मैं साक्षी इस धरती की

मैं साक्षी इस धरती की

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सम्भवतः मेरा जन्म तब हुआ था, जब इस भू-मंडल की रचना की गयी थी। तब से लेकर आज तक मैं बालुका बन कर सागर की गोद में लहराती आई हूँ। समय के साथ-साथ हर आती-जाती लहर मुझे भिगोती आई है। इन लहरों से मेरा एक अटूट रिश्ता कायम है। मैंने इस अटल अनंत सृष्टि की हर रचना को ध्यान पूर्वक अपने अंतर्मन में कैद कर उसकी चाबी कहीं दूर शून्य के गहरे अंधकार में फेंक दी है। तब से लेकर आज तक युग-युग के हर उस पल की साक्षी बन कर नीरव निश्चल टटोलती आई हूँ।

धरती पर जब-जब एक नया दिन खिला, नये सूरज ने जन्म लिया, साथ ही एक नयी अनुभूति, नया ज्ञान, नया संयोग, एक नयापन तथा नये जीवन की रचना हुई, उन बदलते लम्हों को महसूस किया है मैने।

सप्तश्रृंगी गिरिराज हिमालय का जन्म से लेकर मानसरोवर की अगाध गहराई तक, शिवजी के प्रथम सोपान से लेकर आज तक हर सूक्ष्म से सूक्ष्म पहलू मुझसे छुपा नहीं है। जब चाँद अपनी सखियों के संग आकाश में उभर आता है उन सितारों में मैं अपनी पृष्ठभूमि के सौंदर्य को निहारती आई हूँ। उन सितारों में एक सपनों का महल खड़ा देखा है मैंने। शायद उसी को त्रिशंकु कहा जाता है। विश्वामित्र और मेनका के प्यार की नगरी। उस नगर की रचना भी मैंने ही लाखों साल पहले की थी। उनके प्यार की दास्ताँ आज भी मेरे मन के किसी कोने में दफ़न हो कर रह गयी है।

रावण ने जब सीता का अपहरण किया था, तब पंक्षीराज जटायु ने उनके बचाव में मेरी गोद में शेष साँस छोड़ी थी। सीता मैया को बचाते-बचाते कितने ही दिये मेरे आँखों के सामने बुझ गए, ये मेरे अलावा कौन जान सकता है? हज़ारों वानरों की सहायता से बना उस सेतु के निर्माण की साक्षी भी मैं ही हूँ। निर्माण में मेरा भी योगदान है। उस वक्त वानरों के उत्साह में मैं भी शामिल थी। पहली बार जब राम जी के पग ने मेरे शरीर को स्पर्श किया था तब समुन्दर में कम्पन हुआ था, शायद उसी कम्पन से आज तक सागर में विशाल लहरें उठती आयीं हैं।

मैं उस दिन की भी साक्षी हूँ, जब राम जी ने सीता मैया का उद्धार किया था। रावण की कैद से मुक्त कर उनकी अग्नि परीक्षा ली गयी थी। मेरा कण कण चिल्ला चिल्ला कर कह रहा था कि यह अन्याय है। सीता मैया पर यह शंका...? मगर मैं सिर्फ देखती रह गयी, क्योंकि सीता मैया ने मुझे कुछ न बोलने कि कसम जो दे रखी थी। धिक्कार है मुझे…, चुपचाप देखने के अलावा कुछ न कर पाई थी मैं।

तब से लेकर आज तक हर पल हर क्षण स्त्री, अग्नि परीक्षा देती आई है। मेरी ही आँखों के सामने न जाने कितनी अबला नारियां देखते-देखते सागर में एकाकार हो चुकी हैं और कितनी ही मेरी बालुका पर इज्जत गंवा चुकी है। यह सिर्फ मैं ही जानती हूँ, फिर भी मैं चुप हूँ। कभी मुझे दुःख होता है की काश मैं, मैं नहीं होती और इन सबका ज्ञान मुझे न होता। मैं सिर्फ पाषाण बन कर रह गई होती। मगर मैं बालुका हूँ, युगों युगों से मैने  हजारों दुःख देखे हैं। उन्हें देखते हुए मेरे मन ने कभी एक सच्चे युग की कामना की थी।

स्त्री, दुर्गा है और काली भी, धरती जैसी सहनशील भी। जन्म से लेकर मृत्यु तक हर पल कभी बेटी बन कर, कभी बहन, कभी बीवी और कभी माँ बन कर सिर्फ सेवा करती आई है। फिर भी उस की हर पल अपमान हुआ है। बेबस यह भू-माता ज्वालामुखी को अपने अंदर समेट कर सहती आई है। भूमि के तल तक पहुँच कर मैंने जब देखा उस गहराई में आंसू और खून के अलावा मुझे कुछ भी दिखाई नहीं दिया।

इस तरह धरती माता बार-बार चोट खाकर मूक बन खड़ी है। अगर दिल से उसकी आह निकलती है तो जिम्मेदार कौन है? बर्फ की चट्टान पिघल कर बूंद-बूंद कर जल राशि का रूप धारण कर सागर की गहराई बढ़ाने लगे तो किस कारण? अनादि काल से चलती आ रही संस्कृति, परंपरा सब किसके लिए है? इसीलिए न कि मानव जाति का कल्याण हो। आधुनिक परी-करण के विस्तार से लोग साज सज्जा के शौकीन हो कर पेड़-पौधे काटते जा रहे है। रोज़मर्रा की जिंदगी में जरूरत की चीज़ें लोगों के जरूरत के साथ बढ़ती जा रही हैं। कहाँ है इसका अंत? कहीं तो रोकना है। मगर कहाँ और कौन रोकेगा?

समग्र जीव जंतु की ज़िंदगी आज खतरे में है। जन-जीवन के साथ-साथ मैं भी बेहाल जिंदगी गुजार रही हूँ। आग सुलग रही है, बुझाएगा कौन? न जाने कितनी जिंदगी इस आग के लपेटे में आ जाएंगी।

सहज, सरल जीवन कठिन से बदतर होता जा रहा है। पेड़, पौधे, जानवर, जन जीवन भी खतरे में है। रोग नए न जाने कितने ही लोगों की जान ले रहे हैं। सँभालना है, मानव को संभलना है। काश, मानव पहले ही समझ पाता। अब बहुत देर हो चुकी है। समुद्र की लहरें भूमि को निगलती जा रही हैं। मौसम हर साल नया रूप दिखा रहा है। सूरज की रश्मि पर भी काली घटाएँ छा रही हैं। एक दिन था, जब हवा में सुगंध थी, एक दिन था जब पानी की मिठास से जिंदगी जी उठती थी। एक दिन था, सूरज की पहली किरण जीवन में नए आशाएँ भर देती थी।

मगर आज डर ...

डर हर दिल पर छा रहा है न जाने क्यों, कब, क्या हो जाए। भारतवर्ष के इतिहास को सुनहरे अक्षरों में लिखने वाली कलम की स्याही का रंग आज बदल गया है। आज सिर्फ वह खून का रंग लिखता है। रोज़ अखबार में कुछ नयापन देने की जगह घर्षण, खूनी खेल, दुर्घटना, विध्वंस की खबर काले अक्षरों में लिखी जाती हैं।

यह सब किसके लिए है?

दुर्घटना हत्या, नारी-घर्षण, बच्चों के प्रति राक्षसत्व, साथ-साथ प्रकृति के विपरीत प्रतिक्रिया, जन्म ले रहा रोज़ एक वैपरीत्य। सादगी, मासूमियत, मुहब्बत, ईमानदारी इन सबके मतलब ही दुनिया में खोये जा रहे हैं, गांधीजी वाक्य बन कर दीवार पर लटक रहे हैं। राजनीति के तख़्त को सँभालने वाले लोग तो कम नहीं हैं मगर लोगों की देश की दुनिया की परवाह करने का समय किसके पास है?

बाढ़ सुखा कोहराम-

प्रकृति के प्रभाव से बचते कितने हैं?

एक जिंदगी की एक लाख भरपाई करते जरूर हैं। मगर जान-माल की हानि की क्या यही है भरपाई? इन दुविधाओं से उभर आने कि कोशिशें कितनी की गयी हैं ?

सागर जैसी जिंदगी को सँभालते-सँभालते लोग यदि अचानक ग़ायब हो जाते हैं तो जिम्मेदार कौन? समाज सरकार प्रकृति या लोग? यह भीषण समस्या का समाधान करेगा कौन?  

क्या एक खुशहाल जिंदगी देख पाएगी धरती? सच्चाई, न्याय और धर्म इन शब्दों का अर्थ दे पाएगा? हवा में खुशबू, सूरज की किरणों में आशा और विश्वास, चाँद की शीतल छाया फिर से नसीब हो पाएगी?

आज घृणा, स्वार्थ, ताकत और पैसों के बल पर चलने वाली यह धरती क्या दे पाएगी एक सौजन्य भरी जिंदगी? नदी-नालों में खून की दुर्गंध से उमड़ते बादल दूर ले जाकर फेंकने में कामयाब हो पाएंगे? क्या धूल-मिट्टी में फिर वह सुगंध लौट आएगी जो श्याम की गोधूलि में रहा करती थी?

क्या मैं फिर उस धरती को देख पाऊँगी, जो सालों पहले मेरी गोद में खेला करती थी? आज भी में वही बालुका हूँ। विस्तीर्ण समुद्र की गोद में लहराते लहराते प्रशस्त और सुविधा जरूर बन गयी हूँ न जाने कब तक मैं धरती की हर साँस की साक्षी बनी रहूंगी... न जाने कब तक... वैसे ही चिर, अटल और सीमाहीन, जैसे आज तक सँभालती आई हूँ।

 

 

 


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