चढ़ावा

चढ़ावा

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हाथ में माता के भोग की थाली लिए मैं मंदिर की राह पर अग्रसर था. ये किस्सा दिवाली से ठीक पहले आने वाले नवरात्रों का है. वो शायद नवरात्री की आखरी शाम थी और मोहोल्ले में एक त्यौहार मय माहौल बना हुआ था. बिजली की लड़ियो से जगमग आस पास के मंदिर और स्पीकर में बजते भजन को सुनकर इक अज़ब सा ही अध्यात्मिक माहौल फ़िजाओ में तैर रहा था.

नवरात्रों के दिनों से ही दिवाली आने का माहौल बनना शुरू हो जाता. बाजार में लगी रौनक को देख अंदाजा लगाया जा सकता है की दिवाली कितनी दूर रह गयी.


मैं प्रसाद की थाली हाथ में लिए मंदिर पंहुचा जंहा पंडित जी और उनकी धर्म पत्नी के दर्मिया कुछ व्यंग बाण चल रहे थे.


पत्नी: मैंने कहा था ना रहने दो !! पर मेरी बात तो माननी नहीं है आपने !!!

पंडित जी: कोई बात नहीं आगे से ध्यान रखेंगे नहीं करेंगे इतना खर्चा !!

पत्नी: अब फ़ोन आया था उसका बताओ कैसे दोगे पैसे...???


मगर मुझे सामने से आता देख उनकी पत्नी कमरे में चली गयी और मैंने प्रसाद की थाली पंडित जी को देते हुए माता को चढ़ाने का आग्रह किया.


माहौल में चिंता को देखते हुए मैंने पंडित जी से पूछा


मैं: क्या हुआ पंडित जी सब ठीक तो है आंटी काफ़ी भड़क रही थी.


पंडित जी: कुछ नहीं भईया वैसे ही है ....चलता रहता है.


मैं: क्या हुआ फिर भी.. वैसे??


पंडित जी: अरे बेटा नवरात्रों में मंदिर की डेकोरेशन और भजन के लिए सेठ से 30 हजार उधार लिए थे. सोचा की मंदिर की सजावट भी हो जायगी और दरबार भी अच्छा लगेगा.


मैं: अच्छा अच्छा !!


पंडित जी: अब आज सेठ जी का फ़ोन आया था पूछ रहे थे पैसे लेने कब आ जाऊ ?? बस उसी बात पे तेरी आंटी नाराज है !



मैं : वो क्यों ??


पंडित जी: क्या क्यों भाई ..!! पूरे नवरात्रे निकल गए चढ़ावा कुछ आया ही नहीं. जो आता है 5 – 10 रुपे चढ़ाता है. पूरे नवरात्रों में केवल 12 हजार रुपे चढ़ावा आया है !! और खर्चा हो गया 45 हजार का अब उसी पर लड़ रहे थे की कैसे दिया जाये.



मैं: अच्छा...फिर अब पंडित जी ?? (उनके चेहरे पर निराशा के भाव देख कर बुरा लग रहा था)


पंडित जी: देखो भईया माता रानी ही रास्ता दिखायगी कुछ !!!


ये कहते हुए उन्होंने थाली में प्रसाद का लड्डू दिया जिसे देखते हुए इक गंभीर सोच में डूबा में घर के और चल पड़ा।


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