परिवार के बिखराव में दोषी कौन

परिवार के बिखराव में दोषी कौन

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परिवार के बिखराव के लिए हमेशा स्त्री ही जिम्मेदार नहीं होती इसके अलावा उसके चहुँ ओर उसके परिवार उसके प्रति दूसरों का व्यवहार भी होतीं हैं, जैसे परिवार का दबाव, जरूरत से ज्यादा काम का बोझ, इज्जत की कमी आदि। जिसके कारण उसे अपनी अस्तित्व खतरे में पड़ता नज़र आता है। अगर नारी को घर परिवार में प्यार और इज्जत मिले उसे कहीं जाने की जरूरत नहीं पड़ती। लेकिन घर में अगर उसके अस्तित्व पर ही सवाल उठे तो उसे अपनी अस्तित्व का खोज करना जरूरी हो जाता है। लेकिन कई बार स्त्री के अपने अस्तित्व बनाने में व्यस्तता, परिवार के लिए समय न दे पाना, पति पत्नी के एक दूसरे का साथ न देना, ग़लतफहमी और संयम का लोप से घर बिखरने लगता है। लेकिन इसके लिए परिस्थितियाँ और परिवार भी दायी होते हैं। 

 भागदौड़ की जिंदगी में हर किसी को परिवार के लिए वक्त दे पाना मुश्किल हो रहा है। पहले संयुक्त परिवार में स्त्री की जिम्मेदारी परिवार के हर व्यक्ति को एक सूत्र में जोड़ने और घर की हर सदस्य का सुख सुविधा का ध्यान रखने तक ही सीमित था। धीरे-धीरे उसे घर के कामकाजी एक वस्तु के रूप में देखा जाने लगा। जिससे उसके अस्तित्व पर चोट तो पहुँची। साथ ही नाकामयाबी का दुख उसे सताने लगा। पूरे परिवार का ध्यान रखने के बावजूद उसके परिवार में इज्जत कमी और चुभ ने वाले शब्द बाण उसे हमेशा चोट पहुँचाती रही। जिससे उसकी सहन की हद खत्म होने लगा। जहाँ स्त्री को सहनशीलता के उदाहरण दिया जाता था वहीं उसके आत्मसम्मान बचाने के लिए नौकरी करनी पड़ी। समय के साथ ही स्त्री का रूप भी बदलने लगा।

 समाज मे बढ़ते स्त्री शोषण के चलते स्त्री अपनी पहचान बना कर आर्थिक रूप से खुद को एक सख़्त इंसान के रूप में खड़ा करने की कोशिश करने पर मजबूर हो गई। कई बार उसे परिवार से मनमुटाव तो कई बार घर छोड़ कर बाहर कदम रखना पड़ा। स्त्री की यह लड़ाई कभी आसान नहीं था, हर कदम पर मान सम्मान के लिए जद्दोजहद कोशिश रही। जहाँ स्त्री घर को जोड़कर रखने में एक सख़्त वजह थी वहीं धीरे-धीरे उसकी सीमा रेखाएं घर से बाहर समाज और दफ्तर तक बढ़ती गयी। दफ्तर और घर दोनों को संभालना मुश्किल होने लगा। आज की नारी फिर भी अपनी आज़ादी के साथ घर परिवार एक साथ सँभालने की हिम्मत रखती है। लेकिन इसके लिए घर के अन्य सदस्यों का साथ भी ज़रुरी हो जाती है। वह परिवार में हर वक्त सक्रिय रहकर हर काम निष्पक्ष और संयम से अपनी कर्त्तव्य निभाती आई है। 

आज भी स्त्री को बढ़ते दहेज़ प्रथा, परिवार में नारी के दमन, स्त्री को चूल्हे चौके तक सीमित रख सिर्फ एक जरुरत की उपकरण जैसी हालात पैदा कर दी गयी है। उसके घर से बाहर निकलना और अपने ही आत्म सम्मान के लिए नौकरी करना परिवार में अशांति और अहंभाव पैदा करने लगा। लेकिन क्या इसके लिए स्त्री अकेली जिम्मेदार है?

परिवार के हर किसी की यह जिम्मेदारी बनती है कि जरुरत होने अपनी सहभागिता अपने हिस्से का कार्य पूरे ईमानदारी, संयम और सच्चाई से करें। परिवार तब बिखरता जब सदस्यों में विश्वास न हो एक दूसरे की सम्मान न करे। एक दूसरे की परिशनियों को समझकर और हालात से निपटाने में अगर पूरा परिवार साथ खड़े हो जाए तो बिखराव असम्भव है। परिवार यानी कई सदस्यों का साथ। हाथ की पाँच उंगलियां कभी बराबर नहीं होती, वैसे ही परिवार में हर किसी की मानसिकता एक सी नहीं होती है। उन्हें समझाना उनसे ताल-मेल बनाए रखते आगे बढ़ना सभी की जिम्मेदारी है। हर किसी को अपने हिस्से का कर्त्तव्य निभाना पड़ता है। हाँ, कई बार स्त्री बिखराव का कारण भी बन जाती है, लेकिन इसके लिए सिर्फ नारी को दोष देना ठीक नहीं। पुरुष का स्त्री को दमन करने जैसी प्रक्रिया स्त्री में विरोधाभास उत्पन्न करती है परिणाम कई बार परिवार में मनमुटाव पैदा हो जाती है। अगर पुरुष, स्त्री को इज़्ज़त दें स्त्री का अच्छा बुरा हर तरह ख्याल रखे और उसके काम में मदद कर उनकी अहमियत को हाथों से व बातों से प्रकट करे और उनको भरोसा दे सके तो स्त्री भी परिवार को हर मुश्किल से बचा कर अपनी परिवार के लिए कुछ भी करने को तैयार हो सकती है और वो कदाचित नहीं चाहेगी उसका परिवार बिखरे। 



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