चिटकते अहम्
चिटकते अहम्


"तुम बात क्यों नहीं करती हो अब हमसे? एक समय था जब हर काम पूछ पूछ कर कहती थी और अब सालों हो गए तुमसे बात की होगी!" उनकी आवाज में आज दर्द झलक रहा था
"आप से पूछ पूछ कर काम करती थी तो आपने क्या किया ?आपका बर्ताव क्यों बदलता जा रहा था? क्यों आपको लगने लगा था कि आप की सलाह के बिना मैं कोई मैं निर्णय नहीं ले पाऊंगी? अपने जीवन में खुद से आगे नहीं बढ़ पाऊंगी? याद आया आपको ,आपने कहा था आज से मुझसे कोई सहारा मत लेना!"
उसके सवालों से तिलमिलाहट लाज़मी थी।
"तुम हर बात में सवाल पूछती थी और मेरी सलाह को अगर मानना ही नहीं तो पूछने का क्या फायदा? जैसे पहले हर बात जो कही जाती थी वैसे का वैसा मानती थी ,अब क्यों नहीं मानती?" उनके स्वर में झुंझलाहट स्पष्ट थी।
"यह सवाल तो आपको खुद से पूछना चाहिए कुछ तो आपके निर्णय आपकी सलाह गलत साबित हुई होगी और फिर भी आप चाहते हैं कि आपकी हर बात शत प्रतिशत मानी जाए!
मैं आपसे एक एक बात पूछ पूछ कर इसलिए नहीं चलती थी क्योंकि मैं निर्णय लेना नह
ीं जानती या मुझ में आत्मविश्वास की कोई कमी है! मैं तो आपको इज्जत देना चाहती थी पर आपने मुझे खुद ही अपना सहारा ना लेने की बात कहकर मुक्त कर दिया। "उनके अहम को चोट पहुंचाने वाली बातें इतनी आसानी से कह गयी वो।
"सही तो किया मैंने! तुम इतनी बड़ी हो गई कि तुम भूल गई तुम आज जो भी हो तुम्हें मैंने बनाया है! "
चिटकते अहम की आवाज़ थी ये।
"गलतफहमी है आपकी! कोई किसी को क्या बनाएगा अगर उसमें वह प्रतिभा ना हो, मेहनत ना हो, हिम्मत ना हो! किसी को भी बना सकते हैं, तो बना दीजिए किसी सड़क छाप आवारा को ! मैं भी मान जाऊँगी।
मैंने उन सभी से अपने आप को मुक्त कर लिया है जो मेरे साथ आने को एहसान समझते हैं !अब साथ वही आए जो साथ चले । अब मैं किसी के पद चिन्हों पर चलने और एहसान ढोने के लिए तैयार नहीं। अब मुझे मेरा साथ देने वालों और मेरे पद चिन्हों पर चलने वालों की तलाश है। आपसे मुक्त होकर मेरे निर्णय मेरे कहलाये और मैं गर्व कर सकती हूँ खुद पर। मुझे कोई पछतावा नहीं है। "फोन कट गया था।