छोटा सा कारण बड़ा फासला रिश्तो की अनकही दास्तां
छोटा सा कारण बड़ा फासला रिश्तो की अनकही दास्तां
छोटा सा कारण, बड़ा फ़ासला – रिश्तों की अनकही दास्ता
वह दिन-रात मेहनत करता था, लेकिन उसे घर की सफ़ाई और सलीका समझ नहीं आता था। सान्वी उसकी बिल्कुल उलट थी — उसे घर एकदम साफ़-सुथरा और व्यवस्थित चाहिए होता।
“तुमने तौलिया बाहर क्यों नहीं सुखाया?” – सान्वी झुंझलाकर नीरव से पूछती।
“सॉरी, भूल गया। अभी सुखा देता हूँ, ऑफिस के लिए देर हो जाती है,” नीरव झल्लाकर जवाब देता।
नीरव और सान्वी की लव मैरिज को अभी दो साल ही हुए थे। दोनों सैटेलाइट एरिया में लग्ज़री अपार्टमेंट्स में आमने-सामने रहते थे। नीरव MBA कॉलेज में पढ़ता था, और सान्वी आर्किटेक्चर स्कूल में इंटीरियर डिज़ाइनिंग की छात्रा थी। उम्र लगभग बराबर होने के कारण वे साथ में पढ़ते, प्रोजेक्ट करते। कॉलेज में उनकी फील्ड अलग हो गई, लेकिन मिलना-जुलना चलता रहा। धीरे-धीरे एक-दूसरे की ओर आकर्षण बढ़ता गया।
MBA पूरा करने के बाद नीरव को एक मल्टीनेशनल कंपनी में अच्छी नौकरी मिल गई, जबकि सान्वी ने इंटीरियर डिज़ाइनर के रूप में स्वतंत्र प्रैक्टिस शुरू की। जब प्रेम और लगाव गहराने लगे तो उन्होंने शादी करने का निर्णय लिया। परिवार ने विरोध किया — “तुम दोनों की लाइन एकदम अलग है, मेल नहीं खाएगा।”
“नहीं, हमारे दिल में सच्चा प्यार है, शादी में कोई अड़चन नहीं आएगी,” नीरव ने शांत स्वर में कहा।
शुरुआती डेढ़ साल बहुत सुंदर बीते। नीरव अपने काम को लेकर बहुत मेहनती और उत्साही था। उसे कंपनी में असिस्टेंट मैनेजर बनना था, इसलिए वह दिन-रात मेहनत करता। लेकिन घरेलू साफ़-सफ़ाई और सलीके से उसे कोई लेना-देना नहीं था।
सान्वी उसकी एकदम विपरीत थी। उसे घर बिलकुल सजा-संवरा चाहिए। एक इंटीरियर डिज़ाइनर को तो साफ़-सुथरा और आधुनिक घर ही अच्छा लगता है। उसे नीरव की चीजें इधर-उधर रखने की आदत बिल्कुल पसंद नहीं थी। आखिरकार, उसने तंग आकर टोकना शुरू कर दिया।
“नीरव, ऑफिस से आकर जूते मोजे स्टैंड में ठीक से रखो।”
“सॉरी डियर,” – थके हुए चेहरे से नीरव जूते स्टैंड में रखने लगता और मन ही मन सोचता – “इतनी छोटी बातों पर इतनी टोका-टोकी?”
एक दिन नीरव लैपटॉप पर ऑफिस का काम कर रहा था, तभी सान्वी चिढ़कर बोली – “सिगरेट पी रहे हो तो ऐश-ट्रे लेकर बैठो, राख नीचे गिरेगी तो कार्पेट खराब हो जाएगा।”
नीरव का ध्यान भटक गया – “मेरा प्रेजेंटेशन बिगड़ जाएगा, तुम ही ट्रे लाकर रख दो न।”
“नहीं, अपना काम खुद करो। तुम्हें साफ़-सफाई का बिल्कुल ख्याल नहीं। कितना गंदा है!” – सान्वी तमतमाकर बोली।
“सान्वी, मैं हमारे घर के लिए ही इतनी मेहनत कर रहा हूँ। एक बार मैनेजर बन जाऊँगा तो फुल-टाइम मेड रख लेंगे,” नीरव भी झुंझलाकर बोला।
“हर बार पैसे कमाने का रौब दिखाते हो।” – कहकर सान्वी मुँह फुलाकर अलग जाकर लेट गई।
नीरव भीतर-भीतर बहुत चिढ़ गया – “ये कैसी पत्नी है? रोज़-रोज़ की टोका-टोकी! अब और नहीं सह सकता।”
सान्वी का आत्म-सम्मान आहत हुआ। उसने अपना बैग उठाया और सीधे मायके – बोपल स्थित बंगले की राह पकड़ ली। नीरव उसे जाता देखता रह गया।
“इतनी छोटी-छोटी बातों पर अलग हो जाना?”
मध्यस्थ लोग तो जैसे इसी मौके का इंतज़ार कर रहे थे — उन्होंने दोनों के ख़िलाफ़ एक-दूसरे को भड़काना शुरू कर दिया। बात बढ़ती गई। आखिरकार दोनों की सहमति से तलाक का केस दर्ज कर दिया गया।
दोनों की सहमति को देखते हुए जज साहब ने तलाक मंज़ूर कर लिया। आदेश मिलने के पंद्रह दिन बाद आकर काग़ज़ात ले जाना था। साथ ही, सान्वी को अपना सामान ले जाने की अनुमति भी मिल गई।
सान्वी घर आकर एक-एक करके सामान समेटने लगी। जूतों का स्टैंड देखते ही पछतावा हुआ – “उफ़! मैंने नीरव को गलत टोका। वह थका हुआ आया था, थोड़ी देर बाद खुद ही रख देता। क्या ज़रूरत थी बार-बार टोकने की?”
उधर नीरव सोचने लगा – “मुझे मोजे जूतों में डाल देने चाहिए थे… मेरी ही गलती थी।”
बालकनी में सूखता गंदा तौलिया देखकर सान्वी फिर पछताई – “कितना गंदा तौलिया है! मैंने सही कहा था, लेकिन शायद थोड़ा संयम रखती तो बेहतर होता।”
नीरव ने भी वह तौलिया उठाकर धोने डाल दिया। सान्वी देखती रह गई – “वाह! अब नीरव भी साफ़-सफ़ाई को समझने लगा है।”
नीरव सोच रहा था – “काश सान्वी यहीं रुक जाए। इतने बड़े घर में मैं अकेला क्या करूँगा?”
लेकिन दोनों के मुँह से ‘रुको’ या ‘चलो’ जैसे शब्द निकलने से पहले ही ‘ईगो’ आड़े आ रहा था।
ड्रॉइंग रूम में कार्पेट पर ऐश-ट्रे में भरी सिगरेट की राख देखकर सान्वी को गुस्सा भी आया और चिंता भी – “नीरव अकेले सिगरेट से मर जाएगा। काश वह मुझे रोक ले।”
उधर नीरव भी सोच रहा था – “अब मैं ऐश-ट्रे में ही राख डालूंगा। सान्वी को साफ-सफाई पसंद है, वह रुक जाए तो कितना अच्छा हो।”
दोनों ही मन ही मन अपनी गलती मान चुके थे, और फिर से साथ रहने का सोच रहे थे, लेकिन पहल कौन करे?
तभी दरवाज़े की घंटी बजी। सान्वी ने जो मेटाडोर बुलाया था सामान ले जाने के लिए, वह आ गया था। वह सामान लेकर निकलने लगी।
दोनों एक-दूसरे की ओर देख रहे थे — मन में संवाद था, लेकिन होठों पर ‘ईगो’ की दीवार थी।
नीरव भी मेटाडोर तक आया। सान्वी सोच रही थी – “कितना बेरहम है, एक बार भी रोका नहीं।”
तभी तेज़ गति से आती एक कार देखकर नीरव दौड़ा, “सान्वी, संभल!” – कहकर उसे धक्का देकर बचा लिया।
सान्वी सिहर उठी – “तुमने मुझे क्यों बचाया? अब हमारा क्या रिश्ता?”
“ऐसे कैसे मरने दूँ? तुम्हारे बिना मैं कैसे जियूँगा?” – नीरव अनायास बोल पड़ा।
एक ही आकस्मिक घटना ने दोनों का ‘ईगो’ पिघला दिया।
“नीरव, तुम्हारे बिना तो मुझे भी जीना मुश्किल है।” – कहते हुए सान्वी उससे लिपट गई।
मेटाडोरवाले से कहा गया – “सामान वापस रख दो।” वह हक्का-बक्का देखता रह गया – “अब मेरे भाड़े का क्या?”
“अब सामान कहीं और ले जाने की ज़रूरत नहीं।” – दोनों एक साथ बोल पड़े।
कोर्ट से तलाक का आदेश लेने अब तक कोई नहीं गया है।
अंतिम संदेश
अपने करीबी रिश्तों में अहम की नहीं, मन की सुनो। नहीं तो सारी उम्र पछताना पड़ सकता है।
