किस्से थे। 

मैंं आगे पढ़ने लगी। 


आज नींद सुबह ही टूटी और उसे आश्चर्य हुआ अरे ये कैसे आज रात को इतना लंबा सोई बिना disturb हुए। कितनी मुद्दत बाद आई ऐसी नींद। अब मालूम नहीं सोने से पहले ली गोली का असर था या उसके अंदर जमा दुख का तेज़ाब, जो निकला था कल सखी के सामने, अच्छी होती हैं वो स्त्रियां जो लड़ लेती हैं अपने अधिकारों के लिए, अपने स्वाभिमान के लिए। वो तो कभी कुछ बोल ही नहीं पाई। जो पति ने चाहा, कठपुतली की तरह करती चली गई। मन भी काठ का हो गया था समझ नहीं आती थी रोज़मर्रा की आसान सी चीजें भी।

वो बार 2 अपनी सहेली के पास जाकर पूछती थी कि वो ऐसे में क्या करे। बताती कम छुपाती ज़्यादा थी। ढलती उम्र के इस पड़ाव पर पहूँच ये दुख दुख कम, शर्मिंदगी ज़्यादा बन गया है। लेकिन वो अब किसी को कैसे समझाए वो अंदर से बहुत कमज़ोर और डरपोक स्त्री में बदल गई थी। डरती थी उस पिंजरे से बाहर निकलने से जो ख़ुद उसने ही बनाया था। पति उसकी कमाई को भी ये कहकर खर्च करवाता रहा तेरा मेरा किसने बांटा (कमाई के अलावा वो उम्रभर उधार मांग कर भी लाती रही घर चलाने के लिए)। पुत्र तो मानों उसको ना तो अपने पिता की पत्नी के रूप में इज़्ज़त करता था, न ही अपनी माँ के। पुत्र के सामने बार बार तिरस्कृत होती वो तो बस उंगलियों पर हिसाब लगाकर ही संतुष्ट होती रही कि बच्चे कितनी देर में सेटल हो जाएंगे। फिर वो जानें और उनका बाप। बस वो तो ज़िम्मेदारियों से मुक्त हो जाएगी और उसके सारे दुख फुर्र। वो तो सिर्फ और सिर्फ़ ख़ुश रहेगी।

अपना मतलब निकाल के पति और पुत्र दोनों उसका किराये का घर छोड़ गए। अब वो बहुत ख़ुश है। कमाल है कि ये तरीका तो उसे मालूम ही नहीं था कि ऐसे भी खुश रहा जा सकता है। उसके सिर से वो मनों बोझ उतर गया जो बरसों से लदा था। बस अब तो उसे यूँ लगता है जैसे रुई सी हल्की होकर खुले आसमानों में उड़ती रहे, बस उड़ती ही रहे। बच्चों के पढ़ते समय अक्सर कहा करती थी मैंं तुम लोगों के पंख मज़बूत कर रही हूं ताकि तुम लोग ऊँची उड़ान भर सको। मन में ज़रूर डरती थी कभी अपने पिता की तरह मुफ्तखोर ना बन जाना...


आज तो मेरे पास मेरी तन्हाई है और बहुत देर से हासिल हुई मेरी आजादी भी।यह आजादी मुझे युँही हासिल नही हुई है बल्कि इसकी मैंंने बहुत बड़ी कीमत चुकायी है।मेरे ख्वाब,मेरी अना,और मेरी जवानी को राख करके ये हासिल हुई है। 

जितनी कीमती ये आजादी मुझे लगती है उतनी ही ये समाज को सस्ती लगती है।वह न जाने मुझे किन किन विशेषणों से नवाजता है...


बाज़ारू औरत 

चरित्रहीन 

कुलटा 

ख़ुदसर 


और न जाने क्या क्या......  

मेरे पास अब समाज की उन निगाहों को झेलने की ताक़त नही है। 

मैं फिर फिर अपने खोल में सिमट जाती हूँ ....

सिसकती रहती हूँ .... 

ख़ामोशी से..... 

हाँ, दुनिया के सामने जब भी मुझे जाना होता है,तब झट से आँखों में काजल लगा लेती हूँ और होठों पर मनपसंद कलर के शेड की लिपस्टिक भी.....

और फिर हर वक़्त बेबात हँसती रहती हूँ....


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