चुप्पी
चुप्पी


उसकी गलती थी कि वो समझदार थी। गलती कोई भी करे माँ उससे बोलती- जाने दो न बेटा! तुम तो समझदार हो। अबउसने शिकायतें करना बन्द कर दिया था । चुप रह जाती थी। दिन रात जूझती अपने सपनों को पूरा करने के लिये। वो दिन भी आया जब वो अपने सपने पूरे करने घर से निकली। माँ और बड़े भाई की हिदायत थी - चुपचाप समय बिता कर वापस घर आना। कोई तुम्हें जाने किसी भी वजह से ये हम नहीं चाहते।
पढाई के साथ साथ चुप्पी भी बरकरार रखने की जिम्मेदारी भी थी उस पर। समय बिता कर आदेशानुसार चुपचाप वापस आ गयी। पर अब अंदर से कुछ खौलने लगा था। सब्र का बाँध टूटने को था। वो लोग समझने लगे थे शायद! शादी हुई तो भी वो चुप ही रही। अपनी पसंद ख्वाहिश कभी जाहिर नहीं की।
ससुराल मनमुताबिक नहीं मिली। मायके से फिर वही ज़वाब- तुम तो समझदार हो! फिर चुप्पी! बच्चे हुए। भगवान ने इस बार चुप्पी उस
के बच्चे के हिस्से में लिख दी थी। वो बोलने में असमर्थ था।
नौकरी की। पोस्ट रुतबा ज़रूर बढ़ा पर धैर्य ज़वाब दे गया जब यहाँ भी कुछ गलत होने से रोकने के लिये अपने सीनियर पुरुष अधिकारी से शिकायत करने पर -
"मैडम, जिनके घर शीशे के होते हैं वो औरों के घर में पत्थर नहीं मारते! " सुनने को मिला।
दिल बागी हो गया। कब तक चुप रहेगी वह? क्यों? बच्चे तो आखिर उसे ही पालने हैं। तो क्या वो कभी स्टैंड नहीं लेगी? क्या घर बाहर सब जगह सब उस पर निर्णय थोपते रहेंगे और वह चुप रहेगी? उसका पढ़ना लिखना, स्वावलंबी होना क्या मायने रखता है अगर वो पूरी जिंदगी चुप रहेगी? उसने बोलने का निर्णय ले लिया था इस बार क्योंकि.....
क्योंकि इस बार बात केवल उसकी नहीं, उसके बच्चों की भी थी।
वो बोलने लगी और बहुत कुछ बदल गया........