छाता चोर
छाता चोर


कोविद-१९ महामारी के चलते लॉकडाउन चालू है। कई कंपनी और सरकारी दफ्तरों ने वर्क फ़्रॉम होम की स्वीकृति दी । वह कंपनी जिनके पास धन है उन्हें कोई परेशानी नहीं है पर कुछ निजी क्षेत्र ऐसे भी हैं जिन्हें यह बात ठीक नहीं लगी। उन्होंने अपने कर्मचारियों को काम पर बुलाया। न ही जाएं तो कैसे? आजकल नौकरी है भी कहां? सरकारी नौकरी तो जनाब किस्मत में लिखवाकर लाएं तो ठीक मगर जिनकी किस्मत ही बीपीएल कार्ड से शुरू हो उनके बारे में क्या कहें।
खैर हमारे प्रणव भैया भी बीए पास कर इसी तरह एक प्राइवेट कंपनी में काम करने लगे। कोई उपाय भी नहीं, टेट की परीक्षा दी पर.... सब हरीच्छा मानकर काम में जुट गए। कम से कम महीने के आखिर में कुछ बन्धे हुए पैसे तो मिलते हैं, वह भी न मिलने पर गुजारा मुश्किल है। ऐसी बंदी के बावजूद उन्हें ऑफिस जाना जरूरी था। वैसे सबको यही पता है कि वे बाबू बन गये हैं पर असलियत तब खुली जब कोलोनी का एक लड़का उनके दफ्तर गया और उन्हें पानी के गिलास उठाते देखा तो भ्रम टूटा। प्रणव ने भी हाथ-पैर जोड़ कर उसे मनाया पर ऐसी बातें जब तक बांटी न जाए हजम किसे होती हैं? एकाध को पता चलीं और वे प्रणव को बाबू साहब बुलाने लगे।
हमारे यहां मानसूनी बारिश शुरू हो गई। वक्त- बेवक्त बारिश हो जाती है। ऊपर से प्रदूषण कम होने पर ठंड भी थोड़ी कायम है। ऐसे में घर से निकले तो छाता साथ ले जाना एक तरह से अच्छा ही है।
प्रणव भी आदतन हमेशा छाता लेकर ही जाता है। वरना कब भीगकर पूरा गीला हो जाए कहना मुश्किल है। एक तो बेचारा तंगहाली में बड़ा हुआ इसीलिए अभाव की कहानी भली भांति जानता है। जो भी खरीदा उसे लंबे समय तक न चलाया गया तो दोबारा खरीदने के बारे में सोचना भी एक सज़ा है। बचपन से ही चीज़ें संभाल कर रखने की सीख ही उसकी सारी शिक्षा की जड़ थी। पिछले सप्ताह से बारिश भी लगभग पूरा-पूरा दिन ही बौछार से सब कुछ धो रहा था। प्रणव दफ़्तर पहुंच कर भीगे हुए छाते को पानी रिसने के लिए बाहर ही एक कोने में रखकर अपने काम में जुट गया। चिंता की कोई बात भी नहीं थी क्योंकि कोई बाहरी आदमी तो आएगा नहीं और दफ़्तर वाले कोई बाहर जाएंगे नहीं। इसी निश्चिंतता ने उसे अपनी जायदाद रूपी छाते की ओर ज्यादा ध्यान जाने नहीं दिया। वह काम में जुट गया। दोपहर ढलते-ढलते जब छुट्टी का समय हुआ तब उसने बाहर से छाता लाने की सोची। वह गया पर छाता गायब था। कभी-कभी अक्सर मन यह मानने को तैयार नहीं होता कि कुछ खो गया है लगता है यहीं कहीं होगा खोजने पर मिल जाएगा।
उसने खोजा-खोजा, सबसे पूछा पर छाता जो गायब हुआ सो हुआ। कहीं से भी कोई सुराग तक नहीं मिला कि आखिर गया कहां? अंत में उसे मान लेना पड़ा कि छाता उसे अब नहीं मिलेगा। मन मसोस कर उसे खुद को समझाना पड़ा कि अब और उम्मीद करके भी लाभ नहीं होगा। प्रणव ने लौटना ही ठीक समझा। उसने उस अज्ञात चोर को मन ही मन खूब गालियां दीं जिनमें तमाम अश्लील शब्द शामिल हैं और अगर बन पाता तो उसके देह की ताकत लगाकर भी वह उस चोर की खूब पिटाई करता। इन्हीं बातों में उलझते हुए वह मेन रोड के पास पहुंच गया। रास्ते के मुहाने में एक दुकान खुली मिली। शुक्र है, एकाध सामान उसे भी लेना है। उसने सामान खरीदते हुए ऐसे ही इधर उधर नजर दौड़ाई कि उसकी नज़र एक छाते पर पड़ी। देखने में लगभग उसके छाते की तरह ही था।
उसने एकबार सोचा हो न हो यह उसी का छाता है, सोचा क्या उसने अपने मन को मनाया कि यह छाता उसी का है और उसे किसी भी हालत में छाता वहां से लेकर जाना है। 'किसी भी हालत में' का सीधा मतलब यही है चाहे चुराना पड़े तो भी छाता लेकर ही जाएगा। दुकानदार उसे सामान देने में व्यस्त हुआ कि उसने छाता हाथ में उठा लिया। उसने पैसे दिए सामान लिए और तेजी से मुख्य सड़क की ओर लगभग भागते हुए गया। उसने मन बना लिया चाहे दुकानदार उसे पीछे से बुलाए पर वह मुड़कर नहीं देखेगा और कल शनिवार फिर रविवार दोनों दिन छुट्टी, जिस दिन खुलेगा उस दिन तक दुकानदार उसे भूल जाएगा। उसे अपनी सफलता पर हंसी आई।
मन कुछ देर ही शांत था फिर न जाने कहां से एक विपरीत सोच धीरे-धीरे उसके मन में हावी होने लगा। चोर....छाता चोर। अब तक जो भी किया ईमानदारी से किया, कभी चोरी जैसा काम नहीं किया पर आज यह क्या कर आया? उसे अपनी सफलता की हंसी पर चिढ़ मच गई। वह अभाव को पहचानता था। उसे एहसास हुआ कि दुकानदार की हालत उससे कुछ खास अच्छी नहीं है। वह भी कोई अमीर नहीं कि अब चाहा तो छाता खरीद लेगा। प्रणव को छाता भार लगने लगा। अब बारिश भी शुरू हो गई। पर उससे छाता खोला न गया। उसे लगा कि वापस जाकर दुकानदार को छाता लौटा देना बेहतर होगा पर उसे यह पता था कि भलाई का वह जमाना नहीं रहा कि लोग इसे गलती मानकर छोड़ देंगे। कुछ भी हो सकता है। पर इस पाप का प्रायश्चित करना भी जरूरी है।
वह इस छाते को बस अपने साथ घर लेकर नहीं जाएगा। पर फेंक देने में भी कौन सी भलाई है। चलते-चलते थोड़ा आगे जाने पर उसने एक बूढ़ा आदमी देखा। बिचारा बारिश में भीगते हुए कहीं जा रहा था। ऐसी हालत में घर से निकला है तो जरूर कोई काम ही होगा, शायद मुट्ठी भर भात के लिए........और ज्यादा बिना सोचे उसने छाता खोला और बूढ़े को थमाते हुए कहा,"लो बाबा और बारिश में मत भीगो।" बूढ़ा निहाल होकर उस अज्ञात दाता की ओर देखने लगा जो उसे जरूरत के समय भगवान जैसा लग रहा था। प्रणव ने हंसकर कहा, "रख लो, मेरे लिए तो अब तुम ही भगवान हो, प्रायश्चित कर रहा हूं।" इतना कहकर वह तेजी से घर की ओर जाने लगा। भीग तो गया था पर उसका मन शांत था।