चैटिंग
चैटिंग
इंटरनेट की दुनिया में दूर बैठे लोग आए-दिन एक-दूसरे से चैटिंग करते हैं। अलग-अलग लोग और लोगों की लग-अलग भाषा। जैसा इंसान, वैसा तेवर। कई बार तो हम एक दूसरे को ठीक से पहचानते भी नहीं मगर बातचीत करते हैं। यही तो इंटरनेट का जादू है, जहाँ दो अनजान भी अपनी इच्छा से एक-दूसरे से संवाद करते रहते हैं। कई बार आपस में मिज़ाज़ मिलता है तो कई बार नहीं भी मिलता है। मगर इस बातचीत से कई चीजें सामने आती हैं। मसलन किसी की महानता और उसके बड़प्पन की जो छवि हमारे मन में बनी होती है, सही मायनों में हमें उसके पीछे के असली चेहरे का भान होता है। इंटरनेट एक तरफ लोगों के बीच की दूरियों को कम करता है तो दूसरी तरफ देश-दुनिया की हक़ीक़त से भी हमें अवगत कराता है। साहित्य में नए-नए कदम रखे अरुण ने भी छपने-छपाने के ग्लैमर में जीना शुरू कर दिया था। अपने से वरिष्ठ साथियों की रचनाओं को पढ़कर और उसमें हाशिए और सर्वहारा वर्ग के प्रति ध्वनित होती समानुभूति की तीव्रता के आधार पर वह उन नामी-गिरामी साहित्यकारों के प्रति श्रद्धा-नत हो जाता। ये बड़े लेखक उसके आदर्श होते। जिस तरह किसी नए मॉडल/अभिनेता के लिए कोई स्थापित मॉडल या हीरो उसका आदर्श होता, ठीक वैसे ही ये बड़े साहित्यकार अरुण के आदर्श थे। मगर फिल्म और टी.वी. उद्योग में जिस तरह कास्टिंग-काऊच का प्रचलन बढ़ता जा रहा है, वैसे ही साहित्य में चापलूसी, पहचान, पद और क़द की महत्ता निरंतर बढ़ती चली जा रही है। ऐसे में पत्र-पत्रिकाओं में छपना तो एक पड़ाव मात्र है, मगर उसके बाद तो अकादमियों से विभिन्न कार्यक्रमों में बुलावा, सरकारी/निजी संस्थाओं से निमंत्रण, विभिन्न पुरस्कारों का झोलियों में गिरना न हो, तो काहे का लेखक। आज जब पढ़ने वाले से अधिक लिखने वाले हो गए हैं, तो लेखकों के सीमित पुरस्कारों/लाभकारी योजनाओं को लेकर परदे के पीछे एक गलाकाट-प्रतियोगिता तो चल ही रही है। ऐसे में हर बड़ा लेखक, अपने समकक्ष और अपने से छोटे कुछ ऐसा ही मोहभंग इस कहानी के मुख्य पात्र अरुण कौशल का हुआ है।
हिंदी ने भी अपने आपको इधर काफी कंप्यूटर-फ्रेंडली बनाया है। हिंदी के लेखकों ने लेखन से तो नहीं मगर दूसरे उपक्रमों से माल काटने शुरू कर दिए हैं। मगर तमाम भौतिक सुख-सुविधाओं के बीच मगन रहते हुए भी एक दरवेश बनने का ढोंग ज़रूर करते हैं। अपनी अहन्यमता में आकंठ डूबे हुए ये लेखक गण प्रकाशकों-संपादकों और संस्था-प्रमुखों की चाकरी करते हैं और जब किसी दिन खुद किसी हैसियत में आ जाते हैं तो अपने जैसे ही रीढ़ विहीन लोगों की फौज अपने आस-पास खड़ा रखना चाहते हैं। तो आइए, एक स्थापित हो रहे नवोदित कवि अरुण कौशल और एक स्थापित कवि अंशुमान प्रधान के बीच की चैटिंग को पढ़ते हैं और देखते हैं कि उदारता और उदात्तता की मूलभूत चीजें किस तरह समाज से ही नहीं समाज को प्रतिबिंबिंत करते लेखकों के अंदर से भी गायब हो रही है।
अरुण कौशल को चूँकि अपने-आप को हिंदी कविता की दुनिया में स्थापित करना है, अतः वह पहले से इस क्षेत्र में बाजी मारे हुए लोगों को जानता है। वह उनके कद को एक हसरत भरी निगाह से देखता है। अरुण कौशल भी यत्र-तत्र छपने लगा है। अतः उसका भी आत्मविश्वास क्रमशः पल्लवित-पुष्पित हो रहा है। वह नित्य नए लोगों से संपर्क में रहना चाहता है। वह दूसरे लेखकों की तरह खुद को भी फेसबुक, ट्विटर और आर्कुट पर अपडेट रखता है। उसी क्रम में एक दिन वह ‘फेसबुक’ पर अंशुमान प्रधान से बातचीत करता है जिसकी अविकल प्रस्तुति यहाँ दी जा रही है-
अरुण कौशल, “नमस्कार, नया क्या लिख रहे हैं?”
अंशुमान प्रधान, “कविताएं।”
अरुण कौशल, “इधर कहाँ प्रकाशित हुई हैं?”
अंशुमान प्रधान, “कहीं नहीं।”
अरुण कौशल, “कहीं नहीं...क्या मतलब!”
उधर से कोई जवाब नहीं आया। अरुण ने दुबारा लिखा, ”ज़रा खुलकर चर्चा हो।”
अंशुमान प्रधान, “बस।”
अरुण कौशल, “हमारे जैसे पाठक आपकी कविताओं की प्रतीक्षा किया करते हैं। हमारी प्रतीक्षा का भी थोड़ा ध्यान रखें।”
अंशुमान प्रधान, “बिल्कुल, आभार।”
(कुछ देर रुककर)
अरुण कौशल, “थोड़ा बहुत मैं भी लिखता हूँ।”
अंशुमान प्रधान, “….”
अंशुमान प्रधान ने आगे जवाब नहीं दिया। वास्तव में वह जवाब देना नहीं चाहता था। वह कविता लिखता है, लेकिन उसकी परवर्ती पीढ़ी क्या लिख रही है, इसमें उसकी कोई रुचि नहीं है। वह अपने आपको इतना बड़ा कवि मानता है कि उसे अपने आगे किसी नए लौंडे-लफाड़े के लिखे को पढ़ने की ज़रूरत महसूस नहीं होती है। यह समकालीन हिंदी लेखन परिदृश्य में एक अघाए हुए लेखक का तेवर है, जिसे बमुश्किल चार-पाँच सौ जानते हों, तो गनीमत है। मगर थोड़ा नाम-सम्मान पाकर उसके कदम मानों धरती पर नहीं टिक रहे हैं। हेकड़ी ऐसी कि कोई नोबेल पुरस्कार विजेता भी उसके आगे पानी भरे।
यह हिंदी कविता का प्रदेश है जहाँ समकालीन कविता का वृतांत इस तरह लिखा जा रहा है। यह दो कवियों के बीच का इंटरनेट पर हुआ वार्तालाप है, जहाँ खामोश और रूखी प्रतिक्रिया उनकी गंभीरता का पर्याय नहीं है, बल्कि वरिष्ठ की हेकड़ी और कनिष्ठ की दयनीता का सबूत है। महत्वाकांक्षाओं और अनर्गल प्रलाप से भरे इस आधुनिक समय में कविता का यही भविष्य है, कवियों का यही तेवर है।
उम्मीद है, ऐसी किसी चैटिंग का हिंदी कविता के मिजाज पर कुछ बुरा प्रभाव न पड़े।
कवियों का जो हो, कविता बची रहे। आमीन!!
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कोई तीसरे दिन पर फेसबुक पर दोनों ऑनलाइन दिखे। मगर अरुण ने इस बार अंशुमान प्रधान से कोई बातचीत नहीं की| मगर उसके मन में यह अंतर्द्वन्द्व चला कि क्या हर बार हर लेखक ऐसे ही बात करता है। मन ही मन उसने सोचा, कि चलो अंशुमान प्रधान को नहीं तो इस बात किसी और से संवाद किया जाए। आखिर हिंदी कविता में सभी वरिष्ठ कवि इतने रूखे तो नहीं होंगे। यह क्या कि एक की बेरुखी को सभी वरिष्ठ साहित्यकारों पर लागू करते हुए उन्हें उस निगाह से देखा जाए! आखिर स्वयं अपनी हथेली की उँगलियाँ भी कहाँ एक होती हैं! और फिर उस समय आदमी का जाने कैसा मूड रहा हो! अगर अंशुमान से नहीं तो किसी और वरिष्ठ लेखक से तो बातचीत की ही जा सकती है। इस राज्य-स्तरीय पुरस्कार से सम्मानित एक दूसरे कवि कैलाश शंकर से चैटिंग करने का उसने मन बनाया। अरुणेश कोई आठ-महीनों से उनका फेसबुक फ्रेंड था, मगर अबतक कभी चैटिंग नहीं हुई थी। सोचा, कि चलो इसी बहाने उनसे कुछ बातचीत भी हो जाएगी। आखिर आदमी अपने से बड़ों से ही तो कुछ सीखता है! तो लीजिए, उस बातचीत का भी एक नमूना प्रस्तुत है। अरुण कौशल तो वही है, अपनी कहानी का नायक। मगर, यहाँ कैलाश शंकर एक दूसरे स्थापित कवि हैं। इसका भी एक नमूना देखें-
अरुण कौशल, “कैसे हैं आदरणीय।”
अंशुमान प्रधान, “अच्छा हूँ भाई।”
(टिप्पणी: नोट करें, यह भाई शब्द बहुत कुछ कहता है।)
वह अरुण कौशल के संबोधन से गदगद है। उसे अपने आप पर नाज़ है। वह जाने कितना विश्वस्तरीय और मूल्यवान रच रहा है! उसके ‘भाई’ में बड़ा वज़न है। सावधान!, कहीं अरुण कौशल उस बोझ के नीचे न आ जाए! उसे एक बार फिर अपने वरिष्ठ साथी का वही जातिगत चरित्र नज़र आया। उसका मन अवसाद से भर गया। पल भर के लिए लग, वह अपना खून जलाकर यह सब क्यों लिखता है! क्या सचमुच इन्हें कोई पढ़ता है! वह यह सब छोड़ क्यों नहीं देता! क्या इससे बेहतर यह नहीं कि वह लेखकीय कर्म में व्यतीत होते अपने समय को अपने परिवार के साथ बिताए! उसे याद आया.. कल ही तो उसने मन में उमड़-घुमड़ रही कविता को शब्दों में ढालने के लिए घर आते ही वह लैपटॉप लेकर बैठ गया था। कोई दो-ढाई घंटे लगातार कुछ न कुछ वह लिखता रहा। कई बार लिखे हुए की काट-छाँट की। दो बार पत्नी चाय रखकर गई। कविता की धुन में दोनों बार उसे ठंडी चाय पीनी पड़ी।
अपने हीरो ने पिछली चैटिंग से कुछ सबक लिया था। इस बार ‘बैकफुट’ पर खेलने की बजाय वह स्वयं आक्रामक हो जाता है। आगे बढ़कर ऐसा शॉट मारना चाहता है कि गेंद सीधे मैदान से बाहर।
अरुण कौशल, “पत्रिका के फरवरी अंक में मेरी कुछ कविताएं थीं।”
अंशुमान प्रधान को कुछ सूझा नहीं कि वह क्या प्रतिक्रिया दे! बहुत देर तक वह सोचता रहा। उसके मन में कुछ अलग किस्म के उमड़-घुमड़ चल रहे थे। किसी नए कवि के प्रति यूँ सहज भाव से कोई उत्सुकता कैसे जगा दे! फिर उसके सदियों के परिश्रम से जमा किए एट्टीट्यूड का क्या होगा! वह बहुत देर तक सोचता रहा। कुछ तो जवाब देना बनता था। उसने अपने हलक से कुछ वमन किया, “ओह!”
अरुण कौशल भी एक कवि है। वह समझ रहा था कि शब्द-व्यापार में आए इस अवरोध के बीच क्या पक रहा है! वह भी कहाँ चूकने वाला था! अरुण कौशल आगे लिखता है, “कभी-कभार छोटे लोगों पर भी नज़रें दौड़ा ले!”
अंशुमान प्रधान, “अभी पत्रिका पलट ही नहीं पाया।”
अरुण कौशल, अंशुमान प्रधान की इस चालाकी को समझ रहा था। अंशुमान प्रधान की भी कविता उसी पत्रिका के उसी अंक में आई थी। वह जानता है, अंशुमान प्रधान इतना स्थापित हो गया है की कि अब उसके अंदर आत्मकेंद्रण बढ़ गया है। उसे अपने अलावा किसी की भी खबर नहीं रहती है। वह फेसबुक, आर्कुट और ट्विटर पर हर जगह अपनी ही प्रशंसा के गान में लिप्त रहता है। उसे दूसरों पर ध्यान देने की फुर्सत कहाँ है।
अरुण कौशल, अंशुमान प्रधान को साफ-साफ बतलाना चाहता है कि तुम कोई बहाना मत ढूँढ़ो। ऐसा करने की कोई ज़रूरत नहीं है। जवाब में अरुण कौशल लिखता है, “नहीं, पिछले महीने के अंक में ही थी।”
अब अंशुमान प्रधान क्या करे! उसका गंभीर नकाब क्षतिग्रस्त हो गया है। लेकिन उसे मालूम है, यह चैटिंग है। जवाब दो, न दो, कोई पूछने वाला नहीं है। यह एक ऐसा प्लेटफार्म है, जिसपर ट्रेनें अपने आप आती-जाती हैं। इसके लिए कोई व्यवस्था या समय-सारणी नहीं है। यहाँ किसी के प्रति किसी की कोई जिम्मेदारी नहीं है। आदमी अपने मनोवेगों की ट्रेन को अपनी इच्छा मुताबिक भगाता चला जा रहा है। कोई उसके नीचे आए, मरे कटे, उसकी बला से। वह तो बस अपनी ऐसी-वैसी लालसाओं के पहाड़ पर बैठा है।
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कुल मिलाकर लब्बो-लुबाब यह कि अंशुमान प्रधान जैसे लोग बस अपनी ही पीठ ठोकने में लगे रहते हैं। उन्हें कई नवोदित कवि है जो इंटरनेट की दुनिया पर सक्रिय हैं, और जो बेहतर काम कर रहे हैं। जिनकी अभिव्यक्ति-क्षमता और शब्द संसार की दुनिया रंग-बिरंगी है, और जो बेहतर स्थापत्य के साथ अपना लेखन-कार्य संपन्न कर रहे हैं। तेवर नया है, अनुभव-जगत विस्तृत है और इंटरनेट के माध्यम से पूरी दुनिया मुट्ठी में है, मगर कई स्थापित लेखकों या कहें स्तंभकारों की नज़र में वे जाने कब तक अज्ञात कुल-शील बने रहेंगे। छोटे-बड़े पुरस्कारों के निर्णय-कुनिर्णय पर अपना आधिपत्य जमाए ये लोग अपने आगे-पीछे करनेवालों को ही तो कल के महान लेखक घोषित करेंगे। अरुण कौशल अब इस सच को जान गया है। वह अपनी इच्छा के लिए लिखता है और लिखना उसके जीने का और उसकी सोच का एक आईना है। अब यह आईना किसी को साफ और चमकता लगे तो अच्छा! वरना अगर किसी को इस पर धूल और धुंध भी जमा नज़र आए तो उसकी बला से। अरुण ने महानता के आगे का पोला और ऐंठन से भरा सच देख लिया था।