डायरी के कुछ पन्ने
डायरी के कुछ पन्ने
जब मैंने इस अनजान दुनिया में कदम रखा, उजली किरण, फूल भरी राहें, खुशबू भरी हवा ने मेरे जन्म होने की ख़ुशी में सिर झुकाए मेरा स्वागत किया था। प्यार भरे दो हाथ, मेरे लड़खड़ाते कदम को संभालते हुए मेरी उंगली पकड़ कर मुझे चलना सिखया। मैं सपनों में खोई-खोई इस रंग-बिरंगी दुनिया में एक अनजान मकसद की तालाश कर रही थी जैसे कि भटकती राही को अँधेरे में रोशनी की तलाश हो।
मेरी एक अजीब दुनिया है- जहाँ हरे पत्ते से लेकर घास के फूल सारे बात करते हैं मुझसे। चाँद, सितारें, पशु, पंक्षी, फूल और कांटे, पहाड़, समुन्दर, हवा, बादल, तितली, मोर सारे मेरी कल्पना में बहने लगते हैं। कभी हँसते-खेलते गुदगुदाते, हज़ारों बातें हैं करते। एक पल में सब मेरी चारों ओर शहनाइयाँ बजाया करते और दूसरे ही पल सारे मेरे आँखों से ओझल हो जाते। मैं एक अजीब सा सूनापन हाथों में लिए एक अकेली, तन्हाइयों में खुदको ढूँढती फिरती।
कभी झील के किनारे बैठे अकेले खिलते कमल को निहारती सोच में पड़ जाती थी, जैसे सागर की लहरों से, काली घटाओं से, नीले अम्बर से मेरी पहचान पूछती फिरती थी, मगर अब मेरी पहचान मुझे मिल गयी है। पथरीली डगर पर सफ़र करना अभी बाक़ी है, साथ ही मेरी कविताओं में रंग भरना बाक़ी है।
इन पंक्तियों से कुछ बयान करना चाहती हूँ-
फुरुसत में बैठ कर झील के किनारे
नीरब जल मन को पुकारे
पूरव हवा दिल बहलाए
चाँद तारे नज़र न आए।
मगर साँझ तारा निकलने का वक्त हो गया।
कुछ ही देर में एक-एक तारा
आकाश से टूट पड़ेंगे,
कुछ झील के किनारे तो कुछ
मझधार में बिखर जाएँगे।
मन की गहराई में एक-एक तारा को जोड़ कर
नीरब निश्चल किनारे पर बैठे
उन तारों को एकत्र कर
कविता बनाती रही।
आज कलम नहीं है मेरे पास,
झील से उन अक्षरों को बटोर कर
कागज़ पर रखने की कोशिश जब की
अचानक पानी के बुलबुल में
उन अक्षरों की बारात कहीं खो गये
स्तब्ध रह गयी मैं, उन दिनों की याद आई
जब मेरी कई कविताएँ
समय के बहाव में बह गयी।
जैसे कि सागर से उठी एक-एक लहर
किनारे तक पहुँच कर गायब हो जातीं हैं।
इस जिंदगी की सफ़र में जब खुद को ढूँढ़ती फिरती हूँ तब दूर से एक घंटी की ध्वनि मेरे कानों में गूँजती है। जब यह ध्वनि मेरे कानों तक पहुँचती है तब मेरे अशांत मन को एक सकून महसूस होती है। पर्वत के उस पार जगमगाते जो ध्वज दिख रही है, उसे लाल झंडे से सजाना है। लेकिन अब मंजिल बहुत दूर है अभी उस पर्वत के पाद क्षेत्र तक भी पहुँच न पाई मैं। फिर ये दुरी पार कैसे करूँ? पर्वतों के बीच जो जल प्रवाहित है उसे पार करना बाकी है। उस रात के आँचल से कुछ-
उस रात के आँचल से कुछ टूटते हुए तारों को
समेट कर हमने आँगन सजाया है
ये इल्जाम हमें कबूल नहीं कि
सितारों को तोड़ कर हमने जहाँ बनाया है,
टूटते तारों को सागर में बिखरते देख
उनमें से मोतियों को चुन-चुन कर
हमने कविता बनाई है।
हम अगर रात होते, किनारे पर खड़े
उन तारों को आँचल में समेट लेते
अगर सागर होते, उनमें गिरे मोतियों से
माला बना कर श्री कृष्ण के गले उतार देते
मगर हम ठहरे साधारण इंसान,
ख्वाब देखने के अलावा कुछ न कर पाते।
फिर सोच में पड़ जाती हूँ । हाँ सोच...
इसका तो अंत ही नहीं, जहां एक सोच ख़त्म होती है, वहाँ एक नयी सोच जन्म लेती है। सागर से भी गहरी है ये सोच। इन्हें जब कागज पर उतारती हूँ, न जाने क्या-क्या लिख जाता है मुझसे। जैसे कोई गाँव की उबड़ खाबड़ ज़मीन, राह चलते-चलते खत्म ही नहीं होती। हज़ारों उपलें पैर को काटने लगते फिर भी रुकना हमें मजूर नहीं है। यथा संभव चलते जाना है।
हे राम! मेरी कलम को इतनी शक्ति दो कि मेरी रचनाएँ हवा में ख़ुशबू की तरह, सागर में लहरों की तरह फ़ैल जाए। सूर्य की कुछ बूँद रोशनी मेरे साहित्य में समाँ जाए और यह रोशनी समाज के नस-नस में प्रेरणा बन कर छा जाए।
मैं जब छोटी थी, तब से चाँद तारों से मेरा रिश्ता जुड़ गया था। एक अकेली घंटों आकाश पर नज़र डाले चाँद सितारों से बात किया करती थी। साँझ तारा जब आकाश में उभर आता लगता यूँकि वह सिर्फ मेरे लिए उतर आया है। हर शाम साँझ तारे का इंतज़ार करना अच्छा लगता था। जैसे कोई साथी हो या हो साजन। लगता था अभी कोई उस तारे से बाहर निकल आयेगा और मेरे हाथ पकड़ कर दूर गगन में ले जाएगा और चाँद तारों से दामन सजाएगा जहाँ एक अलग ही दुनिया हो। इस ख़्याल में कुछ नज़्में मेरे मन को छू जाती है-
वह एक दिन था,
जब हम सिमट सिमट कर जी रहे थे,
खुले बिखरे जुल्फों से आँगन सजाते थे
ज़मीन पर लेटे घंटों चाँद सितारों में खो जाते
नीले-नीले अंबर में टिमटिमाते तारकों के बीच
आन और शान से तैरता हुआ चाँद भी
हमारे सामने फीका पड़ जाता था।
और आज एक दिन है,
हमारी आँखों में वो जुनून है, ज्यों
आकाश की गहराई में तैरते हुए
चाँद पर बैठ कर हम, बादलों के द्वार से
कुछ माखन, घड़े में भर कर ले आयें
जिसे थाली में सजाए
अर्घ्य और चन्दन के भेंट लेकर
द्वारकाधीश के द्वार पर समर्पित करें।
सात समंदर पार जब कोई याद करता है, दिल के किसी कोने में एक अनजान ख्याल दस्तक देता है। वह मिट्टी की खुशबू, वह दरिया का पानी, कीचड़ भरा रास्ता, खिलखिलाती हँसी, शर्मिली के कांटे, छुपते-छुपाते वह गुड्डा-गुड्डी की शादी, पल भर में आँखों में झलक जाते हैं। समंदर की बालुका पर बैठे हम पर जब लहरों के जल चट्टानों पर वार कर मुँह पर उछलती है, मन की भावनाएँ लहरों में बहने लगते। गाँव के उन आम के पेड़, जहाँ चोरी छिपे आम तोड़ने जाते और माली की आवाज़ होते ही वहाँ से भाग चले आते। वह गाँव की याद जब मन को छू जाती है, एक पल के लिए आँखें नम हो जातीं हैं। भीगी-भीगी मिट्टी की खुशबू, सूरज की पहली किरण, ठंडी में टकराते हुए होंठ पर जब कुएँ के पानी शरीर से हो कर गुजरता है, वह एहसास मन में बचपन की यादें छेड़ जाती है। तब हम भावनाओं में बह जाते हैं।
सच कहूँ तो दीवानी होती जा रही हूँ मैं
लगता कोई साया छू गई है
कोई कविता मुझमे समाँगयी
और एक नयी लता जी गयी।
इस कविता से हो कर जो भी महसूस किया है
जिंदगी के हर पल को जी लिया है,
आज हवा में खो जाने का कोई ग़म नहीं,
जो पाया हमने वो भी कुछ कम नहीं।
आज सूरज की किरणों को छू गयी,
चाँद तारों के संग झूम गयी,
हवा के झोंके में बह गयी
चाँदनी की रोशनी में भीग गयी मैं।
अपने आँगन की धूल में खिल गई
फूलों की महक में फ़ैल गई
सागर की लहरों में समाँ गई
बादल की अंगड़ाई में खो गई मैं।
अगर मर भी जाऊँ दोस्तों
अफ़सोस न करना-
उन वादियों में ढूँढ़ लेना
सागर की लहरों में झाँक लेना
उन बादलों से पूछ लेना
वो मेरे ख़ैरियत बता देंगे।
